मौन कई प्रकार का होता है। वाणी का मौन यानि मुँह से कुछ न बोलना और आत्मा में जागना और ऐसा देखना की न स्वपन न सुषुप्ति है। ऐसे निश्चय में स्थित रहना तुरीयातीत पद कहलाता है। परम मौन का मतलब इन्द्रियों के रोकने की इच्छा भी न करना और न विचरने की इच्छा करना। तुम्हारा स्वरूप ओंकार है। ओंकार को अंगीकार करके स्थित होना परम उत्तम मौन है।
मौन शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता, यह तो अनुभव की चीज है। मन की प्रश्नरहित अवस्था मे ही मौन है।
मौन से आशय है कम बोलना, सारगर्भित बोलना हम मुख से तो मौन हो जाते हैं, पर मन में विचारों की हलचल चलती रहती है। मौन शब्द का सन्धि-विच्छेद किया जाए तो 7 + 3 + 7 -7 ne7 उ से उच्छृंखल, न से न होने देना। मन को परमात्मा के स्वरूप में लीन करना ही वास्तविक अर्थ में मौन है अर्थात् ‘Don’t let the mind excel in the world’ मन संसार की ओर आकृष्ट होता रहता है।
कहा जाता है, वाणी के संयम हेतु मौन अनिवार्य साधन है। कहते हैं, न बोलने में 9 गुण हैं 1 किसी की निन्दा नहीं करेंगे 2. असत्य बोलने से बचेंगे 3. किसी से बैर नहीं होगा 4. किसी से क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी 5 पछताना नहीं पड़ेगा 6. समय का दुरुपयोग नहीं होगा 7 किसी कार्य का बन् न नहीं पड़ेगा 8. अपने वास्तविक ज्ञान की रक्षा होगी 9 अन्तकरण की शान्ति भंग नहीं होगी।
क्यों जरूरी है मौन ?
मौन से आत्मिक शक्ति बढ़ती है। जब आत्मिक शक्ति बढ़ती है, तब मन भी बलवान बनता है और शक्तिशाली मन में सकारात्मक विचार ही आते हैं।
मौन से जहाँ मन की मौत होती है, वहीं आत्मा जाग जाती है। इसलिए सन्त जन, विचारशील पुरुष, खोजकर्ता कभी फिजूल की बात नहीं करते। वे अधिकतर मौन ही रहते हैं। हो सकता है गत वर्षों में आप बातें अधिक करते रहे हों, तो सोचें। हमें क्या मिला- मानसिक ताप, चिंता, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग या मधुमेह ?
मौन का समय, अवधि, स्थान
मौन का समय, अवधि दिन या स्थान निर्धारित नहीं है। फिर भी हफ्ते में एक दिन, 20 मिनट प्रतिदिन, 1 घंटे या 2 घंटे प्रतिदिन अपनी सुविधानुसार मौन रह सकते हैं। सुबह, दोपहर, सन्ध्या या भोजन के पश्चात रात्रि में मौन रखा जा सकता है। यदि आप रक्तचाप से राहत चाहते हैं तो सुबह, यदि परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो दिन में तीन या चार बार 15-15 मिनट का मौन चामत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करेगा, आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे। यदि घर में संभव न हो तो एक
निश्चित समय निश्चित स्थान पर घर के बाहर भी एकांत में मौन रहा जा सकता है।
मौन में क्या करें?
– मौन में पहले जिह्वा चुप होती है, फिर मन भी शान्त हो जाता है। मन में जब चुप्पी गहरा जाती है तो आँखें, चेहरा और पूरा शरीर शान्त होने लगता है। चुप रहने का अभ्यास करें। सामने जो भी दिखाई या सुनाई पड़ता है, उसे उसी तरह देखें या सुने, जैसे कोई शेर सिंहावलोकन करता है, जैसे कोई दो साल का बच्चा व्यवहार करता है। यदि कोई मंत्र जपते है तो उसका मानसिक जाप कर सकते हैं। जाप करते-करते मंत्र में विलीन हो जाइए साक्षी भाव में रहें, कहीं भी संलग्न न हो। हर सुखद या दुःखद विचार को दूर से देखें, उससे भागने या उसे भगाने का प्रयास न करें। वे स्वयं विलीन हो जाएंगे। यदि आप ध्यान कर रहे हैं तो श्वास-प्रश्वास से उत्पन्न ध्वनि को सुनते रहें। केवल हरी-भरी प्रकृति को निहारते रहे।
मौन की महत्ता
मौन एकत्व प्रदान करने वाला साधन है। मौन की शान्ति में हमें यह बोध होता है कि हमारा बाहरी व भीतरी जीवन एक हो गया है। आज के युग में मौन की क्षमता को पुनः प्राप्त करना अति आवश्यक है। मौन के द्वारा ईश्वर का ध्यान हमारी मानवीय चेतना और अस्तित्व को बदल देता है। मौन से स्मरण शक्ति बढ़ती है। सकारात्मक सोच विकसित होती है। रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। क्रोध शान्त होता है सुषुप्त शक्तियाँ जागृत होती हैं। योग्यता विकसित करने के लिए मौन जैसा सुगम साधन और कोई नहीं है। कहते हैं ज्ञानियों की सभा में अज्ञानियों का भाषण मौन है