असली सौदागर कौन होते है ?

असली सौदागर

तन मन धन से सत्पुरुषों की सेवा कमा कर जो आत्मिक पूँजी एकत्र की जाती है वही वास्तव में असली पूँजी व असली सौदा है और वक्त के पूर्ण महापुरुष इस सौदे के असली सौदागर होते हैं।

तन मन के साथ साथ धन की सेवा का भी अपना विशेष महत्त्व है। कहा भी है- जहाँ जाए धन, वहाँ जाए मन। समय समय पर महापुरुषों ने अपने भक्तों को धन की सेवा से कृतार्थ कर उन्हें आत्मिक पूँजी एकत्र करने का सौभाग्य प्रदान किया।

पंचम पादशाह श्री गुरु अर्जुनदेव जी ने अपने एक सेवक के नाम सरोवर निर्माण कार्य की सेवा हेतु पाँच सौ रुपये की सेवा का हुकमनामा भेजा जबकि उसके घर उस समय पाँच पैसे भी न थे। उस सेवक ने मसकीनिया पहलवान से कुश्ती लड़कर सद्गुरु के हुकम को शीश चढ़ाया।विचार करने योग्य बात यह है कि

क्या सद्गुरु को हमारे धन की आवश्यकता है?

वे तो स्वयं सब ऋद्धियों सिद्धियों के मालिक होते हैं। कुदरत की सभी शक्तियां हाथ बांधे उनकी सेवा में उपस्थित रहती हैं। वे तो सेवकों को सेवा की अमूल्य निधि बख्शने के लिए व उनके मन को चरणों से जोड़े रखने के लिए ऐसा सुअवसर प्रदान करते हैं।

उनकी हर कार्यवाही में सेवक का हित समाया होता है। सेवक का कार्य कुर्बानी के बिना सिद्ध नहीं हो सकता। सच्चा सेवक वही है जो शरीर से ऊपर उठकर सद्गुरु के हुकम पर कुर्बान जाए। जो सेवा का हुकम सुनकर मन में संशय करता है तो वह रूहानियत का अभिलाषी व अधिकारी नहीं है।

भगवान श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को हुकम किया

कि तुम जो भी कर्म करो, मेरे लिए करो और मुझे अर्पण करो। ऐसा करने में भगवान श्री कृष्ण जी का अपना कोई निजी स्वार्थ न था अपितु उन्होंने अर्जुन को मोह माया से बचाने के लिए ही उसे ऐसा उपदेश दिया।

भगवान श्री रामचंद्र जी भी फ़रमाते हैं कि

जननी जनक बंधु सुत दारा । तन धन भवन सुहृद परिवारा ॥
सब की ममता ताग बटोरी । मम पद मनहि बांध बट डोरी ॥

अर्थात् माता, पिता, मित्र, पुत्र, पत्नी, शरीर, धन, घर मकान, रिश्ते नाते व कुटुम्ब परिवार आदि सब की डोरी बनाकर जो मेरे चरणों में समर्पित कर देगा, उसकी संभाल में ऐसे करूँगा जैसे लोभी धन की संभाल करता है। जैसे लोभी धन को नाश नहीं होने देता वैसे ही मैं सेवक के भक्ति धन की संभाल करके उसे अविनाशी पद प्रदान करता हूँ।

श्री कबीर साहिब जी

एक बार परमसन्त श्री कबीर साहिब जी सत्संग का कार्य अपने पुत्र कमाल को सौंप कुछ दिन के लिए काशी पधारे। कमाल ने हुकम कर दिया कि जो भी कथा सुनने आए, वह पाँच आने रोज़ लेकर आए। धीरे धीरे कथा सुनने वालों की संख्या कम होने लगी। जब परमसन्त श्री कबीर साहिब जी वापस आए तो रास्ते में ही लोगों ने शिकायत की कि कमाल ने कथा सुनने पर पाँच आने रोज़ की टिकट लगा रखी है।

परमसन्त श्री कबीर साहिब जी ने घर आकर पुत्र कमाल को बुलाकर कहा

बूडा बंसु कबीर का उपजिओ पूतु कमालु ॥ हरि का सिमरनु छाडि कै घरि ले आया मालु ॥

संतान होने से वंश बढ़ता है लेकिन ए कमाल ! तुम्हारे पैदा होने से तो मेरा वंश ही डूब गया। तुमने धन एकत्रित करने के लिए प्रभु बंदगी का त्याग कर दिया। कमाल चरणों पर गिरकर प्रार्थना करने लगा कि पिता जी! मैंने पिछले आठ दिनों में पाँच आने लेकर जिन्हें कथा सुनाई, आप उन्हें बुलाकर पूछिए कि

उन्होंने कथा में क्या सुना और अमल करके कितना रूहानी लाभ प्राप्त किया ?

जिन्होंने मुफ्त में कथा सुनी उनसे भी पूछिए कि उन्होंने क्या सुना और अमल करके कितना लाभ उठाया ?

परमसन्त श्री कबीर साहिब जी ने ऐसा ही किया। जिसने कुछ कुर्बानी करके कथा सुनी थी उनकी सुरति जो पहले धन में थी, वह अब जहाँ धन गया था वहाँ समा गई थी। उन्होंने आठ दिन की कथा भी कह सुनाई और झूठे धन के बदले सच्ची दात को बख्शने के लिए शुक्रिया अदा किया। सुनने वालों की संख्या कम हो जाने पर भी मनन करने वालों की संख्या में वृद्धि हुई थी। इसलिए ये थोड़े लोग भी अब बहुत काम के हो गए थे।

चाणक्य नीति के चौथे अध्याय में वर्णन आया है।

कि केवल एक गुणवान और विद्वान पुत्र सैकड़ों गुणहीन निकम्मे पुत्रों से अच्छा होता है। जिस प्रकार एक ही चाँद रात्रि के अंधकार को दूर करता है, असंख्य तारे मिलकर भी रात्रि के गहन अंधकार को दूर नहीं कर सकते उसी प्रकार एक गुणी पुत्र ही अपने कुल का नाम रोशन करता है, उसे ऊँचा उठाता है।

परमसन्त श्री कबीर साहिब जी अपने पुत्र कमाल की भक्ति में निपुणता और योग्यता को देख बहुत प्रसन्न हुए। वे कमाल को शाबाशी देते हुए कहने लगे कि तुम बुद्धिमान हो जो तुमने रूहानियत में प्रगति करने का सुगम मार्ग खोज निकाला है।

सच तो यह है कि जिसने स्वयं सेवा की व हुकम को माना वास्तव में उसने ही लाभ वाला सौदा किया। जो हुकम को न मानकर मन की मति पर चलते हैं उन्हें कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। वे मालिक की कृपा से पूर्णतया वंचित रह जाते हैं।

आठवीं पादशाही श्री गुरु हरिकृष्ण जी

आठवीं पादशाही श्री गुरु हरिकृष्ण जी के परमधाम सिधारने के पश्चात् बकाले गाँव में बाईस सोढ़ी गुरु का वेष धारण कर बैठ गए। उन्होंने न स्वयं सेवा की थी और न ही हुकम को माना था। मक्खनशाह उन्हें देखकर असमंजस में पड़ गया कि इन सबमें से सच्चा गुरु कौन है ?

वास्तविकता को जानने के लिए वह सबके आगे पाँच मोहरें भेंट करता गया। सब के सब उसकी मोहरें स्वीकार कर उसे आशीर्वाद दे उसकी सराहना करने लगे। उनके पास से होकर मक्खनशाह जब श्री गुरु तेग बहादुर जी के चरणों में पहुँचा तो वहाँ भी पाँच मोहरें रखकर मत्था टेकने लगा।

असली सौदागर को पाकर प्रसन्न हो उठा

श्री गुरु महाराज जी ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा कि जब तुम्हारा काम अटका था तब तुमने पाँच सौ मोहरें भेंट करने का वायदा किया था और अब केवल पाँच मोहरें भेंट कर रहे हो। मक्खनशाह ने तुरन्त पाँच सौ मोहरें निकालकर पूर्ण महापुरुषों के अर्पण कर दीं और असली सौदा करने वाले ‘असली सौदागर को पाकर प्रसन्न हो उठा।

राजा जनक के दरबार में जो इतने पंडित बैठे थे उनमें से किसी का भी साहस न हुआ जो राजा से तन मन धन मांग सके। क्योंकि जो स्वयं त्यागी हो वही दूसरे को सर्वस्व अर्पण करवाने का दावा रख सकता है। जिसने पूँजी व्यय करके ज़मीन खरीदी ही न हो तो वह दूसरे को ज़मीन रजिस्टर करवा कर कैसे दे सकता है?

समय के संत सद्गुरु ही जीव की तन मन से की गई निष्काम सेवा की पूँजी को सँभालने वाले असली सौदागर हुआ करते हैं। इसलिए ऐ जीव! तू महापुरुषों के सम्पर्क में आकर अपने चित्त से मैं मेरी की मल का त्याग करके सदैव निश्चित है। गुरु के गुणवाद गा इसी में तेरा कल्याण निश्चित है।

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