श्री आरती पूजा क्यों जरूरी है ? आरती का अर्थ क्या है ?

श्री आरती पूजा क्या है ? सद्गुरु और परमात्मा अभिन्न हैं। पूर्ण सद्गुरु ही परमात्मा स्वरूप हैं। सद्गुरु की भक्ति, सेवा तथा पूजा सर्वश्रेष्ठ है। धरातल पर सद्गुरु ही वे महापुरुष हैं जिनकी आराधना परमात्मा की आराधना है। पूजा तथा आराधना के महत्त्व को पूर्णतया समझने हेतु हमें उसके अर्थ का ज्ञान अवश्य होना चाहिए।

॥ दोहा ॥

श्री आरती-पूजा वन्दना, आराधना प्रति रोज

होत सतत् रहे लवलीन जो, भव का नाशे रोग

‘आ-रती’ शब्द का अर्थ

 ‘आ-रती’ शब्द का अर्थ है, आत्मा का प्रभु परमात्मा की ओर प्रेम तथा आकर्षण। बाह्य रूप में प्रज्वलित ज्योति से पूजा की जाती है इस प्रज्वलित जोत का गहरा अर्थ है।

यह जोत हमें दर्शाती है कि हमारी आत्मा में, हमारे अन्तस्तल में परमात्मा की जोत निरन्तर जग रही है। महापुरुषों का इशारा है कि उस जोत का दर्शन करो।

श्री आरती पूजा

जलती हुई ज्योत सद्गुरु के ज्योतिर्मय स्वरूप के चारों ओर गोल घेरे में फेरी जाती है। तात्पर्य है कि सद्गुरु के दीप्तियक्त स्वरूप के चारो और एक प्रभा मंडल है

उनकी छवि से प्रकाश की किरणे प्रस्फुटित होती हैं। उनकी छवि से उनका इलाही नूर झरता है।

जब आरती की जाती है तो सद्गुरु के पावन शरीर से निकली पवित्र किरण आरती की ज्योति को भी पावन का देती हैं।तत्पश्चात् हम उस ज्योति को अपने हाथों से अपनी आँखों पर, अपने हृदय में धारण करते हैं। उस ज्योति को धारण करने से हमारे दिव्य चक्षु खुलते हैं, हृदय प्रकाशित होता है।

ये दोनों समय ऐसे हैं जब सारा वातावरण शान्त, शीतल तथा शुद्ध होता है। सूर्योदय तथा सूर्यास्त का समय ही आरती-पूजा का समय होता है अर्थात् जीवन के प्रारम्भ तथा अन्त में दोनों समय जीव की जीभा पर प्रभु के नाम का ही उच्चारण रहे ताकि मनुष्य का पूरा जीवन मालिक की याद में ही बीते।

जब हम प्रार्थना करें हमें अपना ध्यान, मन व चित्त पूर्णतया पूजा में लगा देना चाहिए। अगर जीव सच्चे दिल से श्री आरती-पूजा करता है तो जीव की पाँचों ज्ञान इन्द्रियाँरूप, शब्द, गंध, रस व स्पर्श सब प्रभु की ओर केन्द्रित हो जाती हैं।

 आरती-पूजा के समय दोनों हाथ जोड़कर उच्च स्वर में मख से आराधना, वन्दना तथा महिमा के पद गाये जाते हैं। ये प्रार्थनायें प्रातः तथा संध्या समय ही गाई जाती हैं।

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