भक्ति की महिमा क्या है

भक्ति की महिमा
भक्ति नाम प्रेम का है। प्रेमी प्रेम में मगन होकर बाकी सबकुछ भूल जाता है।

॥ दोहा ॥ जहाँ प्रेम तहँ नेम नहिं, तहाँ न बुधि ब्यौहार । प्रेम मगन जब मन भया, तब कौन गिनै तिथि बार ॥

यह जितना भी संसार है, सब प्रेम की डोरी में ही बँधा हुआ दिखाई देता है। यदि प्रेम न हो तो यह संसार रूखा-सूखा तथा फीका हो जाये। परन्तु इसमें थोड़ा अन्तर है, जिसको पाठकों की जानकारी के लिये यहाँ लिख दिया है जाता है। प्रेम कहते हैं प्यार को।

यदि प्यार भक्ति का है, तो उसे प्रेम कहा जायेगा।और अगर प्यार संसार का है, तो उसे मोह कहा जायेगा। संसार का मोह रूह को बाँधने वाला है तथा भक्ति का प्यार रूह को मुक्त कर देता है। हमारा प्रसंग चूँकि भक्ति की । महिमा और प्रेम का चला हुआ है, इसलिये संसार की मोहममता के विषय को यहाँ ही समाप्त कर देना उचित है।

भक्ति को दिल देना सच्चा प्रेम कहलाता है। इसमें रस है, इसमें मिठास है, इसमें शान्ति और सुख तथा मन की एकाग्रता है।

प्रेम के बिना दूसरे सब साधन नीरस तथा फीके हैं। वास्तव में प्रेमी ही सच्चा ज्ञानी है, प्रेमी ही ध्यानी : है, प्रेमी ही योगी है और प्रेमी ही संन्यासी है। लोग भगवान् के साथ लेखे गिनते है परन्तु प्रेमी भगवन के साथ कभी लेखे नहीं गिनता। इसलिए भगवन भी उसके साथ कभी लेखे नहीं गिनते

भगवान श्री राम और भक्त बाली की भक्ति की महिमा

भगवान श्री राम जी ने बाली को छुपकर बाण मारा । बाण लगते ही वो धरती पर गिर गया । चूँकि वो शूरवीर था , इसलिए झट से उठकर बैठ गया और देखता है भगवान् सन्मुख खड़े है ।

बाली का भगवान् राम से प्रश्न करना

बाली के हृदय में तो प्रेम है परन्तु ऊपर से भगवान् की ओर देखकर कहता है-‘प्रभु! आप मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। आप धर्म की स्थापना करनेवाले हैं। आपका अवतार ही धर्म की रक्षा करने के लिये हुआ है तो

मुझे एक है शिकारी की भाँति आपने छुपकर बाण मारा, यह कहाँ का है धर्म है?

और फिर मैं वैरी तथा सुग्रीव आपका प्यारा बन है गया और सुग्रीव के पक्ष में होकर आपने मुझे किस अपराध से मारा?’ कुदरती बात है कि नीति के साथ नीति चलती है है तथा प्रेम के साथ प्रेम चलता है। क्योंकि बाली ने प्रश्न : करते समय नीति का सहारा लिया, इसलिये भगवान् भी उसके प्रश्न का उत्तर नीति से ही देते हैं।

भगवान् भी उसके प्रश्न का उत्तर नीति से ही देते हैं।

फ़रमाते हैं- सुन बाली! अनुज-वधु अर्थात् छोटे भाई का स्त्री, अपनी बहन, सुत-नारी , अपने पुत्र की स्त्री और चौथी अपनी कन्या-ऐ शठ! यह चारों ही एक समान हैं। इनकी ओर यदि कोई खोटी दृष्टि देखता है, वह पापी है। उसके मारने में कोई दोष नहीं है। क्या तू नहीं जानता कि तूने अपने छोटे भाई सुग्रीव की स्त्री को अपनी स्त्री बना लिया है तथा सुग्रीव को मारकर भगा दिया है।’

यह सुनकर बाली के हृदय में जो प्रेम था वह जुबान पर आ जाता है। आँखों में पानी भरकर हाथ बाँधे बड़ी * नम्रता से कहता है-‘हे प्रभु! आपके सामने मेरी चतुराई नहीं चल सकती।

बाली का भगवान से पूछना -हे भगवन्! आप ही बतायें कि क्या अभी तक मैं पापी हूँ, जबकि अन्त समय मुझे आपके दर्शन हो रहे हैं?

मुनिजन अनेक यत्न करते हैं कि अन्त समय उन्हें : भगवान के दर्शन हों। तब भी वह ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं कर पाते जो मुझे प्राप्त हो रहा है।’

जब इस प्रकार बाली के हृदय का प्रेम ज़बान पर आ जाता है, तब नीति और लेखे-पत्रे सब खत्म हो जाते हैं। भगवान् अपना कमल-सा हाथ बाली के सिर पर रखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ कोमल वाणी में बोले- ‘ऐ बाली यदि तू चाहे तो तेरा शरीर सदा के लिये अचल करदु कभी मृत्यु व्यापेगी ही नहीं।’तब बाली ने हाथ जोड़कर विनय की वक्त का कोई भरोसा नहीं है। संभव है जो समय मुझे अब मिला बाद को मिले या न मिले।

भक्ति की महिमा–बाली का भगवान् के चरणों में शरीर त्यागना

इसलिये आप मुझे शरीर छोड़ने की आज्ञा दीजिये दीजिये और वरदान दीजिये कि जिस जन्म में भी जाऊ वहाँ आपकी भक्ति मेरे हृदय में बनी रहे।’ भगवान् । बोले- ‘ऐसा ही होगा।’भगवान् के चरणों को हृदय में धारण करके बाली ने शरीर को त्याग दिया। कैसे त्यागा? जैसे हाथी के गले से फूलों की माला गिर जाने पर हाथी को पता तक नहीं चलता। ऐसे ही बाली को शरीर त्यागते समय कुछ भी खेद है नहीं हुआ । यह सब भक्ति की ही महिमा है।

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