ब्रज के भक्त श्रीनित्यानन्ददास बाबाजी (ब्रह्मकुण्ड) का श्री कृष्ण प्रेम
रागानुगीय सिद्ध महात्माओं में गोवर्धन के सिद्ध श्रीकृष्णदास बाबा के शिष्य श्रीनित्यानन्ददास बाबा थे अद्वितीय। उनकी मनोगति थी गङ्गा के प्रवाह के समान अविच्छिन्ना-स्वप्न, जागरण और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में एक-सी ! जागरण में वे रहते गम्भीर, निःस्पन्द, और समाधिस्थ।
आहार-विहार और शौचादि कृत्य के लिए सेवकों के अनुरोध पर ऐसे उठते, जैसे घोर निद्रा से। निद्रित अवस्था में लीला का दर्शन करते हुए हास्य, रोदन और प्रलाप इस प्रकार करते जैसे जाग रहे हों।
चेतनावस्था में मनोभाव गोपन रखते हुए गंभीर रहते। निद्रित अवस्था में भाव गोपन न रख सकते। हास्य, रोदन और प्रलाप के रूप में प्रकट कर देते। इसलिए सेवकों के लिए जानना कठिन होता कि वे सो रहे हैं, या जाग रहे।
ऐसी अवस्था में उनसे यदि किसी को कोई प्रश्न पूछना होता, तो कैसे पूछता ? कहने-सुनने का तो वहाँ कोई प्रश्न ही न था। पर उनके पास यदि कोई कुछ जिज्ञासा या शंका लेकर जाता, तो वह निराश न लौटता। उनके सान्निध्य में बैठने से ही शंका का समाधान हो जाता।
‘तृणादपि सुनीचेन’ श्लोक की बाबा सजीव मूर्ति थे। जो कोई भी उनके सामने आता, चाहे उनका शिष्य ही क्यों न होता, उसके दण्डवत् करने के पूर्व वे स्वयं ही उसे दण्डवत् करते। कोई उनके सामने किसी प्रकार की दैन्योक्ति करता, तो उन्हें रोना आ जाता।
रोना इसलिए आता कि उनके लिए उनसे अधिक दीन-हीन तो विश्व में और कोई था ही नहीं। जब वह उनके सामने अपना दैन्य प्रकाश करता, तो वे समझते कि वह परोक्ष रूप से उनकी प्रशंसा कर रहा है। उन्हें यह सोचकर दुःख होता कि वे उसकी प्रशंसा के पात्र तो बन नहीं सके, उलटे अपने कपट आचरण से धोखा दे रहे हैं उसे।
बाबा थे तो सिद्ध महात्मा, पंडित रामकृष्ण बाबा और गौरकिशोर शिरोमणि जैसे सिद्ध महात्माओं के भी गुरु । भक्त श्रेष्ठ होने के नाते स्वयं भक्त-वत्सल भगवान् भी थे उनके अधीन । तो फिर वे दीनता का नाटक क्यों करते थे ? क्या दूसरे लोगों को शिक्षा देने के लिए? नहीं, नाटक का तो ऐसे लोगों के लिए सवाल ही नहीं होता। उनके जो भीतर होता है, वही बाहर होता है।
उनकी आन्तरिक अनुभूति ही ऐसी होती है, जो उन्हें दीनातिदीन बना देती है। छोटी वस्तु को अपने छोटेपन का ठीक-ठीक ज्ञान तभी होता है, जब वह बड़ी वस्तु के निकट आती है। सिद्ध महापुरुषों को एक बृहत्तम, श्रेष्ठतम, वस्तु की साक्षात् अनुभूति होती है।
इसलिए उन्हें अपनी न्यूनतमता का अनुभव होना स्वाभाविक है। उस श्रेष्ठतम वस्तु का वे प्रत्येक प्राणी में दर्शन करते हैं। इसलिए प्रत्येक प्राणी को अपने से बड़ा और अपने को उससे छोटा मानते हैं। प्रत्येक प्राणी को सरल सहज निष्कपट भाव से प्रणाम करते हैं।
बाबा से यदि कोई कहता- ‘आपका अमुक शिष्य, जिसे आपने दण्डवत् की थी, बहुत दुःखी होकर गया है। आपका क्या उसके प्रति इस प्रकार का व्यवहार उचित है?’ तो बाबा भयभीत होकर कहते- ‘तो मुझे क्या करना चाहिये ? आप उपदेश कीजिये। वे तो महाभागवत हैं।
कृष्ण ने मेरे ऊपर कृपाकर उन्हें मेरे पास भेजा है। यदि मेरे आचरण से उन्हें दुःख होता है, तो मैं अपराधी हूँ। मैं ऐसा आचरण अब न करूँगा।’ परन्तु जब फिर वही शिष्य उनके सामने आता, तो इसे भूलकर पूर्ववत् प्रणाम करते ।
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सिद्ध बाबा वृन्दावन में मदनमोहन ठौर में रहकर भजन करते। आज भी उनका आसन वहाँ विराजमान है। उनके शिष्यों में प्रधान और सुविख्यात थे- श्रीगौरकिशोर शिरोमणि महाराज, श्री व्रजकिशोरदास बाबाजी, श्रीनृसिंहदासजी, श्रीरामकृष्णदास पंडित बाबाजी और श्रीनरोत्तमदास अधिकारी। नवद्वीप के श्रीगौरकिशोरदास बाबाजी भी उन्हीं से भजन-शिक्षा ग्रहण कर सिद्ध हुए थे।
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