सन्त किसे कहते हैं ?
यह एक ऐसा सवाल है जो अक्सर आदमियों के दिल में गुज़रता रहता है। मगर इससे पहले कि आप इसे अच्छी तरह समझ सकें, चन्द बातें आपको इन्सान के सम्बन्ध में बतला देनी ज़रूरी हैं।
यह तो हर शख्स मानता है कि मनुष्य जन्म चौरासी लाख योनियों में से उत्तम जन्म है। यह सवाल कि बाकी कुल योनियों में से इसको विशेषता क्यों दी गई है, इससे आमतौर पर लोग वाकफियत रखते हैं और सन्तों ने भी अपनी बाणियों के अन्दर इस पर बहुत कुछ बहसें की हैं परन्तु फिर भी हम यहाँ इसके विषय में थोड़ा सा लिख देते हैं।
जिस सिफ़त के कारण यह हैवानों से ऊँचा माना गया है, वह क्या है? वह इन्सान की अक्ल है जिसकी बदौलत वह अपने नफ़ा व नुकसान को सोचता है।
नेकी बदी और भलाई-बुराई में तमीज़ करता है। हैवानों में यह समझ नहीं कि वह अपनी कमी-बेशी को सोच सकें क्योंकि उनकी अक्ल नफ़सानियत के अन्दर गुम हो चुकी है।
वह ज़्यादा से ज़्यादा अगर सोच सकते हैं तो सिर्फ अपने पेट भरने की; इसके आगे उनकी समझ काम नहीं करती। उन को यह ज्ञान नहीं कि उनकी भलाई किस में है और बुराई किस में नेकी का रास्ता कौन है और बदी का कौन?
पुण्य किसे कहते हैं और पाप क्या वस्तु है?
यही कारण है कि वे पशु कहलाते हैं, परन्तु मनुष्य की हालत कुछ और है। वह पुण्य पाप में तमीज़ कर सकता है। उसे यह ज्ञान है कि यह रास्ता नेकी का है और यह बदी का ।
नेकी का परिणाम नेक होगा और बदी का नतीजा खराब होगा। पुण्य करने में अच्छी गति मिलेगी और पाप करने से नरक में जायेंगे। इन्सान इन बातों को सोच सकता है और बुराई को छोड़कर भलाई की तरफ़ लग सकता है, यह इस में विशेषता है।
इसमें कोई शक नहीं कि एक समय हैवानों पर भी ऐसा था, जब वे भी इन्सानी रंग व रूप और शक्ल व सूरत रखते थे और हर किस्म की समझ बूझ व सोच विचार उनमें थी।
मगर उस समय उन्होंने अपने लाभ व हानि का ख्याल नहीं किया, अपनी अक्ल से कुल काम नफ़सानियत का ही लिया और इन्सानी चोले में रह कर हैवानों की सी ज़िन्दगी बसर की, जिसका नतीजा यह हुआ कि कुदरत कानून के अनुसार आज उन्हें सचमुच हैवान बनना पड़ा।
क्योंकि जो शख़्स इन्सानी वजूद के अन्दर अपने ख्यालात और खसलतें हैवानों की सी रखता है वह एक दिन शक्ल व सूरत में भी हैवानों में ही तबदील हो जाता है।
यह कुदरती कायदा है। इसलिए सन्तों ने यह हिदायत की है कि आदमी के ज़िम्मे सिर्फ़ यही फ़र्ज़ नहीं कि वह अपने शरीर का ही ख्याल रखे, बल्कि उसके लिए यह भी ज़रूरी है कि वह रूहानी तरक्की भी करे।
इसके ज़िम्मे ये दोनों काम हैं, जिस तरह वह अपनी जिस्मानी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अक्ल से काम लेता है, ऐसे ही उसे रूहानी खुराक हासिल करने के लिए भी अक्ल को इस्तेमाल करना चाहिए।
यो समझें कि जब कभी इन्सान के जिस्म के किसी हिस्से में दर्द पैदा हो जाता है तो वह अपनी अक्ल के ज़रिये महसूस करता है, अब इसका इलाज कराना चाहिये। इसी तरह रूहानी बीमारी के इलाज का भी इसको एहसास होना ज़रूरी है, क्योंकि ये रूहानी और जिस्मानी दोनों किस्म की बीमारियां इन्सान के अन्दर मौजूद रहती हैं।
जिस वक्त जिगर या मेदा अथवा शरीर के किसी दूसरे अंग में ख़लल पैदा हो जाता है तो उस हालत को बीमारी कहते हैं और जब इन्सान को अपने जिस्म में किसी किस्म की तकलीफ़ महसूस नहीं होती उस समय वह अपने आप को तन्दुरुस्त समझता है।
ऐसे ही रूहानी बीमारियों का भी हाल है। जो परमार्थ की समझ-बूझ रखनेवाले हैं, वे इस बात को समझते हैं कि लोगों के दिलों की हालत किस कदर खराब है और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, तृष्णा, ईर्ष्या व कुदृष्टि की ऐसी ऐसी बुरी आदतें उनमें पैदा हो गई हैं जिनको दूसरे शब्दों में रूहानी बीमारियाँ कहना चाहिये ।
कोई काम क्रोध करके दुःखी है, कोई लोभ के फन्दे में फँसकर ख्वार हो रहा है, कोई दूसरे को सुखी देखकर ईर्ष्या की अग्नि में जल रहा है, कोई कुटुम्ब के मोह बन्धन में फंसकर परेशान नज़र आता है, कोई तृष्णा रूपी डायन के पंजे में गिरफ़्तार हुआ हुआ है।
ये सब रूहानी बीमारियाँ हैं जिनके अन्दर फंसकर मनुष्य सदा दुःखी बना रहता है। जिस समय इन्सान के मन की हालत इतमीनान में होती है और वह शान्ति की हालत में होता है। तो वह रूहानी सेहत कहलाती है और जब उसके अन्दर बेचैनी हो तो वह दिल बीमार कहा जाता है।
इन्सान अपनी अक्ल से इस बात को बखूबी समझता है कि नेकी करने से दिल को आराम और खुशी हासिल होती है और बदी करने से दिल में दर्द और तकलीफ़ हुआ करती है।
यह दूसरी बात है कि बार बार पाप कर्म करने के कारण दिल सख़्त और स्याह हो जाय और आदमी अनुभव न करे परन्तु जिन के अन्दर ज़रा भी परमार्थ का ख्याल है, वे समझते हैं कि किसी पर गुस्सा करने से अपना दिल किस कदर दुःखी होता है और दूसरे की बुराई करने से दिल कितना खराब हो जाता है।
जिस तरह जिस्मानी बीमारियाँ कई किस्म की होतीहैं। इसी तरह रूहानी बीमारियाँ भी कई प्रकार की हैं। यह आप तस्लीम करेंगे कि ये बीमारियाँ इन्सान को आज से नहीं लगीं, बल्कि जब से आदमी पैदा हुआ और जब से इस सृष्टि की बुनियाद रखी गई है, तब से ही ये बीमारियाँ भी मनुष्य के साथ हैं।
तब से उसके इलाज करनेवाले डॉक्टर व हकीम भी मौजूद हैं। जब संसार में जिस्मानी डॉक्टरों का होना आवश्यक और ज़रूरी समझा जाता है। तो फिर रूहानी-डॉक्टरों की ज़रूरत भी ज़ाहिर है । सन्त इस संसार में रूहानी डॉक्टर हैं।
यह पवित्र गिरोह उस दिन से इन्सान के साथ है, जब से इस सृष्टि की रचना शुरु हुई है। इन्हें कोई सन्त कहे, साध कहे, गुरु या पीर के नाम से पुकारे हर सूरत में इनका प्रकाश दुनिया के हर ज़माने के अन्दर होता ही रहता है।
दानाओं का वचन है कि इन्सान की कदर व कीमत का कुल दारोमदार उसकी साफ़ ज़मीर के ऊपर है। इसलिए उसे चाहिए कि वह उसे खराब होने से बचाए रखे।
क्योंकि इससे उसको अपने कर्मों का भला या बुरा होना मालूम होता रहता है। जो शख़्स बार-बार पाप करने से अपनी ज़मीर को स्याह कर लेता है, वह रूहानी नुक्ता-ख़्याल से ज़्यादा बीमार समझा जाता है।
मगर ऐसी हालत का इलाज करना और उसे सेहत में लाना बहुत मुश्किल और ज़रूरी है। यह बात कि मनुष्य अपने मन की हालत को आप दुरुस्त रख सके या अपनी ज़मीर को स्याह न होने दे, बहुत मुश्किल है।
क्योंकि जहाँ तक मनुष्य की अपनी सोच-विचार का सम्बन्ध है, वह मन इन्द्रियों के दायरे के अन्दर है। मन जो कुछ भी सोचता है, अपनी परवरी और नफ़सानियत की सोचता है। जिसमें रूह का हद दर्जा का नुकसान हो जाता है। ज़मीर स्याह होकर नीचे दब जाती है।
मनुष्य कमज़ोर होकर कालचक्र में जा गिरता है इसमें सन्देह नहीं कि कोई भी आदमी अपनी हानि नहीं चाहता, सब की यही खाहिश होती है कि वह बेहतर से बेहतर हालत में रहे, मगर चूँकि उसके हर काम में राहनुमाई मन की होती है, इस कारण वह दिन बदिन कमतर से कमतर हालत में तबदील होता जाता है।
यहाँ तक कि उसकी रूह नीच योनियों के अन्दर जा गिरती है, जहाँ फिर वह बेबस और मज़बूर हो जाता है। इसलिए यह काम कुदरत से सन्तों ही के सुपुर्द हुआ है। जिस तरह बीमार अपनी बीमारी को आप नहीं समझ सकता और उसके इलाज के लिए उसे ख़ाह-मखाह डॉक्टर की ज़रूरत होती है, ऐसे ही यह रूहानी बीमार भी अपना इलाज आप नहीं कर सकता।
इसे भी रूहानी डॉक्टरों के पास जाना पड़ता है और सन्त यानि रूहानी डॉक्टर फिर जैसा मुनासिब समझते हैं, इसका इलाज करते हैं।
अब रहा यह सवाल कि –
साधु के क्या लक्षण होने चाहियें?
यह दुरुस्त है कि इन्सानी अक्ल की पहुँच यहाँ तक नहीं जो वह सच्चे साधु की पहचान कर सके, मगर फिर भी महापुरुषों के ख़्याल के अनुसार साधु उसे समझना चाहिए, जिसके दिल से नफ़सानियत का ख़्याल बिल्कुल दूर हो जाए।
जो रूहानियत की आला और ज़िन्दा तस्वीर हो और जिसका दिल उस मालिक की पवित्र मुहब्बत से भरपूर और प्रेम में डूबा हुआ हो और वह हर वक्त अपने आपको मालिक के हुज़ूर में समझे, उसका दिल ईश्वर के में बन्दों की हमदर्दी से भरा हुआ हो और उसका काम हमेशा यह हो कि लोगों की रूहानी बीमारियों का इलाज करे।
ऐसा साधु ईश्वर की दरगाह में कबूल होता है।वह दुनिया में रहता है, पर दुनिया की चीज़ों से न्यारा रहता है। जो साधु संसार में रहता हुआ संसारी वस्तुओं में दिल नहीं फँसाता, उसे ‘जीवन्मुक्त’ समझना चाहिए। उसकी ज़ात से ईश्वर के बन्दों को बहुत फ़ायदा पहुँचता है।
संसार के अन्दर कई किस्म के साधु व फ़कीर देखने में आते हैं। कई ऐसे हैं जो सालों पानी के अन्दर खड़े रहते हैं, कई ऐसे हैं जो हर वक्त अपना हाथ ऊँचा किए रहते हैं, कई ऐसे हैं जो कई कई दिन खाना नहीं खाते, केवल जल और पवन के आधार पर रहते हैं, कई ऐसे महात्मा हैं जो हमेशा जंगलों में ही रहकर अपनी ज़िन्दगी बसर करते हैं और फल-फूल खाकर गुज़ारा करते हैं।
संसार के अन्दर ये सब अपनी अपनी जगह पर सन्त या साधु गिने जाते हैं। मगर महात्माओं की पहचान के मामले में प्रायः आदमियों की समझ का रुख़ गलती की तरफ रहता है। हम किसी पर एतराज नहीं करते। हमारे दिल में सब की इज़्ज़त है।
॥ दोहा ||
साधु मेरे सब बड़े, अपनी अपनी ठौर । सबद बिबेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥
मगर इतनी बात ज़रूर है कि जिस महात्मा से मालिक की रूहों को ज़्यादा फायदा पहुँचे, वही ज़्यादा अच्छा होता है। बल्कि संसार के अन्दर इन्सान का यह असूल होना चाहिए कि उसकी ज़ात से ईश्वर के बन्दों को किसी न किसी किस्म का लाभ ज़रूर पहुँचे। क्योंकि जो शख़्स जिस कदर फ़ायदा लोगों को पहुँचाता है, उतना ही वह नेक ख्याल का समझा जाता है और ईश्वर की दरगाह में भी वह कबूलियत का दर्जा हासिल करता है।
रज्जबदास जी का वचन है
॥ दोहा ||
सन्त नदी जल मेघला, चलें विहंगम चाल । रज्जब जहँ जहँ पग धरै, तहँ तहँ करैं निहाल ॥
संसार के अन्दर सन्तों का आना दूसरों के भले की खातिर होता है। संसारी जीवों को हकीकत के रास्ते पर लाना और उनका कल्याण करना यह उनके ज़िम्मे कुदरत की तरफ से ड्यूटी होती है।
इसलिए सन्त वही समझना चाहिए, जिसकी ज़ात से लोगों को मालिक का रास्ता मिले और जिसके सत्संग के असर से लोगों के दिलों में यह हालत पैदा हो जाये कि वे सच को सच और झूठ को झूठ समझें और झूठ को त्यागकर सच को ग्रहण करते चलें।
क्योंकि लोगों को बुराई की तरफ से हटाकर नेकी के रास्ते पर चलाना सिवाय सन्तों के और किसी के ज़िम्मे नहीं रखा गया। जब सन्त ही दुनिया से न्यारे हो बैठे तो लोगों के वास्ते उनका होना न होना बराबर है।
अगर मालिक को हाथ खुश्क करवाना मंजूर होता तो वह शुरु से ही हाथ जैसी नेमत आदमी को न बख्शता। अगर मालिक को एक टाँग पर खड़े रहना पसन्द होता तो वह दो टाँगें हरगिज़ न देता। हम किसी पर एतराज़ नहीं करते और न ही हम इस बहस में पड़ना चाहते हैं।
मगर इतना ज़रूर कहना पड़ता है कि भक्ति मार्ग में इन सब बातों की ज़रूरत नहीं है और न ही ऐसा करने से इन्सान के मन पर कुछ असर पड़ता है। क्योंकि सन्तों का मार्ग बिल्कुल साफ और सीधा है। उसमें किसी किस्म की बनावट और पेचीदगी नहीं।
मालिक ने जो तुम्हें हाथ-पाँव दिये हैं, वे ज़रूरत के लिए दिए हैं। इन्हें खुश्क कर देना जान-बूझकर उसकी बख्शी हुई नेमत को गँवा देना है। सारी आयु चुपचाप रहना अपने फ़र्ज़ की अदायगी से हाथ धोना है। यह बात तो आसान है कि इन्सान एकांत में बैठकर यह कहे कि मैं बुराई नहीं करूँगा; झूठ नहीं बोलूँगा और किसी प्रकार की ख़राबी नहीं करूँगा;
इसमें उसकी कोई बहादुरी नहीं। मर्दानगी तब है कि ऐसे मौके पेश आएँ और फिर बचे। आग में पड़कर आग से बचे रहना थोड़ी ताकत का काम नहीं। हाँ, अगर वह इतना हौसला नहीं रख सकता तो उसके लिए आग से दूर रहना बेशक अच्छा है। मगर साथ ही यह बात भी ज़रूरी है कि जब तक मनुष्य परीक्षा में न पड़े वह दर्जा कमाल तक नहीं पहुँच सकता।
जब सिर पर पूर्ण गुरु का हाथ है तो कुछ फिकर नहीं । इन्सान को चाहिए वह इन्सानों में रहे। अपने इखलाक और भक्ति का उत्तम नमूना पेश करके लोगों को सीधे रास्ते पर लावे और वास्तव में साधु के ये लक्षण हैं कि में वह अपने सत्संग और उपदेश के द्वारा लोगों को लाभ पहुँचाए। क्योंकि जीव उद्धार का रास्ता सिवाय सत्संग के दूसरा कोई नहीं है।
कबीर साहिब जी ने भी फ़रमाया है
॥ दोहा ॥
कथा कीरतन कलि विषै, भौसागर की नाव ।
कह कबीर जग तरन को, नाहीं और उपाव ॥
कथा कीरतन करन की, जाके निसदिन रीति ।
कह कबीर उस साध से, निस्चै कीजै प्रीति ॥
कथा कीरतन छोड़ करि, करै जो और उपाय
कह कबीर ता साध के पास कोई मत जाय ॥
अर्थ – कबीर साहिब फ़रमाते हैं कि सन्तों के सत्संग में जाकर मालिक के गुणों को गाना, सुनना और उसके प्रेम में मग्न हो जाना, यह भवसागर से पार उतरने के लिए नाव है।
सिवाय इसके कलियुग के अन्दर पार उतरने का दूसरा कोई उपाय नहीं। जिन सन्तों के दरबार में सदा सत्संग व कीर्तन होता रहता है, मनुष्य को चाहिए उनके साथ अवश्य ही प्रीति करे। क्योंकि ऐसे सन्तों के साथ प्रेम करने से जीव का कल्याण होगा।
जो महात्मा सत्संग को छोड़कर और और उपाय करते रहते हैं, उनके पास किसी को नहीं जाना चाहिए। क्योंकि उनके समीप जाने से जिज्ञासु को कोई लाभ न होगा।
मालिक का भी वचन है कि जो लोगों को मेरे नज़दीक होने का रास्ता बतलाते हैं, वे साधु मुझे प्यारे हैं। जो लोग उनके साथ प्रेम करते हैं, सेवा करते हैं, वे मेरी ही सेवा करते हैं।
सन्तों का भी वचन है कि मालिक चूँकि सबसे बुजुर्ग और सब के ऊपर है, जिस कदर शुभ गुण भी हैं, सब उसकी पवित्र ज़ात में दर्जा कमाल मौजूद हैं। इसलिए जीव को बाकी सब तरफ़ से मन को हटाकर एक उसी के साथ सम्बन्ध पैदा करना चाहिए। जैसे श्रीकृष्ण महाराज जी ने भी गीता के अठारहवें अध्याय में अर्जुन को फ़रमाया है
|| शेअर ||
ऐ अज़ीजे मन तेरी मुश्किल कुशाई के लिए ।
राज़ सरबस्ता मुकर्रर कह सुनाता हूँ तुझे ॥
मेरी ख़ातिर कर रियाज़त मुझमें अपना दिल लगा ।
मेरे प्यारे मुझ को दे ताज़ीम मुझ पर हो फ़िदा ॥
तुझ से मैं करता हूँ वायदा इसको सच्चा जान ले।
बहरावर होगा तू आख़िरकार मेरे वस्ल से ॥
नक्शे-हस्ती को मिटा दे साया-ए-रहमत में आ ।
बख्श दूँगा तुझको मेरे कौल पर ईमान ला ॥
भगवान् फ़रमाते हैं ऐ अर्जुन! बाकी सब धर्मों को त्यागकर एक मेरी शरण हो जा, फिर निश्चय जान ले कि तू भवसागर से पार हो जायेगा।
क्योंकि बाकी सांसारिक जितने सम्बन्ध भी हैं वे सब आरज़ी हैं और बन्धन का कारण हैं; किसी भी चीज़ के साथ रूह का वास्ता नहीं।
सिर्फ़ यही ताल्लुक दायमी और सदा रहनेवाला है और इसी बात को हासिल करने के लिये संतों ने कई कई तरीके निकाले हैं।
जैसे भजन-अभ्यास, पूर्ण गुरु की सोहबत और सेवा के अमल से इन्सान का दिल पवित्र और साफ़ होकर मालिक के प्रेम के रंग में रंगा जाता है और इसी एक मकसद को हासिल करने के लिए सन्तों की सारी कोशिश होती है।
अब ग़ौर करना चाहिए कि इस ख्याल के अन्दर किस कदर हमदर्दी भरपूर है और ऐसी पवित्र हस्तियों की संसार में कितनी ज़रूरत है।