श्री परमहंस दयाल जी का गृहत्याग

श्री परमहंस जी का गृहत्याग

पिता और धर्मपिता दोनों के सम्बन्धी आपको दोनों परिवारों की सम्पत्तियों का उत्तराधिकारी बनाने के लिए। पगड़ी आदि लेकर पीछे पड़े परन्तु आपने सबसे पल्ला छुड़ा लिया।

अब आप पूर्ण स्वतन्त्र थे। बोले, ‘कुदरत को यह बात मन्जूर नहीं। उसने हमको किसी विशेष काम के लिए पैदा किया है, इसलिए सबकी सरपरस्ती और साया से निकालकर हमें अपनी साया में ले लिया।’

बेड़ियों से ऐ जुनूँ, रिश्ता मेरा जाता रहा। जबसे जुल्फों में फँसा यह सिलसला जाता रहा ! किसका गम छाया है दिलपर, है मुझे किसकी तलाश, किसको आखें ढूँढती हैं, हाय क्या जाता रहा !

गुरु के उपदेशानुसार उसी उम्र तक आपकी सभी आन्तरिक कारवाइयाँ पूरी हो चुकी थीं। संसार-बंघन की अंतिम बेड़ी भी टूट चुकी। अतः गुरु द्वारा प्रदत्त आंतरिक वेष को प्रगट कर लिया। किशोरावस्था में ही सबकुछ छोड़कर जंगलों और नदियों को पार करते हुए आप बक्सर पहुँचे। वहाँ आपने परम पावन भागीरथी में शिखा-सूत्र उतारकर स्नान किया और बदन के सभी वस्त्रों को त्यागकर एक लंगोट मात्र धारण कर लिया।)

पतितपावनी गंगा के शुभ दर्शन करके आपको विशेष प्रसन्नता हुई। गंगा मैया के गम्भीर प्रवाह को देखकर आपको महात्मा कान्हरदास जी का निम्न भजन स्मरण हो आया –

जग गंगा जय-जय जगजननी, जय संतन सुखदाई। भक्त भूप भागीरथ के हित, प्रकटी आन पराई ।।

चरनकमल अनुराग माँगकर, ले ब्रह्मा उर लाये। प्रबल प्रताप कहाँ लग बरनँ, शंकर शीश चढ़ाये |

चार कहाँ जग जीव उधारन, वेद विमल यश गाये। तरल तरंग पाप खल-खंडन महिमा बरनि न जाये।।

गुण गन्धर्व अमर किन्नर मन, रहत सदा लव लाये। •घोर धार गम्भीर विकल जल, छूत अधम तर जाये ।

कनक शिखर सुर कलित मनोहर, उर जयमाल सुहाये। जाकी कांति देख यम-किंकर, करुना करु फिरि जाये।।

रामनाम गंगाजल केवल, और न कछुक उपाये। ‘कान्हरदास’ धन्य जे जग में बसत सदा सरनाये ।।

बक्सर से चलकर वहाँ से कुछ मील दूर नौहट्टा ग्राम में विश्राम किया। लोगों के आग्रह पर वहाँ दो दिन रुकने के बाद दक्षिण दिशा की ओर आगे बढ़े। आपके सत्संग से गाँववाले इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बहुत दूर तक आपको पालकी से पहुँचाया। उन्हें वापस भेजकर करीब चार मील जाने के बाद आपने लंगोटी का भी त्याग कर दिया। पूर्ण अवधूत-नग्न हो गए। बोले

तने- उरयानी से बेहतर नहीं दुनिया में लिबास। ये वो जामा है जिसका नहीं उल्टा-सीधा ।।

अर्थात् शरीर पर चमड़े के रूप में जो पहनावा कुदरती तौर पर पड़ा हुआ

है उससे दूसरा बढ़िया पोशाक कुछ नहीं। यह तो जन्म से ही फिट है जिसका कभी उल्टा-सीधा होना नहीं है। अतः दूसरे किसी पोशाक से नंगा रहना ही अच्छा है। आप डिहरी घाट होते हुए तिलौथू पहुँचे।

वहाँ आगे अकबरपुर में घना जंगल था। उसके मनोरम दृश्य को देखकर आप वहीं साधना में जुट गये। वहाँ पर राजा हरिश्चन्द्र का बनाया हुआ प्राचीन किला था।

उसी स्थान पर हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहिताश्व ने भी कुछ काल राज्य किया था। वहाँ आप लगभग छः वर्ष रहे। थाना के पास विश्राम किया। एक रात उठकर जंगल की ओर चले। वहाँ जमीन पर चाँद की तरह एक ज्योति देखी जो एक फर्लांग तक फैली हुई थी। ज्ञात हुआ कि वह सर्पमणि का प्रकाश था।

आपने किसी गृहस्थ के मकान पर न ठहरने का निश्चय किया। नग्न और स्वतन्त्र रहे। अपने पास कोई करपात्र भी नहीं रखा। पूर्ण मौन धारण कर लिया।

अधिकांश दिन फलाहार करते थे। उन दिनों बाघ, भालू, चीते, भेड़िये आदि जानवर आपके अगल-बगल बेखौफ घूमते-फिरते थे। वैराग्य की दिलेरी में कभी आपको उनसे भय नहीं मालूम होता था। वहाँ का सुन्दर प्राकृतिक दृश्य भजन ध्यान के लिए बहुत ही अनुकूल था।

उन दिनों एक गृहस्थ आपके भोजन के लिए घर से चार रोटियाँ और दूध पहुँचाया करता था। वह प्रतिदिन आपकी गुफा में भोजन रख जाता।

आप घूमते घामते जब कभी वहाँ जाते, रोटी खाकर बरतन वहीं रख छोड़ते थे। रोहतास किले में रहते वक्त वह प्रेमी सर्दी-गर्मी, धूप-वर्षा हर दशा में रोटी पहुँचाया करता था।

एक दिन जब वह वर्त्तन लेने गया, देखा कि कल की रोटी ज्यों की त्यों घरी थी। उसने जंगल में इधर-उधर घूमकर आपको ढूँढ निकाला। पूछने पर आपने बताया कि भोजन से झगड़े की बू आ रही थी इसी से नहीं खाया।

सचमुच उसकी पत्नी ने रोटी देने से यह कहते हुए एतराज किया था कि इतने दिनों से बाबा की सेवा करने पर भी उसे कोई लाभ नहीं हुआ।

महाराज आवेश में आ गए। उस भक्त से बोल पड़े- ‘बोलो, आजतक की कुल रोटियों में तुम्हारे कितने रुपये लगे होंगे? दो-चार, आठ-दस, बारह-चौदह सोलह या अधिक से अधिक अठारह हजार रुपये ? जाओ तुम्हें अठारह हजार मिल जायेगा और आइन्दे भोजन मत लाना।’

वह भक्त श्री चरणों में गिरकर माफी माँगने लगा। उसे समझा-बुझाकर विदा किया। बाद में उस आदमी को राजा द्वारा बख्शीश के रूप में अठारह हजार की सम्पत्ति मिल गई।

उसी दिन आपके गुरु काशीवाले श्री परमहंस जी ने स्वप्न में दर्शन दिया और कहा कि साधु को एक स्थान पर रहने से भ्रमण करना अच्छा होता है। ‘रमता जोगी बहता पानी ठहरे गंदला होय।’ आज्ञा पाकर आपने वहाँ से प्रस्थान किया।

श्री परमहंस दयाल जी का जीवन परिचय

श्री परमहंस दयाल जी के वचन-जहाँ सज़ा में भी स्वर्ग मिलता है

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