कर्म सिद्धांत की व्याख्या
प्रश्न 1 . भगवान् के अवतार प्रभु श्रीराम, ईसा मसीह और बुद्ध जैसे महापुरुषों को दुःख क्यों उठाने पड़े? क्या उनके कोई अशुभ कर्म थे? यदि सन्त महापुरुष सब गुणों से ऊपर होते हैं, तो वे शारीरिक दुःख-कष्टों से पीड़ित क्यों दिखाई देते हैं?
उत्तर– जब सन्त इस संसार में आते हैं तब वे भी नियम अनुसार माता-पिता के घर जन्म लेते हैं। वे संसार में रहते हैं और कार्य भी करते हैं। बिना कर्म किये तो कोई भी नहीं रह सकता, लेकिन वे कर्मों के अधीन नहीं होते।
सन्त महापुरुष तो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विपत्तियों को सहन कर अपने भक्तों के कर्मों को काटते हैं। कई बार हम सोचते हैं कि वे दुःखी हो रहे हैं। लेकिन वे हमारी सहायता करते हैं हमारा दुःख बाँटते हैं। कर्म उन्हें बाँधते नहीं।
उन्हें संसार में रहने के लिये कर्म करने पड़ते हैं, क्योंकि कर्म उनके अधीन हैं। वे कर्मों को वश में रखते हैं न कि कर्मों के शिकार बनते हैं।सामान्यतः यह देखा गया है कि सन्त महापुरुषों को कई कठिनाइयों से गुज़रना पड़ता है।
जैसे भगवान् श्री रामचन्द्र जो को चौदह वर्षों के लिये बनवास में जाना पड़ा, सन्त ईसा मसीह जो को सूली पर चढ़ाया गया, दरवेश शम्स तबरेज़ की जीवित खाल उतारी गई। उन्होंने सत्य की शिक्षा दी, वे समाज का अहित नहीं करते।
वे केवल हमें जन्म-मरण के चक्र से बचाना चाहते हैं। वे हमें संसार के पदार्थों एवं बन्धनों से मुक्त कराकर परमात्मा से जोड़ना चाहते हैं। सन्त केवल हमारे भीतर प्रभु का प्यार जगाते हैं। लेकिन लोग उनके यथार्थ भाव को नहीं समझ सकते।
वे धर्म को एक मत-मतान्तर समझकर उससे बँध जाते हैं। लोग इतने रूढ़िवादी बन जाते हैं कि समय के सन्त महापुरुषों को अशिष्ट समझने लगते हैं।
इसलिये वे सन्तों से दुर्व्यवहार करते हैं। इसके अतिरिक्त कई स्वयं को विद्वान् समझकर सन्त महापुरुषों को अपने कार्य में बाधक समझने की भूल करते हैं। कई अन्य वर्गों को उनके विरुद्ध उत्तेजित करते हैं।
एक बार श्री गुरुनानक देव जी मुलतान देश की सीमा पर पहुंचे और वहाँ के फकीरों को जब यह पता चला तो उन्होंने श्री गुरु नानकदेव जी के पास ऊपर तक भरा हुआ दूध का एक वर्तन भेजा- अर्थात् मुलतान में किसी और सन्त के लिये जगह नहीं है।
श्री गुरु नानकदेव जी ने एक चमेली का फूल उस दूध के बर्तन पर रखा, वह उस दूध पर तैर रहा था और यह सन्देश भेजा कि दूध बिल्कुल गिरा नहीं है अर्थात् उनका वहाँ आना एक फूल की सुगंध की तरह होगा।
सन्त इतने कोमल हृदय के होते हैं कि वे अपने शरीर पर कष्ट उठाकर लोगों की सहायता करते हैं, वे स्वयं कठिनाइयों को झेलते हैं और मानवता के लिये एक आदर्श छोड़ जाते हैं। 1
|| शेअर ||
लगे रहते हैं काम में रोज-ने-शब वो ।
नहीं लेते दम एक दम वे सबब वो ॥
न ठिर माघ की जी छुड़ाती है उनका ।
न लू जेठ की दम तुड़ाती है उनका ॥
कमाते हैं वो और खाती है दुनिया ।
थकते हैं वो चैन पाती है दुनिया ॥
सन्त महापुरुष सरलता से दुःख व कष्टों को पार कर लेते है लेकिन यह उनके लिये कोई अद्भुत कार्य नहीं होता। वे मनुष्य जाति के लिए एक उदाहरण स्थापित करते हैं केवल मुख से यही कहते हैं कि “प्रभु की मौज मीठी लगे।”
प्रश्न 2. क्या हम अपने बुरे कर्मों के स्वयं जिम्मेवार है?
उत्तर – हाँ! अवश्य ही हम अपने बुरे कर्मों के स्वयं जिम्मेवार हैं क्योंकि हमें उन्हें चुकाना पड़ेगा। ईश्वर ने हमसे ऐसे कर्म नहीं करवाये। यह तो हमारा मन है जो हमें बुरे कार्य करने के लिए बहकाता है। “जो तुम बोवोगे वही तुम काटोगे।”
एक किसान धरती में बीज बोता है और फसल उगने पर उसके फल को काटता है। यदि उसने सरसों बोई है तो सरसों ही काटने को मिलेगी, यदि उसने आम का पेड़ लगाया है, तो उसे आम के स्वादिष्ट फल प्राप्त होंगे।
इसीप्रकार यह संसार एक कर्म का खेत है। जिस तरह के बीज हम बोते हैं उनका फल पाने के लिए हमें फिर से संसार में आना पड़ता है। “जो कुछ हमने बर्तन में डाला होगा उसमें से वही बाहर निकलेगा।”
प्रश्न 3 . क्या जीवन में सब कुछ पहले से ही निर्धारित होता है ?
उत्तर– हमारे तीन प्रकार के कर्म होते हैं-प्रारब्ध, क्रियमाण और संचित। जिसे हम भाग्य कहते हैं वह प्रारब्ध है। जो भी बीज हमने पूर्व जन्मों में बोये थे, उन्हें अब काटना होगा। यह हमारा भाग्य है जो बदला नहीं जा सकता।
भाग्य वह है जिसके साथ हम जन्म लेते हैं और अपने जीवन के अन्तर्गत उसका सामना करते हैं। फिर भी हमारे पास नये बीज बोने का अधिकार होता है, होते हैं क्रियमाण कर्म। फिर तीसरे प्रकार के कर्म-संचित कर्म ।
एक जन्म में हम वे सब फल नहीं भुगत सकते, जिनके बीज हमने पूर्व जन्म में बोये थे। इसलिए उनमें से जो शेष रह जाते हैं और धीरे-धीरे हम उन शेष कर्मों का एक विशाल भण्डार एकत्र कर लेते हैं। जब तक हर प्रकार के कर्म धुल नहीं जाते या खत्म नहीं हो जाते हमारी आत्मा फिर से नित्यता में विलय नहीं हो सकती।
निश्चय ही भाग्य को हमें भोगना ही है। इसलिए जो उसे प्रभु की मौज समझकर स्वीकार कर लेते हैं, वे उसका दुःख अनुभव नहीं करते। जो मनुष्य सद्गुरु की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें अपने प्रारब्ध कर्म तो भोगने ही पड़ते हैं, लेकिन वे नाम सुमिरण द्वारा अपने संचित कर्म नष्ट कर लेते हैं और नये कर्मों का निर्माण नहीं करते, क्योंकि वे सब कर्म परमात्मा को समर्पित करते हुए करते हैं।
प्रश्न 4 . एक पवित्र व धर्म निष्ठ जीवन जीते हुए भी कुछ लोग दुःख क्यों भोगते हैं?
उत्तर– हमारी वर्तमान अवस्था हमारे पूर्व कर्मों का फल है और हमारा भविष्य हमारे वर्तमान के प्रयत्नों के अनुसार बनता है। हमारे पूर्व कर्म हमारी वर्तमान अवस्था के जिम्मेवार हैं। कष्टों के रूप में मनुष्य के पूर्व के बुरे कर्म दग्ध जाते हैं।
कोई भी मनुष्य पूर्ण अच्छा नहीं है और कोई भी मनुष्य पूर्ण बुरा नहीं है। मनुष्य अच्छे व बुरे कर्मों का समावेश है। इसीके अनुसार ही काह अच्छा या बुरा दिखाई देता है।
यह कहा जाता है कि मालिक की जिस पर कृपा उतरती है उस जीव को मालिक शीघ्र से शीघ्र अपने संग मिलाना चाहते है।
ऐसे जीवों के बुरे कर्म मालिक कष्टों द्वारा दग्ध करते हैं। भक्त को पूर्ण रूपेण मोह-माया के बन्धनों से आज़ाद करने हेतु व उसकी भक्ति को पुख्ता करने हेतु भक्त को कष्टों का सामना करना पड़ता है। इन कष्टों द्वारा पिछले बुरे कर्म पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से हमारी परिपक्वता के लिए कष्ट जरूरी है अन्यथा हम अपने लक्ष्य से भटक जायेंगे। जैसे कि सोने को खोट को दूर करने के लिए अग्नि में तपाया जाता है। | इसप्रकार एक सेवक की आत्मा कष्टों व दुःखों के आघाता से शुद्ध होती है।
कष्ट भी हमें परमात्मा की तरफ खींच ले जाते हैं, हमारे सच्चे साथी है। सभी कष्ट-क्लेश हमारे पूर्व कमों के प्रभावों के फल है। ये हमें भाग्य रूप में पहुंचते हैं। जब इनका रेखांकन हमने स्वयं किया तब हम इनका सामना हिम्मत से क्यों नहीं करते। यही विचार होना चाहिये।
मौज तेरी लागे मुझको मीठी सदा । दर हकीकत इसी में है मेरा भला ||
प्रश्न 5 . यदि परमात्मा दयालु है तो वह कठिनाइयों और दुःख क्यों आने देता है ?
उत्तर- इसमें कोई शक नहीं कि परमात्मा दयालु है लेकिन हमारे पूर्व जन्मों के कर्म ही सभी कठिनाइयाँ और दुःखों के जिम्मेवार हैं। ‘हम जो बोयेंगे वहीं काटेंगे। इसी तथ्य को लेते हुए कि ईश्वर दयालु है, तो वह होनी को होने से पहले ही बदल क्यों नहीं देता।
याद रखो परमात्मा सबका न्यायकारी है। माता-पिता अपने बच्चों को कभी-कभी डंडे से पीटते हैं। डंडे से पीटना सचमुच बहुत ही बुरा है, लेकिन जब हम माता-पिता के उद्देश्य को देखते हैं तब हम इसे गलत नहीं कह सकते।
सरकार एक अपराधी को सजा फाँसी के रूप में देती है। अब फाँसी एक बहुत ही क्रूर तथा घृणास्पद सज़ा है। लेकिन उस अपराधी ने कुछ समय पहले अपनी पत्नी तथा बच्चों को कत्ल किया था। जब तुम्हें इस बात का पता चलता है तो क्या तब तुम्हें फाँसी की सजा क्रूर और घृणास्पद लगेगी?
नहीं, वास्तव में सच्चाई ज्ञात होने पर ऐसा नहीं लगेगा। इसलिए परमात्मा बड़ा ही दयालु है लेकिन वह न्यायकारी भी है।
प्रश्न 6 . ऐसा क्यों है कि कोई राजा है तो कोई भिखारी, कोई ज्ञानी है तो कोई अज्ञानी? सभी मनुष्यों को एक समान अच्छा जीवन व्यतीत करने का अवसर क्यों नहीं दिया जाता ?
उत्तर- हम पूर्व जन्मों के कर्मों के गुलाम हैं और वर्तमान कमों के गुणों द्वारा भविष्य के मालिक हैं और हम परिस्थितियों के अधीन हैं। जब हम शतरंज खेलते हैं तो पहली चाल हमारे हाथ में होती है लेकिन उसके बाद शेष सभी चालें पहली चाल पर निर्धारित हो जाती हैं।
इसलिए एकबार हम अपने परमपिता परमात्मा से बिछुड़ जाते हैं और इस रचना का एक अंश बन जाते हैं, तब हमारे हाथ में कुछ नहीं होता। हम केवल उसे काटते हैं, जो हमने बोया था।
हम एक परिवार में, शहर में और बातावरण में जन्म लेते हैं। इन सबमें हमारा कोई वश नहीं होता। हम असहाय होकर उन कर्मों को एकत्रित करते हैं, जो हमारा भाग्य बन जाता है और अगले जन्म में ये कर्म हमारा भविष्य बनाते हैं।
सद्गुरु के मार्गदर्शन में किये अच्छे क्रियमाण कर्म ही हमें इन बन्धनों से आज़ाद कर सकते हैं।
प्रश्न 7 . आत्मा पृथ्वी पर बार-बार क्यों आती है?
उत्तर- आत्मा अपने मूल स्थान अर्थात् परमात्मा से मिलने के लिए व्यथित एवं बेचैन रहती है। कोई भी इच्छा भौतिक या आध्यात्मिक यदि वह निष्कपट, सच्ची एवं तीव्र हो तो अवश्य पूर्ण होगी।
निश्चय ही हमारी चाहत में कोई कमी ज़रूर होती है, जिससे आत्मा पृथ्वी पर वापस आती है, मोह और मायावश खिचती जाती है। आत्मा तब ही मुक्ति प्राप्त कर सकती है जब यह सभी इच्छाओं और कामनाओं को त्याग दे।
इसी प्रकरण में एक उदाहरण है। ऐसा कहा गया है कि शिवरात्रि की रात को व्यक्ति जो इच्छा रखे वह पूरी होती है। अगर वह सच्चे दिल से भगवान् शिव और माता पार्वती के चरणों में प्रार्थना करे।
एक गरीब महिला थी उसने कहा- हे प्रभु! मेरी यह पत्थर की पीसने वाली चक्की को सोने की चक्की में बदल दो ताकि में अपनी गरीबी से छुटकारा पा जाऊँ। वह लगातार यह कहती रहो। भगवान् शिव अपने भक्तों को आशीर्वाद देने पृथ्वी पर आये।
लेकिन उनके पहुँचने से दो क्षण पहले उसका विश्वास टूट गया। उसने दुःखी होकर घृणा से कहा हे प्रभु! यदि तुम इसे सोने में नहीं बदल सकते तो लोहे में ही बदल दो। उसी समय वैसा ही हो गया। वह पत्थर लोहे में बदल गया।
॥ दोहा ॥
पलटू पारस क्या करे, जो लोहा खोटा होय । सतगुरु सब को देते हैं, लेता नाही कोय ॥
इसीप्रकार हमारी अवस्था है। हम निरन्तर आध्यात्मिक प्रयत्न नहीं करते। हम संसार की मोह-माया में मोहित हो जाते हैं। जो हमें बार-बार पृथ्वी पर आने के लिए विवश करते हैं।
अन्दर से तो हम विषय-वासना और इन्द्रिय सुखों की चाह करते हैं और बाहर से कहते हैं कि मोक्ष क्यों नहीं प्राप्त होता? हम परमात्मा को धोखा नहीं दे सकते। अपने हृदय की गहराइयों में झांककर देखें क्या हमारी लालसा सच्ची है और हमारे प्रयत्न विश्वासपूर्ण हैं?
यदि नहीं तो हमारी आत्मा बार-बार पृथ्वी पर आने के लिए बाध्य है।
प्रश्न 8 . जीवन की अवधि कैसे निश्चित होती है? कुछ का तो पालने में ही देहान्त हो जाता है और कुछ ऐसे भी देखे जाते हैं जो वृद्धावस्था में लाठी लेकर भी जीवित रहते हैं। सबके लिए जीवन की अवधि एक समान क्यों नहीं है?
उत्तर- जीवन की अवधि भी व्यक्ति के अपने कर्मों द्वारा निर्धारित की जाती है। इस संदर्भ में एक उदाहरण दिया जा रहा है। एक अमीर का बेटा था। जब उस की आयु विवाह योग्य हुई तो पिता ने उसका विवाह कर दिया।
विवाह के कुछ समय उपरान्त उसका बेटा बीमार हो गया। उसके विवाह में बहुत सा धन खर्च किया गया था और उससे भी अधिक उसकी बीमारी में खर्च हुआ। आखिर में वे एक आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास गये।
वहाँ उसके बेटे ने पिता से कहा कि आप इसे एक रुपया दे दो और मेरा हिसाब-किताब आपके साथ बराबर हो जायेगा अर्थात् खत्म हो जायेगा। उसके पिता को अत्यन्त आश्चर्य हुआ रहे हो ?
और उसने पूछा कि बेटा! तुम किस हिसाब की बात कर उसने उत्तर दिया- पूर्व जन्म में में सेना में था और आप एक दुकानदार थे। मैंने अमानत के रूप में आपके पास दस हजार रुपये रखे थे।
जब में वापस लौटा तब वह रुपये आपने मुझे देने से इनकार कर दिया और मुझे जहर देकर मरवा दिया। अब सव हिसाब चुकता हो गया और अब कल मेरा देहान्त हो जायेगा।
उसके पिता ने कहा कि बेटा! मैंने तुम्हें धोखा दिया था, इसलिये मुझे यह दुःख भोगना पड़ेगा लेकिन इस नव विवाहिता बहू ने क्या किया था? उसने उत्तर दिया-वह परिचारिका (नर्स) थी जिसके द्वारा तुमने मुझे ज़हर का टीका लगवाया था।
अब उसे भी शेष जीवन एक विधवा की भाँति ही गुज़ारना होगा। दूसरे दिन उसका देहान्त हो गया।
इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति का जीवन और मृत्यु उसके कर्मों और सम्बन्धों के आधार पर निर्धारित होते हैं। सभी इस संसार के रंगमंच पर नाटक में अपना-अपना अभिनय करते हैं और अभिनय पूरा होने पर लौट जाते हैं।
इसीप्रकार ही किसे कौन सा अभिनय करना है, वह व्यक्ति के अपने ही कर्मों द्वारा निश्चित किया जाता है। मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माता है।
Shri Guru Arjun Dev Ji ! पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी !