सत्य की राह
सुखमनी साहिब में वर्णन आया है
जिस के अंतरि बसै निरंकारु ॥ तिस की सीख तरै संसारु ॥
जिसके मन में कर्ता धर्ता परम पिता परमेश्वर का वास होता है उसके द्वारा दर्शाए गए मार्ग पर चलकर दुनिया राहत व चैन प्राप्त करती है। जिन्हें गुरु दरबार की बैठक मिली है और श्री सद्गुरुदेव महाराज जी की चरण शरण व उनके पावन वचन सुनने का सुअवसर मिला है,यह उनकी बहुत खुशनसीबी है।
जब पूर्बले जन्मों के कर्म फल देने को आते हैं तब जाकर ऐसा संयोग मिलता है। ” सद्गुरु के पावन दरबार में कोई विरली गिनी चुनी रूहों ” को ही प्रवेश मिलता है। क्योंकि भक्ति मार्ग कोई सहज नहीं है। यहां हर समय मन पर नियन्त्रण करना सिखाया जाताहै । आज्ञा में तत्पर रहने का पाठ पढाया जाता है ताकि – जीव अपने जीवन को वचनों के सांचे में ढालकर सत्य की राह पर चलता हुआ श्री सदगरुदेव महाराज जी की प्रसन्नता को पाकर अपने जीवन के ध्येय को प्राप्त कर सके।
सत्य तो आखिर सत्य ही होता है। कहते हैं-सच की नाव हिले ,पर कभी न डूबे।
जो सत्य से अनभिज्ञ हैं,” जिन्हे इस राह पर चलने का अनुभव नहीं वे भक्ति की महिमा को कैसे जान सकते हैं। वे तो इसे ठिठोली मात्र मानकर हंसी उड़ाने से परहेज़ नहीं करते। लेकिन जिन्हें यथार्थ का ज्ञान हो है. वे लाख कठिनाइयां आने पर भी सत्य के मार्ग से अडोल नहीं होते। जो सद्गुरु की आज्ञा को सत्य मानकर भक्ति करते हैं,
उनके प्रति गुरुवाणी में कथन आया है :-
सूरा सो पहिचानीऐ जु लरै दीन के हेत ॥
पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू न छाडै खेतु ॥
सदगुरु की आज्ञा को शिरोधार्य कर ऐसे भक्तों ने | शारीरिक दुःख व यातनाओं की तनिक भी परवाह न की। जो असलियत के भेद को पा जाए वह फिर नश्वर व फ़ानी चीज़ों में चित्त को अटकाकर समय नहीं गंवाता। परन्तु ऐसी सूझबूझ रखने वाले कोई विरले ही होते हैं। ऐसे गुरुमुख प्रेमियों के नाम इतिहास में अमर हो जाते है।
सत्य की राह कठिन होने पर भी स्थायी है पर असत्य की राह का वजूद घास की आग की तरह जलकर भस्मीभूत हो जाता है।
पाण्डवों की सेना थोडी थी परन्तु पाण्डव सत्य पर अडिग थे। कौरवों की सेना का अन्त हिसाब न था परन्तु वे असत्य का दामन पकड़े हुए थे इसलिए विजयश्री उनको न मिलकर पाण्डवों के पक्ष में ही आई। इसलिए नेकनीयत व दृढ निचय से जो सत्य सहारा लेकर चलता है, सत्य उसकी हर पल व हर पग सहायता करता है। समय आने पर सारी दुनिया उसी का ही यशोगान करती है।