SSDN Morning Aarti | Shri Anandpur Aarti Lyrics

SSDN Morning Aarti | Shri Anandpur Aarti

SSDN Morning Aarti | Shri Anandpur Aarti

ॐ जय श्री जगतारण – आरती

ॐ जय श्री जगतारण,स्वामी जय श्री जगतारण
ॐ जय श्री जगतारण, स्वामी जय श्री जगतारण ।
शुभ मग के उपदेशक, यम त्रास निवारण ॥ ॐ जय ०

(1)
परमारथ अवतार जगत में,गुरु जी ने है लीन्हा;
मेरे स्वामी जी ने है लीन्हा ।
हम जैसे भागियन को, गृह दर्शन दीन्हा ॥ ॐ जय ०

(2)
कलि कुटिल जीव निस्तारण को,
प्रभु सन्त रूप धर के; स्वामी सन्त रूप धर के ।
आतम को दर्शावत, मल धोये हैं मन के ।। ॐ जय ०

(3)
आप पाप त्रय – ताप गये,
जो गुरु शरणी आये;
मेरे स्वामी शरणी आये ।
गुरु जी से लाल अमोलक, तिस जन ने पाये ॥ ॐ जय ०

(4)

सहज-समाधि, अनाहत – ध्वनि जप
अजपा बतलाये; स्वामी अजपा बतलाये ।
प्राणायाम की लहरें, मेरे मन भाये ॥ ॐ जय ०

(5)

हरि किरपा कर जन्म दियो,
जग मात पिता द्वारे;
स्वामी मात पिता द्वारे ।
उनसे अधिक गुरु जी हैं, भवनिधि से तारें ॥ ॐ जय

(6)

तले की वस्तु गगन ठहरावे,
गुरु के शब्द शर से ;सतगुरु के शब्द शर से ।
सो सूरा सो पूरा, बल में वह बरते ।। ॐ जय ०

(7)

तत् — स्नेह, प्रेम की बाती,
योग अगन जिन के;
स्वामी योग अगन जिन के ।
आरती लायक सो जन, जो हैं शुद्ध मन के ॥ ॐ जय ०

(8)

श्री परमहंस सतगुरु जी की आरती,
अष्टपदी रच के; ‘साहिबचन्द’ ने गाई,
पद रज सज कर के ॥ ॐ जय ०


श्री परमहंस दयाल जी – विनती



॥ दोहा ॥

श्री परमहंस दयाल जी, पूरण सुख के धाम ।
बार बार दण्डवत करूँ, कोटिन कोटि प्रणाम ॥ 1 ॥

हाथ जोड़ विनती करूँ, सतगुरु कृपानिधान ।
सेवा अपनी दीजिये, और भक्ति का दान ।। 2 ।।

सुखदाता दुःखभंजना, सतगुरु तुम्हरो नाम ।
नाम अमोलक दीजिये, भक्ति करूँ निष्काम ॥ 3 ॥

नाव बनाई शब्द की, बहुत किया उपकार ।
भवसागर में डूबते, लीन्हे जीव उबार ॥ 4 ॥

तुम बिन कोई मीत नहीं, स्वारथ का संसार ।
बिन स्वारथ सतगुरु करें, निशिदिन पर उपकार ॥ 5 ॥

मैं निर्बल अति दीन हूँ, तुम समरथ बलवान ।
सब विधि मम रक्षा करो, दीनबन्धु भगवान ॥ 6 ॥

बिरद सम्भारो नाथ जी, शरणागत प्रतिपाल ।
बाँह गहे की लाज है, मेरी करो सम्भाल ॥ 7 ॥

समरथ सतगुरु देव जी, लीन्ही तुम्हरी ओट ।
तुम्हरी कृपा से मिटत हैं, जन्म जन्म के खोट ॥ 8 ॥

मैं अपराधी जीव हूँ, नख शिख भरा विकार ।
अपनी दया से सतगुरु, कीजै भव से पार ॥ 9 ॥

भटक भटक कर आइया, पर्या तुम्हरे द्वार ।
चरण-शरण में राख लो, अपनी किरपा धार ॥ 10 ॥

तुझसा मुझको है नहीं, मुझसे तुम्हें अनेक ।
राखो चरणन छाँव में, गही तुम्हारी टेक ॥ 11 ॥

टेक एक प्रभु आपकी, नहीं भरोसा आन ।
तुम्हरी किरपा दृष्टि से, पाइये पद निर्वाण ॥ 12 ॥

अनिक जन्म भरमत रहियो, पायो न बिसराम ।
आया हूँ तव शरण में, कृपा सिन्धु सुखधाम ॥ 13 ॥

लिव श्री चरणन में लगे, जैसे चन्द चकोर ।
रैन दिवस निरखत रहूँ, गुरु मूरत की ओर ॥ 14 ॥

श्री गुरु चरण सरोज में, राखूँ अपना शीश ।
चाहूँ तुझ से मैं सदा, प्रेम भक्ति बख़्शीश ॥ 15 ॥

पत राखो मेरे साईयाँ, दयासिन्धु दातार ।
बार बार विनती करूँ, सतगुरु तव चरणार ॥ 16 ॥

पारब्रह्म सतगुरु मेरे, पूरण सच्चिदानन्द
नमस्कार प्रभु आपको, भक्तन के सुखकन्द ॥ 17 ॥

श्री मात पिता सतगुरु मेरे, शरण गहूँ किसकी ।
गुरु बिन और न दूसरा, आस करूँ जिसकी ॥ 18 ॥

जयकारा, निस्तारा, धर्म का द्वारा,
झूलेगी ध्वजा, बजेगा नक्कारा,
सुनकर बोलेगा सो निहाल होयेगा;
॥ बोल साचे दरबार की जय ॥


जय सत् चित् आनन्द मूरति – स्तोत्र



जय सत्-चित्-आनन्द मूरति , स्वामी जी के चरण वन्दनम् ।
जो दे उपदेश क्लेश नाशैं, कलि के कलुष विभंजनम् ॥ 1 ॥

जो ज्ञान-निधि विज्ञान-दायक, घायकं घायकं सब सब दुष्कृतम् ।
युतयोग भोगहिं रोग जानें, सुख-दुखं सम अरि-मितम् ॥ 2 ॥

परमारथ पथ भेद वेद के, खेद बिन जो दायकम् ।
शरणागत के भरम हत के, सत् ही के कर लायकम् ।। 3 ॥

मलयदल-अमल अचल पदाम्बुज, सद्गुरु के जो ध्यावतम् ।
सुख सुयश सुगति सुबुद्धि सुशान्ति, बिन प्रयास सो पावतम् ॥ 4 ॥

है जग जन्म सफल तिस का, जो गुरु-पद-रज मन लावहिं ।
ज्यों पारस परस कुधातु सुधरे, त्यों फिर जन्म न आवहिं ॥ 5 ॥

दया के सिन्धु ज्यों, शीतल इन्दु ज्यों, ॐ के बिन्दु ज्यों भासतम् ।
तेजमय भानु ज्यों, विद्या की खान ज्यों, अहनिशि ध्यान में वासतम् ॥ 6 ॥

परम धर्म श्री सतगुरु की सेवा, विदित नरक निवारणम् ।
जासु शब्द भव-बन्धन काटत, समझ पड़त यहि कारणम् ॥ 7 ॥

सन्त महात्मा और बुध-जन, वेद पुराण यहि गावहिं ।
प्रभु ते अधिक गुरु जो सेवत, सो निश्चय प्रभु पावहिं ।। 8 ।।

शुक- सनकादिक, ध्रुव-नारदादिक, गुरु-उपदेश ते अमरणम् ।
ऋषि मुनि जन प्राकृत जग में, ले दीक्षा प्रभु सुमिरणम् ॥ 9 ॥

गुरु-यश दिक्-पद अहनिशि गावत, दसहुँ दिशि भ्रम दुःख जारतम् ।
गुरु-पद-जलज अलि मन जाको, ‘साहिबचन्द’ उच्चारतम् ।। 10 ।।


स्वामी मेरा परमहंस महाराज – छन्द


टेक- स्वामी मेरा परमहंस महाराज, विद्या सागर परम आनन्द ॥

1- आपने गुरु जी की सेवा कीन्ही,
उन से निर्गुण भक्ति लीन्ही ।
गुरु जी को हिरदे बैठक दीन्ही,
है वे परम पुरुष आनन्द ॥
स्वामी मेरा परमहंस महाराज …


2- आपने ध्यान में लिव लगाई,
सकल ब्रह्म आतम जोत जगाई ।
जीव अजीव ब्रह्म दरसाई,
होवे अज्ञान से ज्ञान आनन्द ॥
स्वामी मेरा परमहंस महाराज …

3- गुरु जी की महिमा अति अगम,
बुद्धि समझ न पावे गम ।
हिरदे शुद्ध दृष्टि सम,
मस्तक दरशे सूरज चन्द ॥
स्वामी मेरा परमहंस महाराज …

4- गुरु जी की मधुर वाणी और पन्द,
शक्कर से ज़्यादा मीठी कन्द ।
करें सब सामय उसे पसन्द,
सुने से मिटे दरद दुःख द्वन्द ॥
स्वामी मेरा परमहंस महाराज …

5- दर पर भले बुरे सब आवें,
इच्छा पूरण होकर जावें ।
पाछे सबसे यही बतलावें,
प्रीति गुरु जी की मुझ पे बुलन्द ॥

6- गुरु जी की किरपा सब पर भारी,
जो समझे वो है अधिकारी ।
जो न समझे वो नाकारी,
आप हैं साचे और पाबन्द ||
स्वामी मेरा परमहंस महाराज …

7- गुरु जी ने दुःख सुख एक सा माना,
सब घट आतम को पहचाना ।
जिसने मता आपका जाना,
मिटाया उसके जग का फन्द ॥

8- स्वामी ! गो हूँ मैं सेवा हीन,
पर हूँ किरपा के आधीन ।
तुम्हरी चरण-शरण की लीन,
काटो क्लेश दुःख और द्वन्द ||
स्वामी मेरा परमहंस महाराज …

9- भवसागर से हमें उबारो,
करुणा-जहाज़ बना कर तारो ।
वैतरणी से पार उतारो,
सवारी देकर ज्ञान देकर ज्ञान समन्द ॥

10- गुरु जी की महिमा क्या कोई गावे,
जाकी बुद्धि पार नहिं पावे ।
पर मन चित्त से शरणी आवे,
उसी को होवे सदा आनन्द ॥
स्वामी मेरा परमहंस महाराज …

11- गुरु जी की महिमा जग में फैली,
बँट रही धन मुक्ति की थैली ।
दुनिया न समझे अलबेली,
बुद्धिहीन जीव मति मन्द ॥
स्वामी मेरा परमहंस महाराज …

12- गुरु जी की महिमा सब मिल गावो,
और अभिमान को दूर हटावो ।
प्रेम की नदियाँ खूब बहावो,
जोड़कर कहै छन्द यह ‘नन्द’ ।।

पूरण सतगुरु ब्रह्म स्वरूप – स्तुति

sanwali surat pe mohan (सांवली सूरत पे मोहन)