श्री परमहंस सद्गुरुदेव श्री पंचम पादशाही जी महाराज का जीवन

श्री परमहंस सद्गुरुदेव जी श्री पंचम पादशाही जी महाराज

सांसारिक लोकोक्ति और पुराणों के अनुसार यह सुना जाता है कि विधातृ षष्ठी के दिन कर्म लेख लिखती है और कुल गुरु नामकरण करते हुये जन्म- कुण्डली बनाकर लक्षण बताते हैं। महापुरुष स्वयं ब्रह्माण्ड के नायक और भाग्य विधाता होते हैं। विधातृ उनके लेख क्या लिखे ?

वह स्वयं भी श्री दर्शन एवं श्री चरणों का स्पर्श करने हेतु अपना सौभाग्य मनाने आती है। पिता जी ने भी नामकरण एवं जन्म कुण्डली के लिये कुल गुरु से विनय की । इस समय वे कभी आँख मूंदते और कभी खोलते।

तेजस्वी, प्रतिभावान, अधरों पर मुस्कान, मनोहर चितवन को निहारते हुये उन्होंने पत्रिका – पोथी के पत्रे पलटे । भाव- विभोर उनके मुँह से ‘साधुराम’ शब्द उच्चारण हुआ । लाला जी ! इस जन्म कुण्डली के लगन व ग्रह गोचर के भेद हम नहीं बता सकते, ये बुद्धि से परे हैं।

इस शिशु के मस्तक का तेज और चरणों की रेखायें इतनी किरणें बिखरा रही है कि इतना ही कह सकते हैं। कि यह महान प्रतापी, परोपकारी एवं सर्वगुण सम्पन्न अवतारी होगा। इतना ! इतना ! इतना ! महान सन्त, परमसन्त जो सर्वसृष्टि को अज्ञान और माया से छुड़ाकर ज्ञान का प्रकाश फैलायेगा। अब मैं इसके आगे और कुछ समझाने में असमर्थ हूँ ।

उसी समय आपकी पूज्य माता जी व पिता जी सोचने लगे कि हो सकता है, यह वाणी सत्य हो । कभी-कभी चमत्कार देखकर पूर्ण विश्वास हो जाता कि कहीं यह नाम सत्य न हो जाये । अतः उन्होंने आपका नाम बदलकर ‘रामप्रकाश’ रखा । यही नाम अन्य सम्बन्धियों में प्रचलित हुआ ।

आपके जन्म के कुछ समयोपरान्त पिता जी को संसार से उपरामता हो गई। वे हरिद्वार में एकान्त वातावरण में रहने लगे। अधिकांश समय वहीं व्यतीत करते। यहाँ उन्होंने साधु-वेष भी धारण कर लिया ।

जब कभी घर आते तो एक कमरे में बड़े सुपुत्र ( अमरनाथ जी) आटा, घी, चावल आदि भर देते । पिता जी अपनी मस्ती में फकीरों, साधु-सन्तों में बांटते रहते। मौन रहते और मौजवश कहते साधु ही साधू !!

आपकी बाल लीलाओं का सौभाग्य रायपुर कलां (गाँव) की धरती को मिला। मिट्टी के घर, मिट्टी की सड़कें और पास में कलकल करती हुई रावी का किनारा; मिट्टी से बना हुआ। आपने दर्शा दिया कि सन्त महापुरुष धरती की पुकार को सुनते हैं। महापुरुषों के चरण-स्पर्श से मिट्टी भी सोना बन जाती है। वह अपने भाग्य सराहती है कि भू-भार हटाने आये हैं समय के महापुरुष ।

आपकी माता जी साधु सेवी और सत्संग में रुचि रखने वाली थीं। वे ग्राम के गुरुद्वारे में आपको साथ ले जाती। आपके शीश पर पतली-पतली जटायें थी।

आप माता की गोदी से उतरकर बार-बार अपना सिर धरती पर रखते, मत्था टेकते, किलकारी मारकर हँसते। जब आप मुख नीचे कर ऊपर उठाते तो अनायास ही वहाँ बैठे भक्तों के हृदयों का ध्यान आपकी ओर आकर्षित हो जाता।

उस समय ऐसा लगता मानो बादलों की ओट में सूर्य ने अपनी रश्मियों को भूतल पर डालकर उसे प्रकाशमान बना दिया हो। जब कभी माता श्री को गुरुद्वारे में जाने में देर हो जाती तो आप अत्यधिक मचलना शुरू कर देते। शीघ्र ही सब काम छोड़कर स्वयं माता जी या आपकी बड़ी बहन शीला जी आपको उठाकर गुरुद्वारे चली जातीं।

पिछले जन्मों की तपश्यचर्या के अनुरूप ही बाल रूप की लीलायें निरखने का आनन्द मिलता है। गाँव की कई स्त्रियां एवं बुज़ुर्ग आपके घर में आकर कहते – बीबी ! आप धन्य हैं। आपके घर कोई भगवान का रूप ही आया है।

हमारा दिल इसे मिले बिना अधीर रहता है। इसे देखकर लगता है कि मानो जीवन की निधि मिल गई है। कई सुहृद सम्बन्धी आकर कहते कि न जाने क्यों बार-बार आपके घर आने को मन चाहता है।

कौन से अनोखे लाल ने आपके घर जन्म लिया है। घर में पाँव रखते ही दिल हर्ष से भर जाता है। माता जी कहतीं – मुझे क्या मालूम ! आप देख लें ! क्या जाने किसी सन्त ने यहाँ जन्म लिया हो ।

आपकी आयु दो वर्ष की हुई। की हुई। आप नियमानुसार माता जी के साथ गुरुद्वारे जाते, शीश झुकाते, गुरुवाणी को सुनने की धुन में ऐसे लय हो जाते कि सब देखते ही रह जाते थे।

एक दिन आप अपनी बड़ी बहन के साथ गये। पाठ करने वाले ग्रन्थी के पास कब पहुँच गये, किसी को पता न चला। दूर से किसी ने आवाज़ लगाई -बाबा जी ! अन्दर बच्चा कैसे पहुँच गया ? बाबा जी (चूँकि भक्तिवान रूहें अन्तर्हृदय से प्रकाशित होती हैं) ने आप पर दृष्टि

डाली और पाठ पढ़ते-पढ़ते उच्चारण करने लगे- धन निरंकार | धन निरंकार। धन निरंकार ! संगत भी उच्च स्वर में बोलने लगी- धन निरंकार |

बाबा जी आनन्दातिरेक से उच्चारण करने लगे कि निरंकार की जोत किस रूप में और कब आती है। वह अपना रूप प्रकटाती है परन्तु जीव समझ नहीं पाते। वे सांकेतिक भाषा में बतला रहे थे कि दिव्य जोत ने बालक के रूप में दर्शन दिये हैं। आप अवतारी विभूति हैं।

वैदिक नियमानुसार संसार में यह नियम प्रचलित है कि नाम-संस्करण, अन्नप्राशन, मुण्डन संस्कार आदि समय-समय पर सम्बन्धियों में पर्व की भाँति मनाये जाते हैं। आपके मुण्डन संस्कार पर भी सम्बन्धी एवं ग्रामवासी एकत्र हुये ।

प्रायः बालक मुण्डन करवाते हुये रोते हैं परन्तु आपका खिलता, हँसता हुआ चेहरा सबके दिलों में अनोखी प्रसन्नता भर रहा था। पण्डित जी ने मन्त्र बोला और नाइ ने मुण्डन आरम्भ किया।

अचानक ही एक बुज़ुर्ग के मुँह से निकला –माता! इसके सिर से निकलती हर बाल की किरण बतला रही है कि यह साधारण मुण्डन नहीं। यह एक संन्यास की क्रिया है ।

भाव यह कि ये स्वयं अभी से संन्यास ले रहे हैं और भावी समय में हजारों संन्यासी बनायेंगे अर्थात् आप काल माया के बन्धनों से छुड़ाकर सत्य का पथ दर्शायेंगे। उस समय किसी ने इस पर अधिक ध्यान न दिया। कौन जाने कि बुज़ुर्ग के शब्द भविष्यवाणी थे या उसके अन्तर्हृदय में भगवान प्रकट होकर स्वयं सन्देश सुना रहे थे। योगमाया के वशीभूत हो सबने सुना अनसुना कर दिया और आमोद-प्रमोद किया। वह भविष्यवाणी आज सब पर प्रकट है।

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