
संत नामदेव जी का जीवन परिचय ,जन्म और विट्ठल भक्ति
संसार के समस्त जीवों में ईश्वर का दर्शन करने वाले महान संत ‘नामदेव’ का जन्म संवत् 1327 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में ‘ब्रह्माणी’ नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम ‘दाया सेठ’ तथा माता का नाम ‘गोराबाई’ था। संत नामदेव के माता-पिता अत्यंत धार्मिक आचार-विचार वाले दंपत्ति थे। वे भगवान विठ्ठलदेव के अनन्य भक्त थे। इस प्रकार जन्म से ही ईश्वर भक्ति की प्रेरणा नामदेव को अपने परिवार से प्राप्त हुई थी।
नामदेव के पिता दाया सेठ भगवान विठ्ठलदेव के दर्शनों के लिए प्रायः पंढरपुर जाया करते थे। पंढरपुर में स्थित भगवान विठ्ठल के मंदिर में पंढरीनाथ के दर्शनों के लिए असंख्य श्रद्धालु आया करते थे। भगवान विठ्ठल के प्रति अपनी अटूट भक्ति व श्रद्धा के कारण भगवान के दर्शनों की सुविधा के लिए दाया सेठ पंढरपुर में ही आकर बस गए। फलतः नामदेव को भी बाल्यावस्था में ही भगवान विठ्ठल के दर्शन का सौभाग्य और सुअवसर प्राप्त होने लगा।
बालक नामदेव में अत्यंत छोटी अवस्था में ही भक्ति भाव का संचार हो चुका था। उनकी सामान्य बालकों की भांति खेलकूद व अन्य बालसुलभ कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। वे घंटों भगवान विट्ठल के प्रति अपने हृदय की भक्ति निवेदित किया करते थे। नामदेव बाल्यावस्था में ही भगवान के प्रति ऐसी भक्ति और अनुराग देखकर उनके माता-पिता को चिंता होने लगी। उन्हें लगा कि यदि ऐसा ही रहा तो उनका एक मात्र पुत्र किस प्रकार घर-गृहस्थी संभालेगा?
नामदेव जब आठ वर्ष के हुए तो उनका विवाह गोविंद सेठ की पुत्री ‘राजाई’ के साथ कर दिया गया। विवाह के कुछ दिनों बाद ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया तथा घर-गृहस्थी की समस्त जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर आ गई।
नामदेवजी की माता और उनकी पत्नी की प्रबल इच्छा थी कि नामदेव व्यापार के काम-काज में लगे किंतु नामदेव जी का मन प्रभु भक्ति के अतिरिक्त किसी और कार्य में नहीं लगता था। वे दिन रात भजन-कीर्तन और सत्संग में डूबे रहते थे।
रात-दिन भगवान विठ्ठल के प्रेम में इस प्रकार लीन रहते थे, कि उन्हें दीन-दुनिया की कोई सुध नहीं रहती।इसका परिणाम यह हुआ कि नामदेवजी के घर की आर्थिक अवस्था अत्यंत शोचनीय हो गई। यहां तक कि रोटियों के भी लाले पड़ने लगे।
ऐसी स्थिति में भी नामदेवजी घर-द्वार, माता, पत्नी, हर एक की ओर से ध्यान हटाकर भगवान पांडुरंग के चरणों में ही पड़े रहते थे। उन्हें संतों का सत्संग और भगवान विठ्ठल का दर्शन प्राणों से भी अधिक प्रिय था। नामदेवजी की इस अटूट भक्ति का परिणाम यह हुआ कि उनकी भक्ति-भावना से प्रसन्न होकर स्वयं भगवान विठ्ठल ने उन्हें दर्शन दिए तथा उनके हाथों से दूध का भोग ग्रहण किया।
अब तो नामदेव पंढरपुर के महान संत के रूप में विख्यात होने लगे थे। उनके भगवान विट्ठल की भक्ति से भरे पदों व अभंगों को सुनकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते, स्वयं नामदेवजी भी भजन-कीर्तन करते-करते भावावेग में अचेतावस्था में पहुंच जाते थे।
इन सबके बाद भी नामदेवजी की माता व पत्नी अत्यंत कठिनाई से भूखे रहकर घर का गुजर-बसर कर रही थी। उनकी इसी विपन्नता के कारण एक समय चमत्कारिक घटना घटी।एक दिन नामदेवजी की पत्नी राजाई अपनी सहेली से मिलने परिसा भागवत से घर गई। परिसा भागवत बहुत धनी व्यक्ति था।
कहा जाता है कि उसके पास “पारसमणि’ थी। जिसके स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता था। राजाई की विपन्नता की कथा सुनकर भागवत की पत्नी ने राजाई को एक दिन के लिए अपने पति की अनुपस्थिति में वह पारसमणि दे दी तथा शीघ्र ही लौटाने का वचन लिया।
राजाई प्रसन्न होकर घर लौट आई और पारसमणि के स्पर्श में कुछ लोहे को सोना बनाकर उसे बाजार में बेच आई। सोने की बिक्री करके उसने खाने-पीने का बहुत सारा सामान खरीदा तथा घर पर आकर व्यंजन बनाए ।
जब नामदेवजी ने भोजन के समय व्यंजन देखे तो आश्चर्य ये उन्हें राजाई से पूछा कि यह सब कहां से आया है? राजाई ने आरंभ में टालमटोल करने के बाद सारी सच्चाई नामदेव को बताई तथा पारसमणि को लाकर उनके हाथ पर रख दिया।
नामदेवजी ने आव देखा न ताव, तुरंत भागकर चंद्रभागा नदी में जाकर स्नान किया तथा पारसमणि उसी नदी में फेंक दी। कुछ समय बीतते ही जब यह बात परिसा भागवत को पता चली तो वह क्रोध से आग बबूला हो उठा तथा सारे गांव में घूम-घूमकर प्रचार करने लगा कि नामदेव ने उसकी पारसमणि चुरा ली है।
इस समाचार से सारे गांव में हलचल मच गई। गांव वालों के कहने पर भागवत अपनी बात सिद्ध करने के लिए सब गांव वालों को लेकर चंद्रभागा नदी के तट पर पहुंचा, क्योंकि नामदेवजी अभी वहीं पर थे।भागवत ने जब नामदेवजी से अपनी पारसमणि लौटाने को कहा तो नामदेवजी ने कहा, “मैंने तो उसे चंद्रभागा में डाल दिया।
किंतु यदि तुम्हें वह बहुत प्रिय है तो मैं उसे अभी निकाल देता हूं।” यह सुनकर वहां उपस्थित लोग हंस पड़े। भला इतनी गहरी नदी से भी कोई वस्तु निकाली जा सकती है? नामदेवजी ने किसी की बात पर ध्यान नहीं दिया और नदी में कूद पड़े।
बाहर आकर उन्होंने कुछ कंकड़-पत्थर भागवत को देकर कहा, “ले एक के बदले इतनी सारी पारसमणियां।”पारसमणि के स्थान पर कंकड़-पत्थर मिलते देख भागवत उत्तेजित हो उठा। तब नामदेव ने उससे कहा, “भाई नाराज न हो। ये पारसमणि ही है।”
जब भागवत ने सत्य जानने के लिए उन पत्थरों से लोहे को छुआ तो लोहा सोना बन गया। भागवत और गांव के दूसरे लोग यह चमत्कार देखकर नामदेवजी के चरणों में गिर पड़े और उनकी जय जयकार करने लगे।
कहा जाता है कि स्वयं भगवान विठ्ठल अपने भक्त नामदेव की सहायता करते व उनका मान रखते थे।संत नामदेव की भक्ति भावना व चमत्कारों के कारण पंढरपुर एक पवित्र तीर्थ स्थली बन चुका था। दूर-दूर से असंख्य भक्त प्रभु विठ्ठल के दर्शन करने व नामदेवजी के उपदेश व उनके सत्संग में सम्मिलित होने आते थे।
ऐसे में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर की ख्याति सुन व स्वप्न में भगवान विठ्ठल की ‘धर्म प्रचार व समाज सुधार’ के मिले आदेश को मान नामदेव संत ज्ञानेश्वर से मिलने आलंदी पहुंचे। आलंदी में संत ज्ञानेश्वर व उनके भाईयों ने संत नामदेव को भगवान विठ्ठल का स्वरूप मानकर प्रणाम करके उनका आदर सत्कार किया।वहां नामदेवजी को इस बात का अभिमान हो गया कि मैं तो सर्वश्रेष्ठ हूं।
क्योंकि स्वयं भगवान विठ्ठल मुझे दर्शन देते हैं। कहा जाता है कि नामदेवजी के मन में यह विचार इसलिए आए क्योंकि अभी उन्हें सत्य की अनुभूति होनी शेष थी। जब नामदेवजी ने संत ज्ञानेश्वर के प्रणाम का उत्तर नहीं दिया तो उनकी बहन मुक्ताबाई को बहुत बुरा लगा तब यह तय किया गया कि उस काल के सबसे बुजुर्ग संत गोरा कुम्हारजी से सभी संतों को परीक्षा कराई जाए।
यदि नामदेवजी उसमें उत्तीर्ण हो जाएं तो सभी सत उनकी चरण वंदना करेंगे।संत ज्ञानेश्वरजी की यह इच्छा थी कि नामदेव जैसे महान संत को अपने साथ मिलाकर चारों ओर धर्म का प्रचार करना चाहिए। अंततः जब संत गोरा कुम्हारजी ने सभी संतों के सिर पर थापी मारकर परखा तो उन्होंने नामदेवजी को कच्चा घोषित किया।
इस पर नामदेवजी की मनोः स्थिति असामान्य हो गई और वे क्रोधित होकर खीझते हुए पंढरपुर लौट गए। पंढरपुर लौटने पर धीरे-धीरे नामदेवजी का मन कुछ शांत हुआ और वे आलंदी में घटी घटना पर गंभीरता से विचार करने लगे। तब एक दिन उन्होंने निश्चय किया कि बिना गुरु के मोक्ष नहीं मिलता।
बिना गुरु के दीक्षा लिए ईश्वर भक्ति का मार्ग अंधकारमय है, इस निर्णय से उनका अभिमान समाप्त हो गया। नामदेवजी ने संत मंडली में ‘बिसोबा खेचर’ नामक एक संत की कीर्ति सुनी थी।
बिसोबा खेचर उन दिनों पंढरपुर से लगभग 80 किलोमीटर दूर ‘औंढ़िया नागनाथ’ नामक प्राचीन शिव क्षेत्र में रहते थे। औंढ़िया नागनाथ बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं।कहा जाता है बिसोबा खेचर ने अपने योगबल से आकाश में उड़ने की शक्ति प्राप्त की थी इसलिए उन्हें खेचर (आकाश में गमन करने वाला) कहा जाता था। नामदेवजी जब बिसोबा से मिलने औंढ़िया नागनाथ के शिव मंदिर में पहुंचे तो उन्हें एक विचित्र दृश्य देखकर बड़ा क्रोध आया। बिसोबा मंदिर में देवमूर्ति पर पैर रखकर लेटे थे।
नामदेव ने उनसे क्रोधित होकर कहा, “तू अंधा है क्या? तुझे दिखाई नहीं देता कि तू देवता की मूर्ति पर पैर रखकर लेटा है?” बिसोबा ने यह लीला नामदेव को ईश्वर की सर्वव्यापकता का अनुभव कराने के लिए ही रची थी।यह कहते ही जैसे ही नामदेव ने बिसोबा को पहचाना, उन्हें आगे-पीछे, हर दिशा में चारों ओर, हर वस्तु और हर व्यक्ति में भगवान ही व्याप्त दिखाई देने लगे। तब नामदेव बिसोबा के चरणों में लेट गए।
विसोबा ने नामदेव पर कृपा की तथा उनके सिर पर हाथ रखकर शक्तिपात किया और कान में ‘तत्वमसि’ महावाक्य का उपदेश दिया। बिसोबा के अनुग्रह से ही उन्हें विदेह की स्थिति प्राप्त हुई तथा उन्होंने बिसोबा को अपना गुरु मानकर दीक्षा ली।
दीक्षा लेने के बाद संत नामदेवजी संत ज्ञानेश्वर के साथ तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। यद्यपि उन्हें पंढरपुर में भगवान पंढरीनाथ को छोड़ने का दुख तो था किंतु स्वयं संत ज्ञानेश्वर को समझाने तथा भगवान विठ्ठल के आदेश के कारण ही वे तीर्थयात्रा के लिए सहमत हुए थे।
इसी तीर्थयात्रा में एक चमत्कारिक घटना घटी। घूमती हुई संत मंडली औंढ़िया नागनाथ के शिव मंदिर में पहुंची। महाशिवरात्रि होने के कारण मंदिर में बड़ी भीड़ थी। स्नान आदि करने के बाद जब मंदिर में नामदेवजी ने कीर्तन करना आरंभ किया तो वहां मंत्रमुग्ध लोगों के कारण तिल रखने की भी जगह नहीं बची।
ऐसे में मंदिर में भगवान शंकर का अभिषेक करने आए ब्राह्मण बिना किसी को स्पर्श किए अंदर जाना चाहते थे। उन्होंने इतनी भीड़ देखकर क्रोधित होकर नामदेवजी का कीर्तन बंद कराया और उन्हें मंदिर से बाहर निकाल दिया तब नामदेवजी मंदिर के पीछे जाकर कीर्तन करने लगे।
अभंगों में उल्लेख है कि उस समय स्वयं भगवान पंढरीनाथ नामदेव के कीर्तन में उपस्थित हुए और जब ब्राह्मण नागनाथजी की मूर्ति का अभिषेक कर रहे थे तो शिवजी ने अपनी पीठ ब्राह्मणों की ओर तथा मुख नामदेवजी की ओर कर लिया था।
नामदेवजी की भक्ति का प्रताप देखकर सभी पंडे-पुजारी उनके चरणों में आ गिरे। औंढ़िया नागनाथ के मंदिर का मुंह पश्चिम में होने का कारण इसी घटना को माना जाता है।संत ज्ञानेश्वर के साथ भारत के विभिन्न स्थानों पर अपने भजन कीर्तन करते हुए संत नामदेव जब राजस्थान पहुंचे तो वहां पर भी एक ऐसी ही घटना घटी।
राजस्थान में बीकानेर के निकट ‘कोलायतजी’ नामक गांव में जहां जल का बहुत अभाव था, सभी संतों को बहुत प्यास लगी। वहां एक कुआं तो था, किंतु उसमें जल बहुत नीचे था तथा निकालने का भी कोई साधन नहीं था।
संत ज्ञानेश्वर तो अपनी सिद्धि के द्वारा कुएं में गए तथा पानी पीकर आ गए किंतु नामदेवजी को अपने भगवान विठ्ठल पर पूर्ण विश्वास था।उन्होंने कहा, “भगवान विठ्ठल सर्वत्र हैं और अंतर्यामी है।” यह कहकर उन्होंने भगवान का भजन गाना आरंभ कर दिया। तब अचानक ही वह कुआं ऊपर तक लबालब जल से भर गया तथा संत ज्ञानेश्वरजी ने नामदेवजी की सगुण भक्ति का चमत्कार देखा और कहा कि “संत नामदेव ने सिद्ध कर दिखाया है कि आर्तभक्त में भी वही निष्ठा होती है जो ज्ञानी भक्त में।
राजस्थान में उसी स्थान पर वह कुआं आज भी स्थित है तथा ‘नामदेव जी का कुआं’ कहा जाता है। गांव के सारे कुएं सूख जाते हैं, किंतु इस कुएं में बारह महीनों जल रहता है।संत नामदेव कितने महान संत थे, इसका पता इसी बात से चलता है कि संत ज्ञानेश्वर ‘निर्गुण’ की भक्ति करते तो नामदेव ‘सगुण’ की।
संत ज्ञानेश्वर की भक्ति ‘कर्म प्रधान’ थी तो नामदेवजी की भक्ति ‘वैराग्य-प्रधान’ थी किंतु इन दोनों संतों में कभी मतभेद नहीं हुआ। नामदेवजी ने अपने पदों तथा अभंगों में संत ज्ञानेश्वर के संपूर्ण जीवन की घटनाओं व उनकी रचनाओं को बड़े सरल ढंग से मराठी व हिंदी भाषा में व्यक्त किया है।
संत ज्ञानेश्वर का कार्य महाराष्ट्र तक ही सीमित था परंतु संत नामदेवजी ने भागवत धर्मरूपी वारकरी संप्रदाय व भगवान विठ्ठल की भक्ति का उत्तर भारत में दूर-दूर तक प्रचार किया। नामदेवजी तीर्थयात्रा में संत ज्ञानेश्वरजी के साथ लगभग छः वर्षों तक अपने भजन कीर्तनों से लोगों में भगवान विष्णु के रूप ‘विठ्ठल’ का प्रचार करने के बाद कुछ समय पंजाब में भी रहे तथा पंजाबी भाषा में भी उन्होंने पदों की रचना की। उनके कुछ भजन सिखों के पवित्र ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में भी लिए गए हैं।
एक बार संत ज्ञानेश्वर, जिन्हें नामदेव स्वयं से बड़ा संत और भक्त मानते थे उन्होंने नामदेवजी से ‘भजन’, ‘भक्ति’ और ‘ध्यान’ के विषय में पूछा। तब संत नामदेवजी ने संत ज्ञानेश्वर के चरण पकड़ लिए और इसे भगवान विट्टल का आदेश समझकर जो कहा, उससे उनके परम् भक्तिभाव वाले विचारों का पता चलता है।
नामदेवजी ने कहा, “मुझे तो नाम संकीर्तन ही प्रिय है इसके सामने दूसरे साधन व्यर्थ और कष्टप्रद प्रतीत होते हैं। यही सच्चा ‘भजन’ है। गुण, दोषों को न देखकर सभी के साथ नम्रता का व्यवहार करना ही सच्ची वंदना है इसी से अंतःकरण सदा प्रसन्न रहता है और सात्त्विकता प्राप्त होती है।
सारे जगत में एकमात्र विठ्ठल प्रभु को देखना और हृदय में उनका अखंड नाम स्मरण करना, यही ‘ध्यान’ का उत्तम लक्षण है। जैसे हिरण, नाद से मोहित होकर सुधबुध भूल जाता है उसी प्रकार मुख से उच्चारण किए जाने वाले नाम को दृढ़ता से मन में रखकर तल्लीन हो जाना श्रवण है।
भगवान के चरणों का आधार ही उत्तम निदिध्यासन है। सर्वभाव से एकमात्र विठ्ठल प्रभु का ध्यान, सब जीवों में उन्हीं के स्वरूप का अवलोकन, रज और तम से रहित होकर, सबसे आसक्ति हटाकर, केवल प्रेम रसामृत का पान करना ही ‘भक्ति’ है। अनुराग से एकांत में विट्ठल का ध्यान करने के सिवाय अन्य कहीं विश्राम नहीं है।”सभी मनुष्यों को जातिवाद और संप्रदायवाद से परे, भक्ति संदेशों द्वारा नामदेवजी ने एकता के सूत्र में बांधने का प्रशंसनीय कार्य किया।
आज भी नामदेवजी के द्वारा रचित पदों व अभंगों को महाराष्ट्र के घर-घर में तथा देश के अन्य साधु, संतों और भक्तों द्वारा गाया जाता है। संपूर्ण जीवन, धर्म का प्रचार करने वाले संत नामदेवजी ने 80 वर्ष की अवस्था में संवत् 1407 में अपने प्राण त्याग दिए और ब्रह्मलीन हो गए किंतु अपने भक्तों के हृदय में वे सदैव अमर रहेंगे। स्वरूप का अवलोकन, रज और तम से रहित होकर, सबसे आसक्ति हटाकर, केवल प्रेम रसामृत का पान करना ही ‘भक्ति’ है। अनुराग से एकांत में विठ्ठल का ध्यान करने के सिवाय अन्य कहीं विश्राम नहीं है।”
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