अठसठ तीरथ गुरु चरण

अठसठ तीरथ गुरु चरण

सन्तों के चरण-शरण की कितनी महत्ता है। इस पर सन्त सहजोबाई जी कथन करती हैं-

॥ दोहा ॥

अठसठ तीरथ गुरु चरन, परबी होत अखण्ड | सहजो ऐसा धाम नहिं, सकल अण्ड ब्रह्मण्ड |

अर्थात् सृष्टि में जितने भी तीर्थ पाये जाते हैं,वे सब वस्तुतः सन्त-महापुरुषों के चरणों में ही स्थित हैं। श्रद्धा से सन्तों की सेवा करने एवं उनकी चरण-धूलि मस्तक पर लगाने से ही सब तीर्थों का फल उपलब्ध हो जाता है।

जैसे कि इस कहानी से स्पष्ट है-इस तथ्य से तो सभी परिचित हैं कि गंगा जी पर प्रति वर्ष मेला लगा करता है और लोगों के दिलों में यह भावना दृढ़ है कि गंगा जी का स्नान करने से मानव पापों से निवृत्ति पा लेता है। लाखों की संख्या में लोग मेले में जाकर गंगा जी में स्नान कर अपने पापों से छुटकारा पाना चाहते हैं। इन्हीं लोगों में से किसी एक गंगा-भक्त की बात है ।

उसने ऐसी प्रतिज्ञा की हुई थी कि जब तक मेरा जीवन है। तब तक मैं प्रति वर्ष श्री गंगा जी का स्नान करूँगा और भोजन भी उनके हाथ से ग्रहण करूँगा, जिन्होंने कि गंगा- स्नान किया होगा।इसी प्रकार कई वर्ष बीत चुके थे। एक बार मेला समाप्त होने पर वह गंगा जी का स्नान कर जब घर लौट रहा था तो मार्ग में रात्रि पड़ने पर वह किसी महात्मा जी की कुटिया पर ठहरा और रात को उसने वहीं विश्राम किया ।

प्रातः जब महात्मा जी उसे भोजन देने लगे तो उस गंगा-प्रेमी ने मन में सोचा कि महात्मा जी तो गंगा के समीप ही रहते हैं। प्रतिदिन स्नान करते ही होंगे। इनसे क्या पूछना है ऐसा विचार कर उसने महात्मा जी के हाथों का भोजन पा लिया । भोजनोपरान्त जब वह जाने लगा तो महात्मा जी से कहने लगा-‘महात्मा जी ! मुझे कुछ दिशा- भ्रम हो गया है। कृपया रास्ता बता दीजिए।

‘महात्मा जी ने पूछा—“तुमने किस ओर जाना है ?” भक्त ने कहा- “महात्मन्! आप गंगाजी की ही दिशा बता दीजिये। उसकी विपरीत दिशा से मैं आया था और उसी ओर मैंने वापस जाना है।”महात्मा जी आश्चर्यमय मुद्रा बनाकर बोले- भाई ! गंगा के मार्ग को तो हम जानते ही नहीं परन्तु हम तुम्हें चारों दिशाएं बता देते हैं।

महात्मा जी की यह बात सुनकर भक्त आश्चर्य चकित हुआ और मन में पश्चात्ताप करने लगा कि आज तो मेरी प्रतिज्ञा ही टूट गई। मैंने तो यह विचार किया था कि यह महात्मा जी तो नित्यप्रति गंगा स्नान करते होंगे। हाय! मेरे साथ तो बहुत धोखा हुआ । तब वह पश्चात्ताप व मन की उधेड़-बुन करता हुआ पूर्व की ओर चल पड़ा।

अभी चार- पाँच कदम ही चल पाया था कि उसे श्याम वर्ण की तीन गौएँ दिखाई दीं। उनको देख यह सोचने लगा कि मैंने आज तक ऐसी गौएं कभी नहीं देखीं। वह वहीं ठिठक कर रह गया और गौओं को एक टक देखता रहा । उसके देखते ही देखते वह तीनों गौएं महात्मा जी की कुटिया के समीप वाले तल्लैया में प्रवेश कर गईं।

जब वे पानी में कुछ देर डुबकियाँ लगा कर बाहर निकलीं तो उनका रंग दूधवत् सफेद हो गया। यह अद्भुत कौतुक देखकर वह चकित रह गया कि यह गौएं श्याम वर्ण से श्वेत वर्ण की कैसे हो गयीं? वह अभी उसी स्थान पर ही खड़ा हुआ था।

जब गौएं वापस लौट कर उसके समीप से गुज़रने लगीं तो वह आगे बढ़कर हाथ जोड़ उनसे पूछने लगा -“हे देवियो! आप कौन हैं ? मैंने अभी थोड़ी देर पहले आपका रंग श्याम देखा था अब एका एक श्वेत वर्ण में आप दिखाई दे रही हैं – इसका क्या कारण है ?”तब उनमें से एक गाय बोली- ‘हे भले पुरुष !

सुन, हम तीनों नदियाँ हैं – यह गंगा, वह यमुना और मैं सरस्वती हूँ। हमारे में जब पापी पुरुष आकर स्नान करते हैं तो हमारा वर्ण श्याम हो जाता है और जब हम यहाँ पूर्ण सन्तों के चरण – सरोवर में आकर स्नान करती हैं तब उस समय हमारे में समाहित पापी जीवों के समस्त अघ नष्ट हो जाते हैं और हमारा वर्ण पूर्ववत् शुद्ध व उज्ज्वल हो जाता है।’

स्वयं तीर्थों के मुख से प्रत्यक्ष में ये बातें सुनकर वह भक्त हैरान हो गया और मन ही मन सोचने लगा कि मैं अति मूर्ख हूँ, जो अकारण सन्तों पर दोषारोपण किये जा रहा हूँ कि ये सन्त भी कैसे हैं जो कि श्री गंगा जी में स्नान भी नहीं करते परन्तु अब तो आज मैंने अपनी आँखों से प्रत्यक्ष उनके महात्म्य को देख व सुन लिया है कि-

गंगा जमुना गोदावरी सरसुती ते करहि उदमु धूरि साधू की ताई ॥

अर्थात् तीर्थ तो स्वयं पूर्ण पुरुषों के चरणों में आकर स्नान करते हैं । अतः अब मुझे गंगा जी पर जाने की क्या विशेष आवश्यकता है ? सब तीर्थ तो महात्मा जी के चरणों में हैं। अस्तु, अब तो मैं आजीवन इनके पावन चरणों में रह कर दोनों प्रकार के स्नान करूँगा जिससे जन्म-जन्मांतरों के पापों से निवृत्ति पा लूंगा ।यह सोच कर वह प्रेमी वहीं से महात्मा जी की कुटिया पर उलटे पाँव लौट आया।

महात्मा जी की चरण-शरण ग्रहण करके एवं निष्काम सेवा द्वारा अपने जीवन को लाभान्वित करने लगा । सन्त शरण के गौरव के विषय में महापुरुषों ने क्या सुन्दर शब्दों में कहा है-

॥ दोहा ॥

धोवत है संसार सब, गंगा माहिं पाप । पावन सद्गुरु के चरण, गंगा पहुँचे आप ||

भाव यह है कि सन्तों के चरणों की तीर्थों से उपमा दी गई है कि वह तीर्थों से भी अधिक महत्त्व रखते हैं तभी तो उनके पावन चरण-स्पर्श करने के लिए स्वयं बड़े-बड़े तीर्थ भी तरसते हैं। जैसा कि इस दृष्टान्त में हम पढ़ ही चुके हैं।

कि त्रिवेणी स्वयं चल कर सन्तों की निर्मल अघनाशिनी चरण-रज से अपने को पवित्र करने हेतु वहाँ पर आई, जहाँ पर कि पूर्ण महात्मा जी स्नानादि करते थे। उस पवित्र चरण- सरोवर में प्रवेश कर वे अपने पर चढ़े हुए पापों को धोकर पूर्ण रूप से निर्मलता को प्राप्त कर गई ।

इसी प्रकार भाग्यशाली पुरुष भी सन्त-महापुरुषों के जो कि स्वयं ब्रह्मलीन अथवा पूर्ण तत्त्वदर्शी होते हैं उन महापुरुषों के पावन सत्संग रूपी सरोवर में मज्जन कर समस्त पापों से छुटकारा पा लेते हैं।

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