हितोपदेश

सन्तों के वचन

सन्तों के वचन हितोपदेश होते है

सन्तों के वचन है यदि तुम पाप, दुःख, चिन्ता तथा परेशानियों से सदा के लिए मुक्त होना चाहते हो तो अपने मालिक में अटूट विश्वास रखो

साध संग संसार में, दुरलभ मनुष सरीर ।

सतसंगति से मिटत है, त्रिविध ताप की पीर ॥

(सन्त दयाबाई जी)

सन्तों के वचन है :

सभी ग्रंथों में मनुष्य-शरीर की महिमा करते हुए उसे दर्लभ कहा गया है, परन्तु उससे भी दुर्लभ है-सन्तों-सत्पुरुषों की संगति का प्राप्त हो जाना।

जिसे सत्संगति प्राप्त हो जाये, वह अत्यन्त भाग्यशाली है, क्योंकि सत्संगति के प्रताप से उसके तीनों प्रकार के ताप (आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक) नष्ट हो जाते हैं।

संसार की प्रत्येक वस्तु–धन, संपदा, वैभव, परिवार आदि सब कुछ अन्त में बिछुड़ जायेगा; इनमें से कुछ भी परलोक में साथ नहीं जायेगा। इसलिये इन सबका मोह त्याग एक परमात्मा के संग प्रीत का नाता जोड़ना चाहिये, जोकि दर लोक और परलोक में भी सदा संग-सहाई है।

।। दोहा ।।

नीच नीच सब तर गये, संत चरन लौलीन ।

जातहिं के अभिमान से, डूबे बहुत कुलीन ॥

(सन्त तुलसी साहिब जी)

जो कोई संसार-सागर से पार होना चाहता है, उसे चाहिये कि निराभिमान होकर सन्त-सत्पुरुषों की शरण ग्रहण करे। जिसके सिर पर अभिमान की गठरी होती है, वह संसारसागर से कभी पार नहीं हो सकता।

॥ दोहा ।।

जग माहीं ऐसे रहो, ज्यों जिभ्या मुख माहिं ।

घीव घना भच्छन करे, तो भी चिकनी नाहिं ॥

सन्तों के वचन है जिह्वा मुख में रहती है और जब मनुष्य भोजन करता है, तो घी से बने पदार्थों का खूब स्वाद लेती है, परन्तु फिर भी चिकनी नहीं होती अर्थात् घी के चिकनेपन के असर को ग्रहण नहीं करती।

उसी प्रकार ही तम भी संसार में रहो। संसार में रहते हुए आवश्यक कर्तव्य-कर्म करो, आवश्यकता के अनुसार सासारिक पदार्थों को उपयोग में लाओ, परन्तु उनका प्रभाव तुम्हारे ऊपर प्रभावकारी न हो सके, फिर तम्हें कोई दुःख, चिन्ता, कष्ट, क्लेश नहीं सतायेगा।

यारी मौला बिसारि के, क्या लागा बेगाम है रे ।

कुछ जीते बंदगी कर ले, आख़िर को गोर मुक़ाम है रे ।।

बिन बंदगी इस आलम में, खाना तुझे हराम है रे ।

बदा करै सोई बंदगी, ख़िदमत में आठों याम है रे ।।

सन्तों के वचन है :

जिस परमात्मा ने मनुष्य-शरीर जैसा दुर्लभ एवं अनमोल शरीर प्रदान किया है और जो सदा इसकी प्रतिपाल करता है, उसकी भजन-भक्ति करना मनुष्य का कर्तव्य है। जो उस परमात्मा के दिये हुए उपहारों का उपयोग करते हुए भी उसका भजन-सुमिरण नहीं करता, उसका जीवन निरर्थक है।

॥ दोहा ।l

धरनी धरि रहु हरि ब्रतहिं, परिहरि सब ही मोह ।

धन सुत बंधु विभव जत, होवे अंत बिछोह ।।

(सन्त चरनदास जी)

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