sadhguru darshan
sadhguru darshan-सद्गुरु शान्तस्वरूप तथा माया से अलिप्त होते हैं। मन माया में लिप्त होने के कारण चंचल है। इसलिये मन की चंचलता को दूर करने और मन को शान्त बनाने के लिये सत्पुरुषों की संगति व दर्शन की अति आवश्यकता में है।
हम सद्गुरु के दर्शनों को क्यों जाते हैं? इसका भेद अगर समझ में आ जाये तो हमको पूरा लाभ हो सकता है।
ज़रूरत इस बात की है कि वहाँ रहकर सद्गुरु के दर्शन करते और सत्संग सुनते हुए साथ-साथ अपने मन की अवस्था को भी देखते रहें; क्या उसकी चाल गुरु के वचनों से मिलती है या नहीं?
यदि मिलती है तो ठीक है, अगर कुछ कमी-बेशी है, तो उसको ठीक कर लेना चाहिये और फिर जब कभी मन की चाल बिगड़ जावे तो फिर सद्गुरु के दर्शन करके उनके पवित्र वचनों के साथ मिलाकर उसे ठीक कर लेना चाहिये।
सद्गुरु के दर्शन व उनके वचनों पर अमल करन की ज़रूरत है
जिस प्रकार शरीर तथा कपड़ों को साफ करने के लिये पानी तथा साबुन की आवश्यकता है। इसीप्रकार जन्म-जन्मान्तरों से मलिन मन को पवित्र बनाने के लिये सद्गुरु के दर्शन व उनके वचनों पर अमल करन की ज़रूरत है। यही कारण है कि सन्तों ने जिज्ञासु के लिय सद्गुरु के दर्शन और सत्संग पर जोर दिया है।
कुछ लोग कहते हैं कि सद्गुरु का दर्शन तो एक बार कर लेना हा काफी होता है, बार-बार जाने की क्या ज़रूरत है?
उनको चाहिये कि वे इतिहास पढ़ें। इतिहास क्या बताते हैं?
जिन प्रेमियों को गुरु के दर्शन और सत्संग का रस मिला है, वही है जानते हैं कि इस चीज़ की कितनी आवश्यकता है। यह तो है गूंगे की मिठाईवाला रस है। गूंगे को रस तो मिला होता है ।
परन्तु वह बता नहीं सकता–’कहे कबीर गूंगे गुड़ खाया
अलफ़ एह तन मेरा चश्मा होवन,मैं मुर्शिद वेख न रज्जाँ हू ।
लूँ लूँ दे मुढ लख लख चश्मा,इक खोला इक कज्जाँ हू ॥
इतने डिठियाँ मैंनूँ सबर न आवे,होर किते वल भज्जाँ हू।
मुर्शिद दा दीदार वे बाहू, – मैंनें लख करोडाँ हज्जाँ हू॥
साईं बुल्लेशाह जाति के सैय्यद थे और उनके मुर्शिद । गुरु साहिब जाति के अराईं।यद्यपि रूहानी दुनिया में इन बातों को कोई नहीं देखता, परन्तु साधारण लोगों की दृष्टि तो अपनी ही होती है।
जब बुल्लेशाह ने गुरु धारण किया तो में लोग उन्हें ‘काफ़र’ कहने लग गये कि इसने सैय्यद होकर अराई को गरु बनाया है।
परन्तु गुरु क मिलाप से अन्दर जो रस बल्लेशाह को मिल रहा था, उसको तो वो ही जानते थे। कौन जाने बुल्लेशाह की दृष्टि में गुरु स्वरूप कितना महान् था; इसको दूसरा कोई जान भी नहीं सकता था
sadhguru darshan KI mahima
जब बुल्लेशाह को लोग काफ़र कहने लग गये तो…….
उन्होंने अपनी झोली पसारकर कहा- ‘बुल्लेया! लोग काफ़र- काफ़र आखदे, तूं आहो-आहो आख’ । ऐ बुल्ला! यदि लोग तुझे काफ़र कहते हैं, तो तू बुरा न मान, उनको यही उत्तर दे कि मैं काफ़र हूँ। मेरे गुरु की ज़ात पाक़ है और मेरी ज़ात में ख़ाक है।
अगर मेरे गुरु अराईं हैं, तो मैं भी अराईं हूँ।जब इस बात की चर्चा आम लोगों की ज़बान पर आ गई तो तंग आकर एक बार उसके घर के सम्बन्धी भी है बुल्लेशाह को समझाने आये कि वे इस मार्ग को छोड़ दें ।
जिस पर वे चल पड़े हैं, क्योंकि इससे संसार में हमारी निन्दा होती है। मारे शर्म के हम किसी को मुँह नहीं दिखा सकते। यह बात बुल्लेशाह की बहनों और भाभियों ने आकर कही।
बुल्ले यूं समझावन आइयाँ, भैणा ते भरजाइयाँ ॥
साडे आखे लग वे बुल्लेया, तैं की लीकाँ लाइयाँ ॥
.नाना तेरा पाक मुहम्मद, दोस्ती नाल अराइयाँ ॥
तब बुल्लेशाह ने जो उत्तर दिया उस प्रश्न- उत्तर को नीचे लिखा जाता है
जो कोई सानूं सैय्यद आखे, दोजक मिलण सजाइयाँ ।
जो कोई सानूं कहे अराई, बहिश्ती पीघाँ पाइयाँ ॥
बुल्लेशाह बोले-“मैं सैय्यद नहीं, अराईं हूँ। मुझे कोई सैय्यद मत कहे।’
सच है कि अगर कोई गुरु को देखना चाहे तो वह गुरुमुख की आँख से देखे, तब उसे पता चले कि सद्गुरु क्या है।
सद्गुरु दर्शन की महिमा -बाबा फरीद साहिब जी की वाणी है :
फरीदा गलीए चिकडु दूरि घरु नालि पिआरे नेह ॥
चला त भिजे कंबली रहां त तुटै नेहु ॥
भिजउ सिजउ कंबली अलह बरसउ मेहु ॥
जाइ मिला तिना सजणा तुटउ नाही नेह ॥
बाबा फरीद साहिब के प्यारे सज्जन कौन थे, जिनके दर्शन पाने की उनके दिल में लालसा थी? कोई कह सकता है कि उनके प्यार का निशाना कोई सांसारिक वस्तु थी या उनके प्यारे सज्जन कोई संसारी व्यक्ति थे
जिनके दर्शनों के लिये उनके दिल में प्यार उठ रहा था। कदापि नहीं क्योंकि वे तो वैराग्य का घर और महापुरुष थे।
ईश्वर के भी दो स्वरूप हैं
उनकी वाणी गुरुवाणी के साथ जोड़ी गई है। ऐसी सूरत में यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता कि उनका प्यार सांसारिक था। अगर मान लिया जाये कि उनका प्यार सांसारिक नहीं है बल्कि ईश्वर का प्यार था, तो ईश्वर के भी दो स्वरूप हैं।
एक निराकार, दूसरा साकार। अगर कोई को कहे कि उनकाप्यार निराकार के दर्शन पाने का था, तो यह यह भी नहीं होसकता, क्योंकि निराकार तो सर्वदेशी और सर्वव्यापक हैं l
जो फरीद साहिब के अन्दर भी था; अपने अन्दर दर्शन कर सकते थे। इस पर ‘गलीए चिकडु दूरि घर का प्रश्न ही नहीं उठ सकता। इसलिये विचार करने से सिद्धान्त यही बनता है कि उनके प्यार का निशाना एकदेशी साकाररूप ईश्वर था
सो साकाररूप ईश्वर गुरु का स्वरूप ही हो सकता है। क्योंकि जब भी और जिसको भी ईश्वर ने अपना ज्ञान दिया है, वह गुरु के रूप में ही दिया है। भाव कि बाबा फरीद साहिब जी के दिल में गुरु के दर्शन का उत्साह था लेकिन वर्षा हो रही है, गलियों में कीचड़ है।
सोचते हैं कि अब क्या किया जाये। एक तरफ तो गुरु के दर्शन का प्यार में है, दूसरी तरफ गलियों में कीचड़ है और पानी बरस रहा है। चलता हूँ तो कपड़े भीगते हैं, कीचड़ में गिरने का डर है। अगर रुकता हूँ तो प्यार टूटता है।
सोच-विचार के पश्चात् यह फैसला किया कि कीचड और पानी से कपड़े भीगकर खराब होते हैं तो होने दो परन्तु गरु के दर्शन को अवश्य जाना चाहिये ताकि उनके दर्शन का प्यार न टूट जाए ।
प्रसंग चला हुआ है गरु के दर्शन की महिमा का
भाग्य से जिनको यह रस आ गया है, वही इसको समझते हैं कि गुरु के दर्शन की कितनी आवश्यकता है तथा दर्शन और सत्संग के बिना मन की अवस्था क्या हो जाती है?
आगे सन्तों ने ये वचन फ़रमाये हैं-जगह-जगह का माहौल भी अपना-अपना होता है। जिस स्थान पर महापुरुषों के चरणों का निवास होता है तथा जहाँ उनकी मौज काम कर रही होती है, उस माहौल में पहुँच पाने से ही मन की अवस्था आप से आप सुधरने लगती है।
क्योंकि सन्त- महापुरुष जिस स्थान को निवास स्थान बनाकर सत्संग का सिलसिला जारी करते हैं, तो उनके पवित्र शरीर से तथा उनके सत्संग के वचनों से जो रूहानी किरणें फूटती है हैं
वह आस-पास अपना मण्डल बाँध लेती हैं और जो श्रद्धालु जीव उस पवित्र मण्डल में प्रवेश करते हैं, उनपर भी उस मण्डल का असर होता है।
चूंकि वह वायुमण्डल पवित्र तथा पारमार्थिक होता है, इसलिये उसमें प्रवेश करने वाले जीव आप से आप परमार्थी बनते जाते हैं। यह महापुरुषों मेंके सत्संग की बरकत होती है।
संशय-भ्रमों को उत्पन्न करनेवाला एक कारखाना हैं जिससे नित्य नये संशय-भ्रम पैदा हो-होकर मानुष्य को परेशान करते रहते हैं।
लेकिन भाग्य से मनुष्य जब महापरुषों के पवित्र मण्डल में पहुँचकर सत्संग वचनों को सुनता है, तो उन संशय-भ्रमों के के पूछने- पूछाने की आवश्यकता ही नहीं रहती, आप से आप साफ जाते हैं।
श्री गुरुदेव श्री दूसरी पादशाही जी महाराज का ज़माना था। जब सत्संग-उपदेश का सिलसिला विशालरूप धारण कर गया,
तो अनेक बड़े-बड़े विद्वान् और वक्तागण अपने दिल में संशय-भ्रमों की पोट बाँधकर आते थे कि हम यह पूछेगे, वह पूछेगे, लेकिन ज्योंहि दर्शन पाकर सत्संग के वचन सुनते थे
तो उनका दिल अपने आप साफ हो जाता था और वे नमस्कार करके उठते थे। यह सब अपनी आँखों देखी बातें हैं।
सद्गुरु दर्शन की महिमा का श्रीरामचरितमानस का प्रसंग
श्रीरामचरितमानस का प्रसंग है कि एक बार गरुड़ ।जी के मन में भ्रम उत्पन्न हो गया, जिसने उन्हें अति व्याकुल कर दिया।
तब वे शिव जी महाराज जी के कहने पर काकभुशुण्डि जी के आश्रम पर सत्संग सुनने के लिये गये।
अभी आश्रम पर पहुँचे भी नहीं थे कि उस मण्डल में प्रवेश–करते ही मन साफ हो गया। यह सब सत्संग का ही प्रभाव है। जिस स्थान पर वह चल पड़ता है,तो अपना असर दिखाये बिना रहता नहीं।
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