shri krishna ! अहो भाग्य उनके जिनके पास श्रीकृष्ण नाम है

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श्रीकृष्ण का नाम और श्रीकृष्ण अभिन्न हैं

भौतिक वस्तुओं के नाम उन वस्तुओं के प्रतीक होते हैं परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण का नाम उनका प्रतीक मात्र नहीं है। वह स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण है। भगवान् श्रीकृष्ण की समस्त शक्तियां, गुण और उनका माधुर्य उनके नाम में भी है।

वहीं भौतिक वस्तुओं के नाम उन वस्तुओं से भिन्न होते हैं। जल कहने मात्र से जल को पीने से मिलने वाली तृप्ति नहीं हो सकती। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण का नाम पुकारने से अथवा कीर्तन करने से उसी माधुर्य की अनुभूति होती है जैसी उनसे मिलने पर होती है।

भौतिक वस्तुओं के नाम उनके जन्म के बाद पड़ते हैं। जबकि भगवान् श्रीकृष्ण का नाम उन्हीं की तरह अनादि है।

भगवान् श्रीकृष्ण श्रीगोवर्धन पर्वत अपनी तर्जनी पर उठा सकते हैं तो नाम प्रभु भी उठा सकते हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण एवं उनका नाम एक है।

इस संबंध में श्रील प्रभुपाद की एक रोचक वार्तालाप इस प्रकार हैं:

प्रभुपाद: हाँ। यह आध्यात्मिक विधि है क्योंकि कृष्ण और कृष्ण का नाम, व्यक्ति कृष्ण और नाम कृष्ण, वे अभिन्न हैं, पूर्ण हैं। यह भगवान् की विशेष शक्ति है। जिस प्रकार इस भौतिक जगत में, यदि आप पानी चाहते हैं, केवल “पानी” नाम बोलने से, आपको लाभ नहीं मिलेगा।

रिपोर्टर: नहीं।

प्रभुपाद: लेकिन आध्यात्मिक जगत में, “पानी” नाम और पानी पदार्थ, समान हैं। उसी प्रकार, कृष्ण और कृष्ण का नाम समान हैं। इसलिए यदि आप कृष्ण नाम जप करते हैं, आप तुरन्त कृष्ण के साथ प्रत्यक्ष संपर्क करते हैं।

श्रीकृष्ण नाम अचिंत्य है

हरिनाम आध्यात्मिक एवं दिव्य है और दिव्य वस्तुएँ प्राकृत वस्तुओं से परे होती हैं इसलिए प्राकृत इन्द्रियों से नाम ग्रहण नहीं किया जाता है लेकिन सदैव श्रीकृष्ण नाम आदि का सेवन करते-करते हमारी इंद्रियाँ भी शुद्ध एवं दिव्य हो जाती हैं। तब हम श्रीकृष्ण नाम का सेवन करने पर रस का अनुभव कर सकते हैं।

श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण, लीला- ये सभी अप्राकृत तत्त्व हैं। अतः ये सभी प्राकृत चक्षु, कर्ण, नासिका, रसना आदि इन्द्रियों के द्वारा ग्रहणीय नहीं है। जब जीवों के हृदय में श्रीकृष्ण की सेवा करने की वासना उदित होती है, उस समय उनकी जिह्वा आदि इन्द्रियों पर नाम स्वयं स्फुरित होते हैं।

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कृष्ण का पवित्र नाम, चरित्र, लीलाएं, तथा कार्यकलाप सभी मिश्री के समान आध्यात्मिक रूप से मधुर हैं। यद्यपि अविद्या रूपी पीलिया रोग से ग्रस्त रोगी की जीभ किसी भी मीठी वस्तु का स्वाद नहीं ले सकती, लेकिन ये आश्चर्य की बात है कि इन मधुर नामों का नित्य सावधानीपूर्वक कीर्तन करने से उसकी जीभ में प्राकृतिक स्वाद जागृत हो उठता है और रोग धीरे-धीरे समूल नष्ट हो जाता है।

भक्ति की विधियों में सर्वश्रेष्ठ है हरिनाम

शास्त्रों में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेमाभक्ति करने की अनेक विधियों की संस्तुति की गई है। उन अनेकों विधियों में नौ प्रकार की भक्ति – श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन- सर्वश्रेष्ठ है। परंतु उन नव विधा भक्ति में भी नाम संकीर्तन को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है:

भजनेर मध्ये श्रेष्ठ नवविधा भक्ति । ‘कृष्ण-प्रेम’, ‘कृष्ण’ दिते धरे महा-शक्ति ॥ तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ नाम-सङ्कीर्तन । निरपराधे नाम लैले पाय प्रेम-धन ॥ (श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 4.70-71)

भक्ति सम्पन्न करने की विधियों में नव-विधा भक्ति सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि इन विधियों में कृष्ण तथा उनके प्रति प्रेम प्रदान करने की महान् शक्ति निहित है। भक्ति की नौ विधियों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है- के पवित्र नाम का सदैव कीर्तन ।

यदि कोई दस प्रकार के अपराधों से बचते हुए ऐसा करता है, तो वह सरलता से भगवान् के अमूल्य प्रेम को प्राप्त कर लेता है।

स्वयं यमराज भी अपने दूतों को श्रीमद् भागवत के छठे स्कन्द में निर्देश देते हैं कि भगवान् के पवित्र नामों का कीर्तन ही सर्वोच्च भक्ति है एवं आदर्श मानव समाज के लिए परम धार्मिक सिद्धान्त है।

श्रीकृष्ण नाम लेने की सर्वोत्तम विधि है-नाम-संकीर्तन

श्रील नारद मुनि नाम के जप से सौ गुना अधिक उच्च स्वर में नाम संकीर्तन को श्रेष्ठ बताते हैं क्योंकि जप की अपेक्षा उच्च स्वर में संकीर्तन कोटि-कोटि जीवात्माओं को मुक्त कर सकता है।

मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी जीवात्माएँ भगवान् श्रीकृष्ण के पवित्र नामों का कीर्तन करने में अक्षम हैं, ऐसे उच्च स्वर में संकीर्तन करने से हम उन सभी जीवात्माओं का भी कल्याण कर सकते हैं क्योंकि भगवान् का नाम सुनने से भी जीव की मुक्ति हो जाती है।

हरिनाम संकीर्तन

भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु सदैव हरिनाम को संकीर्तन विधि द्वारा सभी जीवात्माओं को बांटने के लिए उत्साहित रहते थे। जब वे झारखंड के जंगलों से गुजर रहे थे तब उनके कीर्तन को सुनकर जंगल के सभी प्राणी भावावेश में नृत्य करने लगे और अपने स्वभाव के विपरीत कर्म करने लगे थे।

श्रीकृष्ण नाम सबसे बड़ा पापनाशक है:

भगवान् के नामों का उच्चारण जाने-अनजाने में अर्थात् नामाभास स्तर पर ही क्यों न हो, वह हमें समस्त पापों से मुक्त करता है और नरक के दुखों बचाता है। नाम में पाप को नष्ट करने की शक्ति असीमित है। हरि के नाम का एक बार उच्चारण, मनुष्य द्वारा जन्म-जन्मांतर में संचित पापों का तत्क्षण नाश कर देता है।

हरि का एक पवित्र नाम जितने पापों को नष्ट कर सकता है, उतने पाप पापी मनुष्य कर नहीं सकता है।

हरिनाम की पापनाशक क्षमता

हरिनाम की पापनाशक क्षमता के विषय में शास्त्रों में सत्य ही कहा गया है कि एक मनुष्य में पाप करने की इतनी क्षमता नहीं होती जितना हरिनाम एक बार में पापों को जला देता है।

एक कृष्ण नामे जतो पाप हरे ।

पापीर साध्य नाही ततो पाप करे ॥

भगवान् श्रीकृष्ण का एक नाम जितने पापों का हरण करता है उतने पाप कर पाना महापापी के वश की भी बात नहीं है।

श्रीकृष्ण नाम पापों को ही नहीं पाप करने की प्रवृत्ति को भी जला डालता है

हरे कृष्ण का कीर्तन बिना किसी संदेह के सभी पतितात्माओं का उद्धार करेगा। यह बनावटी प्रचार-प्रसार नहीं है। उसका पूर्व जीवन कुछ भी क्यों न हो, जो भी इस कीर्तन प्रक्रिया को ग्रहण करेगा, साधु बन जायेगा। वह शुद्ध, कृष्णभावनाभावित व्यक्ति हो जायेगा।”

एक अन्य वार्तालाप में श्रील प्रभुपाद पुष्टि करते हैं:

भक्त: क्या इसलिए इन व्यक्तियों के हरे राम बोलने से सभी पापपूर्ण कर्म अब पूर्ण रूप से नष्ट हो चुके हैं?

श्रील प्रभुपादः ओह, हाँ। तुरंत। यह इस युग का विशेष लाभ है। कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः (श्रीमद् भागवतम् 12.3.51 )। तुरंत मुक्त हो जाता है, “मुक्त संग।” बिना मुक्तसंग हुए, वे जप भी नहीं कर सकते।

श्रीकृष्ण के नामों का कीर्तन समस्त तप, तीर्थ व व्रतों से अधिक लाभकारी है

भगवन्नाम का कीर्तन कोटि-कोटि तीर्थ भ्रमणों एवं सकाम कर्मों के फलों से भी कई गुना अधिक है:

तीर्थानां च परं तीर्थं कृष्णनाम महर्षयः ।

तीर्थीकुर्वीति जगतीं गृहीतं कृष्णनाम यैः ॥

(पद्मपुराण स्वर्गखण्ड)

हे ऋषियों! समस्त तीर्थों में बड़ा तीर्थ कृष्णनाम है, जो लोग श्रीकृष्णनाम का उच्चारण करते हैं, वे सम्पूर्ण जगत को तीर्थ बना देते हैं।

श्रीकृष्ण नाम लेने का कोई नियम नहीं

श्रीहरि के नाम-कीर्तन के विषय में देश और काल का नियम नहीं है। उच्छिष्ट मुख से अथवा किसी भी प्रकार अशुचि अवस्था में भी नाम कीर्तन करना निषेध नहीं है।

श्रीकृष्ण के नामों का कीर्तन, जप अथवा उच्चारण सभी भौतिक क्लेशों एवं भौतिक रोगों की औषधि है

नाम जप हमारे भौतिक क्लेशों का नाश करता है। श्रील प्रभुपाद श्रीमद् भागवत पर दिये एक प्रवचन में कहते हैं कि, “जप करना इतना अच्छा है कि जैसे ही आप जप करना आरंभ करते हैं, अथवा कृष्ण के बारे में सुनते हैं- ( जप करना भी कृष्ण के बारे में सुनना है)-तुरंत मार्जन प्रक्रिया आरंभ हो जाती है, चेतोदर्पण-मार्जन (चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.12), और जैसे ही हमारा हृदय स्वच्छ हो जाता है, भव-महादावाग्नि निर्वापण, तब हम इस भौतिक अस्तित्व के दावानल से मुक्त हो जाते हैं। “

भौतिक क्लेशों के साथ-साथ नाम हमारे भौतिक रोगों को भी नष्ट करता है। जब भगवान् धन्वन्तरि समुद्र मंथन से प्रकट हुए तो उन्होंने देवताओं व ऋषियों को औषधि, रोग-निदान और उपचार आदि के बारे में बताया। सभी रोगों पर समान और सफल रूप से कार्य करने वाली महौषधि के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा है –

अच्युतानन्तगोविन्द नामोच्चारण भेषजात् ।

नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥

अच्युत, अनन्त, गोविन्द-इन नामों के उच्चारण रूपी औषधि से समस्त रोग दूर हो जाते हैं, यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ।

भगवान् कृष्ण का नाम जप करने वाला भक्त उनका सबसे प्रिय भक्त है

भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं आदि पुराण में कहते हैं कि उनके नामों का उच्चारण करने वाला भक्त उन्हें अतिशय प्रिय है, वे उसे कभी नहीं भूलते। भगवान् कहते हैं कि ऐसे भक्त ने उन्हें खरीद लिया है:

हे अर्जुन, ध्यानपूर्वक सुनो! जब कोई जीव मेरे नामों का भक्तिपूर्वक अथवा अनजाने में कीर्तन करता है तो उसका नाम मेरे हृदय में सदा के लिए बस जाता है। मैं ऐसे व्यक्ति को कभी नहीं भूलता।

जो मेरे नामों का गान करके मेरे निकट नाचने लगता है, उसने मुझे खरीद लिया-यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ।

श्रीमद् भागवत में श्री कवि ने राजा निमि से कहा है कि भगवान् के पवित्र नामों का निरपराध भाव से कीर्तन करने वाला भक्त कृष्ण-प्रेम को प्राप्त करता है और तब उसमें सात्विक विकारों की उत्पत्ति होती है। ऐसा भक्त कृष्ण-प्रेम में आश्चर्यजनक रूप से रोता, गाता, हँसता एवं चिल्लाता है, इसके अतिरिक्त वह लोगों के अपने प्रति दृष्टिकोण से भी उदासीन हो जाता है।

shri krishna – सारांश

भगवान् श्रीकृष्ण एवं उनका नाम अभिन्न है- अभिन्नत्वानामनामिनो अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण से जो आनंद प्राप्त होता है वही आनंद भगवान् के नामों के उच्चारण करने से प्राप्त होता है।

श्रीकृष्ण का नाम स्वयं श्रीकृष्ण की तरह ही चिन्मय एवं अचिंत्य है। मनुष्य अपनी प्राकृत इंद्रियों द्वारा नाम की महिमा नहीं जान सकता है परंतु नाम लेते रहने से जब इंद्रियाँ दिव्य हो जाती हैं तब हमें हरिनाम की महिमा एवं उसकी मधुरता का अनुभव होने लगता है।

भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने नाम में अपनी समस्त शक्तियों का संचार किया है अतः नाम में जीवात्मा के पापों को जला डालने की असीमित शक्ति है।

शास्त्र कहते हैं कि इतने पाप तो मनुष्य अपने पूरी सामर्थ्य से कर भी नहीं सकता जितने पाप एक हरिनाम जला डालता है। यही नहीं हरिनाम मनुष्य की पाप करने की प्रवृत्ति को भी जला डालता है।

शास्त्रों में पाप निवारण के अनेकों उपाय बताए गए हैं परंतु मनुष्य की पाप प्रवृत्ति का नाश तो केवल हरिनाम ही कर सकता है। इसलिए हरिनाम की महिमा सभी प्रकार के धार्मिक व वैदिक अनुष्ठानों, कर्मकांडों, तप, तीर्थस्नानों, पुण्यों व दानादि से अनंत गुना अधिक है।

भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने की अनेकों विधियाँ हैं जिसमें से नौ विधियाँ प्रमुख हैं जो नवधा भक्ति के नाम से जानी जाती हैं परंतु उनमें भी कीर्तन भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है। नाम कीर्तन करने वाला भक्त श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय है ऐसा स्वयं श्रीकृष्ण

ने कहा है। करुणावश भगवान् श्रीकृष्ण ने नाम जप अथवा नाम संकीर्तन में किसी प्रकार के देश, काल आदि नियमों का भी प्रावधान नहीं रखा है। किसी भी अवस्था में, कोई भी कार्य करते हुए जीव नाम उच्चारण कर सकता है।

नाम जप केवल जापक का कल्याण करता है परंतु उच्च स्वर में नाम संकीर्तन जिनके भी कर्णरंध्रों में पहुंचे उन सभी अनगिनत प्राणियों का भी उद्धार करता है।

भगवान् श्रीकृष्ण के अनंत नाम हैं जिन्हें मुख्य नामों एवं गौण नामों में वर्गीकृत किया जा सकता है परंतु भगवान् श्रीकृष्ण का सर्वश्रेष्ठ नाम तो ‘कृष्ण’ ही है- इसकी पुष्टि स्वयं श्रीकृष्ण ही करते हैं।

यहाँ तक कि कृष्ण नाम की महिमा विष्णु सहस्र नामः से भी कहीं अधिक है। एक कृष्ण नाम 3 हजार विष्णु नामों के समान होता है।

अतः मनुष्यों को चाहिए कि समस्त प्रकार की सकाम भक्ति से ऊपर उठकर सर्वोत्तम एवं सबसे सरल भक्ति विधि-नाम जप-का अनुशीलन करें जिससे उन्हें सम्पूर्ण आनंद की प्राप्ति होगी।

प्रश्नोत्तर

प्रश्नः श्रीकृष्ण व श्रीकृष्ण के नाम में क्या भेद है?

उत्तर: दोनों में कोई भेद नहीं है- अभिन्नत्वानामनामिनो। नाम और नामी श्रीकृष्ण अभिन्न हैं। इसलिए जब हम नामोच्चारण करते हैं। तो हमारा श्रीकृष्ण से सीधा संपर्क हो जाता है। जैसे कि, कोई बालक दूसरे कमरे में हो और आप उसका नाम लेकर पुकारें तो वह बालक तुरंत प्रत्युत्तर देगा कि, ‘क्या आपने मुझे बुलाया?’

इससे यह स्पष्ट होता है कि नाम पुकारने से हमारा नामी से संपर्क हो जाता है। उसी प्रकार श्रीकृष्ण नाम लेने पर नामी श्रीकृष्ण का ध्यान हम अपनी ओर आकर्षित करेंगे।

प्रश्न: क्या नाम जप करने से तीर्थ, दान, तप, पुण्य, यज्ञ, शास्त्र अध्ययन आदि स्वतः हो जाते हैं?

उत्तर: हाँ! क्योंकि तीर्थ, दान, तप, पुण्य, यज्ञ, शास्त्र अध्ययन करने के पीछे हमारा लक्ष्य सुख और आनंद की प्राप्ति करना होता है, जो हरिनाम करने का आनुषंगिक लाभ है। श्रीकृष्ण नाम करने पर हमारे आनंद सागर का वर्धन होता है आनंदाम्बुधिवर्धन। जो प्रत्येक जीवात्मा का लक्ष्य है।

प्रश्न: विष्णु सहस्र नाम और हरे कृष्ण महामंत्र में किसे प्राथमिकता दें?

उत्तरः यदि आप विष्णु सहस्र नाम पहले से कर रहे हैं तो विष्णु सहस्र नाम जारी रखें लेकिन हरे कृष्ण महामंत्र का माहात्म्य समझ कर उनका अभ्यास बढ़ाना चाहिए। इस अध्याय में हमने कृष्ण नाम और विष्णु सहस्र नाम में शास्त्रों के अनुसार तुलना का उल्लेख किया है जिसे समझकर हमें हरे कृष्ण महामंत्र का जप अभ्यास बढ़ाना चाहिए।

प्रश्नः यदि किसी पाप के लिए हमारे हृदय में ग्लानि भाव है तो शास्त्रानुसार उस पाप के प्रायश्चित की सर्वोत्तम विधि क्या है?

उत्तरः सर्वोत्तम विधि यह है कि विनम्र भाव से श्रीहरिनाम प्रभु को प्रार्थना करनी चाहिए कि, ‘मैं भविष्य में पाप नहीं करूंगा’ ।

और हरिनाम जप करना चाहिए। ऐसे प्रार्थना भाव से हरिनाम जप करते रहने से न केवल पाप अपितु पाप प्रवृत्ति का बीज भी जलकर नष्ट हो जाएगा।

नाम्नो हि यावती शक्ति: पापनिर्हरणे हरे: ।

तावत् कर्तुं न शक्नोति पातक पातकी नरः ॥

(बृहद विष्णु पुराण)

हरि का एक पवित्र नाम जितने पापों को नष्ट कर सकता है, उतने पाप पापी मनुष्य कर नहीं सकता है।

प्रश्नः यदि भक्ति की सर्वोत्तम विधि हरिनाम है तो क्या विग्रह-सेवा, धाम वास आदि भक्ति विधियों को हरिनाम से कम महत्त्व दिया जा सकता है?

उत्तरः कलियुग में भक्ति की सर्वोत्तम विधि है हरे कृष्ण महामंत्र का जप करना। जो उत्तम भक्त हैं वे हरिनाम के सिवा और अन्य विधि-विधान जैसे कि मूर्ति-सेवा आदि को हरिनाम से ज्यादा महत्त्व नहीं देते। श्रीहरिनाम चिंतामणि में श्रील हरिदास ठाकुर कहते हैं कि:

अर्चनमार्गेते गाढ़तर रूचि याँर । श्रवण-कीर्तन-सिद्धि ताहाते ताँहार ।। नाम ऐकन्तिकी रति हइवे याँहार । श्रवण कीर्तन स्मृति केवल ताँहार ।।

अर्चन मार्ग में जिसकी गाढ़ रूचि है, वह भगवान् का अर्चन तो करेगा परंतु उसे भी भगवान् के नाम, रूप, गुण, लीला व धामों की महिमा का श्रवण-कीर्तन करना होगा, तब ही उसको अर्चन मार्ग में सिद्धि मिलेगी।

जबकि हरिनाम में जिसकी ऐकान्तिकी प्रीति होगी, वह केवल भगवान् की कथा श्रवण, कीर्तन और स्मरण ही करेंगे, अर्चन इत्यादि में उनकी ज्यादा रूचि नहीं होती।

हरिनाम जप भक्ति की अन्य विधियों (जैसे अर्चन, धाम यात्रा) से निरपेक्ष है परंतु भक्ति की अन्य विधियाँ हरिनाम के बिना सफल नहीं हो सकती हैं।

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