shri nangli sahib – श्री नंगली निवासी भगवान
सन्त-महापुरुष धुरधाम से पारमार्थिक कार्य की पूर्ति के लिए अवतरित होते हैं और इसी कार्य को ही करने में संलग्न रहते हैं। आप भी इसी नियमानुसार पारमार्थिक कार्य करते हुए प्रत्येक स्थान को अपने चरण कमलों से भाग्यशाली बना रहे थे।
अब आप श्री नंगली साहिब पधारे तथा भक्त गेंदा राम जी द्वारा समर्पित भवन में विराजमान हुए। एक दिन आपने प्रेमियों को फ़रमाया “यहां पानी की बहुत कमी है, दर्शन करने वाली संगत को पूरा पानी नहीं मिलता। हमारी मौज है कि यहां एक नलका लगाया जाए।”
श्री आज्ञा पाकर सेवक मिस्त्री ले आए। नल का सामान भी आ गया। श्री आज्ञानुसार शीघ्र नल लगवा दिया गया। इसमें से मीठा, शीतल, स्वादिष्ठ जल निकला। महात्माजनों ने विनय की कि यदि यहां कुआं भी खुदवा लिया जाए तो पानी अधिक मिलेगा। आपने मुसकराकर फ़रमाया कि यह साधारण नल नहीं, अमृत का स्रोत है। इस जल से अनेकों जीवों को लाभ पहुँचेगा।
अब श्री सद्गुरुदेव महाराज जी ने अपने स्थायी निवास स्थान की ओर संकेत करते हुए फ़रमाया कि यहां बाहर का द्वार बड़ा होना चाहिये। हमारी आज्ञा है कि इसे शीघ्र बनाओ।
प्रेमियों ने श्री आज्ञा शिरोधार्य कर सीमेंट, ईंटें, लकड़ी का सामान एकत्र कर कार्य आरम्भ किया। श्री वचन हुए– “देखो! मुख्य द्वार का कार्य लम्बा न करो। अभी छोटा तथा सादा किवाड़ लगा लो, समय आने पर जैसा जी चाहे बनवा लेना।”
आई हुई ईंटें भी सेवकों से अलग रखवा लीं और कहा कि इनकी हमें आवश्यकता पड़ेगी। कुछ सीमेंट भी अलग रख लो। संकेत ही संकेत में श्री गुरुदेव जी सब कुछ कह गये, परन्तु किसी को समझ न आई।
उस समय आश्रम में कई महात्माजन उपस्थित थे। श्री स्वामी बेअन्त आनन्द जी महाराज (श्री चतुर्थ पादशाही जी) श्री आनन्दपुर में और श्री स्वामी वैराग्य आनन्द जी महाराज (श्री तीसरी पादशाही जी) तथा महात्मा सत् विचारानन्द जी, महात्मा निजात्मानन्द जी, महात्मा अजून्यानन्द जी, महात्मा अभेदानन्द जी चकौड़ी में किसी कार्यवश गए हुए थे।
इसप्रकार तीन, चार, पांच और छः अप्रैल को श्री सद्गुरुदेव महाराज जी (श्री दूसरी पादशाही जी) नंगली साहिब से बाहर रहे। 7 अप्रैल को सकौती टांडा स्टेशन पर पधारे।
अन्तिम समय तक आप प्रेमियों को कृतार्थ करने के लिए पारमार्थिक पथ पर अग्रसर रहे। मौजवश गाड़ी से उतर कर रेलवे कर्मचारियों के पास गये। उन्होंने आपका हार्दिक सत्कार किया।
आपने वचन फ़रमाये कि सन्त महापुरुषों की संगति जब भी मिल जाये, वही समय ही स्वर्णावसर होता है। शायद यह अवसर फिर हाथ न आ सके, क्योंकि हाथ से गया हुआ समय फिर नहीं लौटता।
इसलिए हाथ में आये हुए समय से लाभ उठा लेना चाहिए। वहां श्री अमृत वचन फ़रमाकर सबको निज कर-कमलों से प्रसाद दिया। आप अन्तिम समय तक श्री प्रवचनामृत की वृष्टि से जन-जन को लाभान्वित करते रहे, क्योंकि सन्त महापुरुष सदा परमार्थ के लिए ही अवतार लेते हैं।
आप सकौती टांडा से नंगली पधारे। यहां पर भी प्रेमियों को मौज में आकर प्रसाद दिया। उस समय श्री श्री 108 श्री सद्गुरुदेव महाराज जी श्री दूसरी पादशाही जी ने महानिर्वाण के लिए स्पष्ट रूप से वचन किये- “हम 9 अप्रैल प्रातः यहां से जाने वाले हैं।
हमारे जाने के पश्चात् इस स्थान पर जहां दो शहतीर मिलते हैं और नीचे लकड़ी का जो स्तम्भ है, उस स्तम्भ को और दोनों शहतीरों को हटा देना। इस कमरे को विशाल रूप में बनाकर इस स्तम्भ के स्थान पर हमारे रहने का आसन बनाना।
” इतने स्पष्ट वचन सुनकर भी कोई इस रहस्य को न जान सका।
8 अप्रैल तक भी आप (श्री सद्गुरुदेव महाराज जी) जीवोद्धार के लिए श्री प्रवचन फ़रमाते रहे। गर्मी के दिन थे। महात्मा अखण्ड शब्दानन्द जी, जो आयु में वृद्ध थे, दोपहर के समय श्री सद्गुरुदेव महाराज जी को पंखा करने लगे। अचानक उन्हें नींद आ गई और पंखा चलाना बंद कर दिया। आपने मुसकराकर उन्हें जगाया और शुभ वचन फ़रमाने आरम्भ किये-“साधु का जीवन सदा परमार्थ के लिए होता है।
जैसे किसान गेहूँ के बीज को त्याग कर खेत में डाल देता है; समय आने पर वह गेहूँ का बीज फल देता है, ठीक ऐसे ही त्याग किया हुआ सुख बढ़ता है अर्थात् शारीरिक सुख त्यागने से आत्मिक सुख मिलता है। मानव जन्म जागने के लिए ही मिला है।
सद्गुरु की सेवा करने से शारीरिक थकावट तो प्रतीत होती है, परन्तु यही थकावट सुख का कारण बनती है। मज़दूर मज़दूरी करके अर्थात् खून-पसीना एक करके रोटी का मुँह देखता है।
जब पैसा कमाने के लिए इतना कष्ट करना पड़ता है तो भक्तिमार्ग में भी कुछ न कुछ तितिक्षा करनी चाहिए। आपने सोने वालों को जगाना है। गुरुमुखों को ग़फ़लत के धोखे में नहीं पड़ना चाहिए।”
ये प्रवचन केवल महात्मा जी के लिए नहीं हुए, बल्कि सबको चेतावनी देने के लिए थे। सूर्य तो अपनी किरणें समभाव से प्रकाशित करता है, चाहे उनसे कोई लाभ प्राप्त करे या न करे।
केवल अपने सुख के लिए आपने ये श्री वचन नहीं फ़रमाये थे कि विश्राम के समय पंखा बंद क्यों हुआ? ये वचन तो अमूल्य हीरे-जवाहरात हैं, जिन्हें कोई भी ग्रहण कर सकता है।
उनका यथार्थ रहस्य यह था कि मनुष्य जन्म बहुत कीमती है। इसे ग़फ़लत में यूँ ही व्यतीत न किया जाए। गुरु-भक्ति, सेवा में सदा तत्पर रहकर तनिक भी प्रमाद न किया जाए। यही परम कर्तव्य है।
आप स्वयं अन्तिम समय तक अथक प्रयत्न से अमृतोपदेश की पावन गंगा बहाते रहे। स्वयं कर्तव्य-निष्ठ होते हुए सेवकों को भी कर्तव्य-निष्ठ बनने का उपदेश आपने दिया।
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