मनुष्य की इच्छाएं – हमारी इच्छा क्यों नहीं पूरी होती ? स्थायी आनन्द और मानसिक शान्ति, जो कि जीवन का सार है, प्रत्येक मानव के अपने भीतर ही निहित है। अतः उसकी खोज सांसारिक पदार्थों में नहीं की जा सकती।
यदि इन सांसारिक वस्तुओं से सुख और शान्ति प्राप्त हो सकती तो इस संसार का समूचा ढाँचा ही विपरीत होता। जो लोग संसार के कोलाहलपूर्ण आमोद-प्रमोद में पूर्णतया निमग्न हैं और जिन्हें प्रयोग के लिए सभी शारीरिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त हैं, सुखी एवं आनन्दमग्न होते। परन्तु देखा यही जाता है कि वे ही सबसे अधिक दुःखी व चिन्तित होते हैं।
कहा जाता है कि महान् राजा सिकन्दर को भी भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति की अधिकाधिक इच्छा थी। परन्तु अन्त में उसे पश्चाताप ही करना पड़ा। कथा इस प्रकार है :-
मानव-जीवन का वास्तविक लक्ष्य
एक बार सिकन्दर महान् एक उच्चकोटि के सन्त के पास गया और पूर्ण श्रद्धा से उनकी सेवा करने लगा। कुछ समय के बाद जब महात्मा जी उसकी सेवा से प्रसन्न हुए तो उन्होंने सिकन्दर से एक वरदान मांगने को कहा। राजा ने बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि सारे विश्व का राज्य उसे मिल जाये।
उसकी नम्रता से अभिभूत होकर महात्मा जी ने कहा-“ओ सिकन्दर! तुमने ऐसा वर क्यों मांगा? क्या तुम्हें अनन्तकाल तक यहीं रहना है? तुम्हें तो इस संसार के आवागमन के चक्र से छुटकारा तथा मुक्ति पाने का वरदान मांगना चाहिए था जो कि मानव-जीवन का वास्तविक लक्ष्य है।”
परन्तु सिकन्दर के मन में तो सम्पूर्ण संसार का शासक बनने की इच्छा बहुत प्रबल थी, इसलिए सिकन्दर ने यही वरदान पाने का आग्रह किया। महात्मा जी ने उसे समझाने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु सब व्यर्थ रहा।
सिकन्दर को अपनी इच्छा पर दृढ़ देखकर महात्मा जी ने उसके सामने मनुष्य की एक खोपड़ी रखी और उस खोपड़ी को अनाज के दानों से भरने के लिए कहा तथा राजा द्वारा उस खोपड़ी को भरने में सफल होने पर उसके इच्छित वरदान को पूर्ण करने का वचन दिया।
सिकन्दर इस सस्ते सौदे पर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सोचा कि इतने विशाल राज्य की प्राप्ति के बदले में इस खोपड़ी को अनाज के दानों से भरना उसकी शान के विरुद्ध है। अतः उसने शीघ्र ही अपने कोषाध्यक्ष को उस खोपड़ी को अत्यधिक मूल्यवान् हीरों से भरने की आज्ञा दी।
सिकन्दर की आज्ञा का पालन उसी समय किया गया और उस खोपड़ी में बहुमूल्य हीरे डाले जाने लगे। परन्तु राजा के आश्चर्य का उस समय ठिकाना न रहा जब सारे कोष के हीरेजवाहरात, स्वर्णमुद्राएं आदि भी उस खोपड़ी को भरने में अपर्याप्त रहीं।
तब सेवकों ने जो कुछ महल में था, लाना प्रारम्भ कर दिया। यहां तक कि रानियों के शरीर के आभूषण भी लाकर उसमें डाल दिये गये परन्तु वह खोपड़ी फिर भी न भर सकी।
मिथ्या अभिमान पर बहुत लज्जित हुआ
ज्यों-ज्यों समय गुज़रता गया, सिकन्दर की परेशानी बढ़ती गई। अन्त में स्वयं को साधु की एक साधारण सी मांग को भी पूर्ण करने में असमर्थ जानकर सिकन्दर अपने मिथ्या अभिमान पर बहुत लज्जित हुआ और साधु के चरणों पर गिर पड़ा।
महात्मा जी ने सिकन्दर को बताया कि इस खोपड़ी में कोई रहस्य नहीं है। यह तो मानव-खोपड़ी है, जो कभी भी सन्तुष्ट नहीं होती अपितु सदा अधिक से अधिक की मांग करती रहती है।
यदि समस्त विश्व की दौलत भी इसमें डाल दी जाए तो भी इसका लोभ शान्त नहीं हो सकता। यह सदा और अधिक की मांग करेगी। इस सामान्य सत्य को जानकर सिकन्दर होश में आया और अपनी मूर्खता पर बहुत पछताया।
मनुष्य की इच्छाएं कभी समाप्त नहीं होती
यदि सिकन्दर जैसा महान् व्यक्ति भी सुख और शान्ति प्राप्त नहीं कर पाया तो एक सामान्य व्यक्ति इन सांसारिक पदार्थों से । सुख की आशा कैसे कर सकता है!
प्रत्येक वस्तु का अपना प्रभाव होता है। जैसे सूर्य गर्म होता है, पानी ठंडा होता है, चीनी मधुर और कुनीन कड़वी होती है, उसी तरह सांसारिक विषय-पदार्थों का भी अपना प्रभाव है। सन्त-महापुरुषों ने सृष्टि के सभी पदार्थों की भली-भांति जाँच करके यह स्पष्ट घोषित किया है कि इन भौतिक पदार्थों में सुख और शान्ति की आशा करना बुद्धिमानी नहीं है।