सतगुरु कृपा कैसे होती है ?

सतगुरु कृपा – सतिगुरु होइ दइआलु त सरधा पूरीऐ

सतगुरु कृपा – सद्गुरु की कृपा में ही सारी खुशियां निहित हैं। उनके चरणों में सब सुख समाए हुए हैं। जो भी इनका आश्रय लेता है उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता। वह निर्भय पद को प्राप्त करता है।

गुरुवाणी में सद्गुरु की दया की बढ़ाई इस प्रकार की गई है

सतिगुरु होइ दइआलु त सरधा पूरीऐ ॥

सतिगुरु होइ दइआलु न कबहूं झूरीऐ ॥

सतिगुरु होइ दइआलु ता दुखु न जाणीऐ ॥

सतिगुरु होइ दइआलु ता हरि रंगु माणीऐ ।

सतिगुरु होइ दइआलु ता जम का डरु केहा ।।

सतिगुरु होइ दइआलु ता सद ही सुखु देहा ॥

सतिगुरु होइ दइआलु ता नव निधि पाईऐ ॥

सतिगुरु होइ दइआलु त सचि समाईऐ ।

भाव यह है कि सद्गुरु की कृपा से जब झूठ, कपट, अविद्या व चतुराई का नाश होता है तब श्रद्धा और विश्वास उपजता है।

श्रद्धावान पुरुष के हृदय में ही ज्ञान टिकता है और सभी दुःख तकलीफ़ों व चिंताओं से छुटकारा मिलता है। सद्गुरु की दया से ही हृदय पर भक्ति का रंग चढ़ता है और उसकी चिकनाहट से सब दुःख ऐसे काफूर हो जाते हैं जैसे कमल के पत्ते से पानी।

जिसके ऊपर सद्गुरु की कृपा हो जाए फिर उसे यम का कोई भय नहीं रहता क्योंकि यम और महाकाल भी सद्गुरु के हुकम के अधीन हैं। सद्गुरु के कृपापात्र पर उसका कोई वश नहीं चल सकता ।

जिस पर सद्गुरु दयाल हों उसका तन मन सुखी एवं निरोगी रहता है क्योंकि सद्गुरु स्वयं वैद्य बनकर अपने शिष्य का उपचार करते हैं और उसे सभी व्याधियों से पल भर में मुक्त कर देते हैं।

सद्गुरु की दया में सब ऋद्धियां सिद्धियां और नव निद्धियां समाई हुई हैं जो उनके कृपापात्र सेवक को सहज में ही प्राप्त हो जाती हैं। जिस सेवक पर ऐसी कृपा हो जाती है वह झूठ से निकलकर सच में समा जाता है अर्थात् परमात्मा से एकरूप हो जाता है।

कथा है- एक दिन भगवान श्री कृष्ण जी ने युधिष्ठिर जी को एक गाँव में जाकर उस गाँव के सबसे महापापी व दुष्ट व्यक्ति को अपने पास लाने का आदेश दिया।

युधिष्ठिर जी ने कहा कि भगवन! मुझे कैसे पता चलेगा कि सबसे पापी व्यक्ति कौन है ?

भगवान ने कहा कि गाँव में पहुँचते ही जिस प्रथम व्यक्ति से तुम्हारी भेंट हो उसे ही महापापी समझना और उसके बारे में भले ही गाँव वालों से भी जानकारी ले लेना ।

आज्ञा पाकर युधिष्ठिर जी उस गाँव की ओर बढ़े और जिस प्रथम व्यक्ति से उनकी भेंट हुई उसके हाथ में माला थी और मस्तक पर बड़ा सा तिलक लगा हुआ था।

उन्होंने वहाँ के लोगों से उसके बारे में पूछा तो उन सबने उसके बारे में यही कहा कि यह ढोंगी और पाखंडी है। ऊपर से वेशभूषा साधुओं वाली डाल रखी है लेकिन यह महाकपटी सबसे धोखा करने वाला महापापी है।

युधिष्ठिर जी उसे साथ लेकर भगवान के पास आए। भगवान के दर्शन पाते ही उसके संस्कारों ने ज़बरदस्त पलटा खाया और उसके अन्तर्मन की समस्त मैल धुल गई।

उसे प्रेम का रंग चढ़ गया। प्रेमविभोर हो अश्रु बहाता हुआ भगवान के चरणों में गिरकर वह क्षमायाचना करने लगा। भगवान ने उसे पश्चात्ताप करता देख उस पर अपनी कृपादृष्टि डालकर सच्चे नाम की दात दे उसे वापस गाँव भेज दिया।

अगले दिन भगवान श्री कृष्ण जी ने युधिष्ठिर जी को पुनः उस गाँव में जाकर किसी पूर्ण महात्मा जी को लाने के लिए भेजा। युधिष्ठिर जी के पूछने पर उन्होंने कहा कि गाँव में प्रवेश करते ही जिस प्रथम व्यक्ति से आपकी भेंट हो, उसे पूर्ण साधु जान हमारे पास लेकर आना।

युधिष्ठिर जी जब गाँव में पहुँचे तो उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही। क्योंकि उनकी भेंट उसी व्यक्ति से हुई जो सबसे बड़ा पापी था।

वे हैरत में पड़ गए। लोगों से पूछा तो उन्होंने कहा कि कल से इसके स्वभाव में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है। यह बदनीयत से नेकनीयत इन्सान बन गया है।

इसके हृदय में अवगुणों की जगह वास हो गया है और इसका मन पूर्णतया सद्गुणों का पाक पवित्र हो गया है।

अब यह पापी से धर्मात्मा बन गया है। युधिष्ठिर जी जान गये कि यह सब भगवान की अनन्त कृपा का ही फल है जो उन्होंने इस दुराचारी को एक महान सन्त बना दिया है। प्रभु की शरण में आ जाने से व उनकी असीम कृपा द्वारा जीव का कल्याण हो जाना निश्चित है।

गुरुवाणी में सत्पुरुष वर्णन करते हैं

संत क्रिपाल क्रिपा जे करै । नानक संतसंगि निंदकु भी तरै ॥

दूसरे विकारों वाले मनुष्य का पार हो जाना आसान है पर निंदक का पार होना अत्याधिक कठिन है। सुखमनी साहिब में महापुरुष फ़रमाते हैं कि संत कृपा से निंदक भी से सहजे ही भव से पार हो जाता है।

सतगुरु कृपा कविता – ॥ कविता ॥

अनेकों पापी तर गए भव से ले संतों की टेक ।

सब ग्रंथों शास्त्रों में मिलती ऐसी मिसालें अनेक ।

कर्म धर्म जब करते अच्छे रख कर नीयत नेक ।

जीवन उनका हो सुहेला बाधा आए न एक

2. संत शरण में आए जो भी तज आशा अभिमान ।

अनेक यज्ञों का फल वह पाए संतो का फ़रमान ।

छोड़ के झूठ शान को करले तू रूह का कल्याण ।

मान कहा संतों का हो जाए हर मुश्किल आसान ।

3. श्री सतगुरु परम सुजान ने बन के वैद्य रूहानी।

नाम औषधि से हर क्लेश है की बड़ी मेहरबानी।

चौरासी से मुक्त किया और मिटा दी आनी जानी ।

वरद हस्त रख कृपा का सफल कर दी ज़िंदगानी।

4. कलिमल सारे धुल जाते हैं सन्तों की शरणाई।

सब वेद पुराणों ने महिमा है नेति नेति कह गाई ।

सच्चे संतों की संगति जिसने जीवन में अपनाई।

दोनों जहां में सतगुरु उसके बन गए संग सहाई।

5. तन मन धन गुरु चरणों में जो करता है अर्पण।

हो जाता है निर्मल फिर उसके मन का दर्पण ।

लुटाकर रहमत उस पर प्रभु जी हो जाते प्रसन्न ।

पल में करते निहाल उसे देकर भक्ति का धन ।

सन्त सामी साहिब जी फ़रमाते हैं

साधु ही संसार में आकर करते पर उपकार ।

देकर सदुपदेश लगावें नैय्या भव से पार ।

शीश झुकावे श्रद्धा से जो आके इनके द्वार ।

बन जाते दोनों लोकों के उसके ज़िम्मेवार ।

सतगुरु परम सुजान ने सिर पर रखा हाथ ।

मिटा दी मन की कल्पना सामी देकर साथ ।

बरसाया मेंह मेहरों का कर दिया मुझे सनाथ ।

हो कोटि कोटि वन्दना ए अनाथों के नाथ ।

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