श्री गुरु गोविंद सिंह जी
जन्म एवं पालन-पोषण
इतिहास की धारा को नई दिशा देने वाले अद्वितीय, विलक्षण एवं अनुपम व्यक्तित्व थे-खालसा पंथ के सृजक, साहिब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी । गुरु जी का जन्म 1666 ई. में पौष शुक्ल पक्ष की सप्तमी, विक्रमी संवत् 1723 को बिहार के शहर पटना में हुआ। पिता नवम् गुरु तेग बहादुर जी एवं माता गुजरी जी के घर में जन्मे इस इकलौते बालक का नाम रखा गया-गोबिंद राय ।
गुरु गोबिंद सिंह जी 6 वर्ष की आयु तक पटना में ही रहे। तेजस्वी और प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले गुरु जी अपने बाल सखाओं के साथ गंगा वट पर वीर रसात्मक खेल खेलते और युद्ध-कौशल का अभ्यास करते। 1673 ई. में नवम पातशाह सपरिवार आनंदपुर साहिब आ गए। बालक गोविंद राय की शिक्षा-दीक्षा यहीं से आरम्भ हुई।
उन्होंने शीघ्र ही पंजाबी, ब्रज, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं एवं तीरंदाजी, नेजेबाजी, घुड़सवारी आदि युद्ध कलाओं में दक्षता प्राप्त कर ली। पिता की शहादत सन् 1675 ई. में कश्मीरी पंडितों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा हेतु नवम पातशाह ने दिल्ली के चांदनी चौक में शीश कटाकर शहादत दे दी। मात्र नौ वर्ष की छोटी-सी
उम्र में बालक गोबिंद राय जी को गुरु गद्दी की गम्भीर जिम्मेदारी सम्भालनी पड़ी। गुरु जी ने शीघ्र ही सिखों में सैनिक प्रशिक्षण संबंधी गतिविधियां तेज कर दीं।
पांवटा साहिब में प्रवास
सन् 1684 ई. में दशम गुरु नाहन रियासत के राजा मेदिनी प्रकाश के निमंत्रण पर यमुना के किनारे स्थित पांवटा साहिब में आ गए। यहाँ गुरु जी साहित्य सृजन की ओर भी प्रवृत्त हुए। आप ने ‘जापु साहिब’ ‘अकाल उस्तति’ और ‘सवैये’ जैसी वाणियां यहीं उच्चारित कीं। विख्यात 52 कवि भी यहीं गुरु दरबार में रहा करते थे। गुरु जी की सामरिक एवं आर्थिक उन्नति से ईर्ष्याग्रस्त होकर कहिलूर के राजा भीमचंद ने अनेक पहाड़ी राजाओं को साथ लेकर अप्रैल 1687 ई. में गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। ‘भंगाणी’ में हुए भयानक युद्ध में पहाड़ी राजा बुरी तरह हार गए। इसके बाद गुरु जी आनंदपुर साहिब लौट आए और यहां आनंदगढ़, केसगढ़ आदि पांच किलों का निर्माण करवाया। इन्हीं दिनों गुरु जी ने नादौन के युद्ध (1688 ई.) में जम्मू के नवाब अलफ खां और हुसैनी युद्ध (1689 ई.) में हुसैनी खां को जबरदस्त शिकस्त दी।
खालसा की सिरजना
सन् 1699 ई. की बैसाखी के दिन गुरु गोबिंद सिंह जी ने तख्त श्री केसगढ़ साहिब में कड़ी परीक्षा र के बाद पांच सिखों को अमृत छकाकर सिंह सजाया -1 और उन्हें ‘पांच प्यारे’ बना दिया।
फिर स्वयं उनसे अमृत छका और गोबिंद राय से गोबिंद सिंह बन गए। आनंदपुर साहिब की जंग र व साहिबजादों की शहादत खालसा की स्थापना से बौखलाए पहाड़ी राजाओं एवं मुगल सूबेदारों ने 1700 से 1703 तक तीन बार आनंदपुर साहिब पर आक्रमण किया और हर बार मुंह की खाई। आखिर इन सबने मिलकर एक विशाल सैनिक गठबंधन बनाया और मार्च 1704 ई. में आनंदपुर साहिब को घेर लिया।
घेरा आठ महीने तक खिंच गया। अंततः दिसम्बर 1704 में गुरु जी को आनंदपुर साहिब छोड़ना पड़ा। सरसा नदी के तट पर गुरु जी की शत्रु से भयानक झड़प हुई। गुरु परिवार बिछुड़ गया। छोटे साहिबजादे और माता गुजरी सरहिंद में शहीद कर दिए गए। बड़े साहिबजादे और तीन ‘पंज प्यारे’ चमकौर के युद्ध में शहीद हो गए। दो मुस्लिम
श्रद्धालुओं नबी खां व गनी खां ने ‘उज्ज दा पीर’ बनाकर गुरु जी को माछीवाड़ा के जंगलों से मालवे के गांव दीने पहुंचाया। यहां गुरु जी ने औरंगजेब के अत्याचारों का विरोध करते हुए फारसी में एक चिट्ठी लिखी जो ‘जफरनामा’ के नाम से प्रसिद्ध है। ‘पंज प्यारों’ में से पहले भाई दया सिंह इसे औरंगजेब तक पहुंचाकर आए।
मई 1705 ई. में गुरु जी ‘खिदराणे की ढाब’ पर पहुंचे जहां पीछा कर रही मुगल फौज से संघर्ष करके माई भागो के नेतृत्व में 40 सिंहों ने शहीदी पाई और ’40 मुक्ते’ कहलाए।
बंदे को सिंह सजाना
इसके बाद गुरु जी तलवंडी साबो पहुंचे और भाई मनी सिंह से गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ पुर्नसंपादित करवाई और उसमें नवम पातशाह की वाणी शामिल की। सितम्बर 1708 में गुरु जी दक्षिण में नांदेड चले गए और बैरागी लक्ष्मण दास को अमृत छकाकर बंदा सिंह सजाया और संघर्ष जारी रखने के लिए पंजाब भेजा।
ज्योति जोत
इन्हीं दिनों सूबा सरहिंद के भेजे दो पठानों ने गुरु जी को घायल कर दिया। जख्म ठीक हो रहे थे परन्तु एक दिन कमान का चिल्ला चढ़ाते हुए फिर खुल गए। दशमेश पिता ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु पद पर आसीन किया और 21 अक्तूबर, 1708 ई. की अमृत बेला में ज्योति जोत समा गए।