राधारानी का स्वप्न में दर्शन देना – श्रीकृष्णदास बाबा जी (रनवारी)
उस दिन जब यह आश्चर्यजनक घटना घटी, सिद्ध श्रीजगन्नाथ दास बाबा और उनके शिष्य श्रीबिहारीदास बाबा रनवारी में श्रीकृष्णदास बाबा के निकट ही एक कुटिया में ठहरे हुए थे। शेष रात्रि में श्री जगन्नाथदास बाबा ने बिहारीदास बाबा को पुकारते हुए कहा- ‘बिहारी ! देख तो श्रीकृष्णदास बाबा की कुटिया में क्या हो रहा है?’
बिहारीदास भागकर गये, तो देखा कुटिया का दरवाजा भीतर से बन्द है। दरवाजे की झिरी में से झाँका, तो देखा कि कृष्णदास बाबा सिद्धासन की मुद्रा में बैठे हुए हैं, उनका शरीर दग्ध हो रहा है और मुख से हरिनाम का उच्चारण हो रहा है। वे दौड़कर गये और जैसे ही गुरुदेव से कहा-
‘श्रीकृष्णदास बाबा का शरीर दग्ध हो रहा है’, वे चीख पड़े ‘अहो! विरहानल । विरहानल !!’ उसी समय पड़ोसी व्रजवासी दौड़ पड़े। श्रीकृष्णदास बाबा की कुटिया का दरवाजा तोड़ा। भीतर जाकर देखा कि अग्नि धक्षक्कर जलते हुए बाबा के कण्ठ तक आ गयी है, फिर भी उनके मूख से नाम का स्पष्ट रूप से उच्चारण हो रहा है। व्रजवासी कातर भाव से उनकी ओर देखते रह गये।
तब उन्होंने मशाल की तरह जलते हुए अपने दोनों हाथों को उठाकर आशीर्वाद देते हुए कहा- ‘तुम्हारे गाँव में कभी किसी प्रकार का संकट न आयेगा। सर्वत्र दुर्भिक्ष और महामारी होने पर भी तुम्हारा गाँव सुरक्षित रहेगा।’
जगन्नाथदास बाबा ने देखा कि अग्नि बाबा के कण्ठ तक आ गयी है। तब उन्होंने रुई की तीन बत्तियाँ बनाकर बाबा के माथे पर रख दीं। बत्तियाँ जलने लगीं और उनके साथ ही उनका सारा शरीर भस्मीभूत हो गया।
श्रीश्रीकृष्णदास बाबा का पूर्व नाम श्रीकृष्णप्रसाद चट्टोपाध्याय था। जन्मस्थान था बंगदेश के जशोहर जिले के अन्तर्गत महम्मदपुर ग्राम। पिता का नाम था श्रीगोकुलेशचन्द्र चट्टोपाध्याय। जब उनके विवाह का प्रस्ताव हुआ, तभी वे एक दिन शेष रात्रि में घर से निकल पड़े और पैदल ही चलकर वृन्दावन पहुँच गये। वृन्दावन में श्रीश्रीमदनमोहन की सेवा में कुछ दिन रहकर रनवारी चले गये।
रनवारी उस समय भीषण जंगल था। वहाँ एक छोटी कुटिया बनाकर उसमें भजन करने लगे। संध्या समय मधुकरी माँग लाते। अपने प्रयोजन अनुसार रखकर बाकी गायों को खिला देते। मधुकरी इतनी मिलती कि रास्ते भर गायों को खिलाते आते, क्योंकि प्रत्येक व्रजवासी मधुकरी के लिए आग्रह करता और वे उसकी उपेक्षा न कर पाते।
बाल्यकाल में ही गृह त्यागकर व्रज चले जाने के कारण श्रीकृष्णदास बाबा और किसी तीर्थ के दर्शन नहीं कर पाये थे। प्रायः पचास वर्ष बाद उनके हृदय में वासः जागी एक बार चारों धाम के दर्शनकर लेने की। राधारानी ने स्वप्न में दर्शन देव कहा- ‘तुमने वृन्दावन में मेरी शरण ली है।
तुम्हें और कहीं जाने की आवश्यक नहीं। यहीं रहकर भजन करो। तुम्हें सर्वसिद्धि लाभ होगी।’ उन्होंने प्रियाजी के स्वप्नादेश को अपने मन-बुद्धि की कल्पना जान उसकी अवहेलना की और तीर्थयात्रा को निकल पडे। भ्रमण करते-करते द्वारका पहुँचे। चारों सम्प्रदाय के वैष्णव द्वारका जाकर तप्त मुद्रा धारण किया करते हैं। पर यह रागानुगी वैष्णवों की परम्परा नहीं है, यद्यपि ‘हरिभक्ति-विलास’ में इसकी व्यवस्था दी हुई है।
बाबा कृष्णदास ने व्रज के सदाचार की उपेक्षाकर हरिभक्तिविलास के मतानुसार तप्त-मुद्रा धारण कर ली। परन्तु बाद में उनके चित्त में विक्षेप आया, तीर्थ-भ्रमण में अरुचि हो गयी और वे व्रज में लौट गये।
जिस दिन बाबा लौटे, उसी दिन रात्रि में फिर राधारानी ने स्वप्न में कहा- ‘तुम द्वारका में तप्त-मुद्रा धारणकर सत्यभामा के गणों में शामिल हो गये हो। व्रजधाम के उपयुक्त अब नहीं रहे। द्वारका चले जाओ।’ इस बार उन्हें ऐसा नहीं लगा कि स्वप्न कल्पित था।
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किंकर्तव्यविमूढ़ हो वे गोवर्धन के सिद्ध श्रीकृष्णदास बाबा के पास गये। उन्हें देखते ही गाढ़ आलिंगनपूर्वक बाबा ने पूछा- ‘आप इतने दिन कहाँ थे ? ‘मैं द्वारका गया था। यह देखिये तप्त-मुद्रा लगवा आया हूँ’ उन्होंने उत्तर दिया। ‘ओहो ! तब आज से आपको स्पर्श करने की मेरी योग्यता नहीं रही। कहाँ आप महाराज राजेश्वरी की सेविका ! कहाँ में ग्वालिनी की दासी !!’ दीर्घ निःश्वास के साथ कई कदम पीछे हटते हुए सिद्ध बाबा ने कहा।
व्रज में उस समय और भी कई सिद्ध महात्मा विराजमान थे। उनसे भी कृष्णदास बाबा ने जाकर पूछा कि उन्हें क्या करना चाहिये। उन्होंने उत्तर दिया- ‘प्रियाजी के आदेशानुरूप ही आपको चलना है। उनके आदेश के ऊपर उपदेश देने की हमारी क्षमता कहाँ?’ हताश हो वे रनवारी लौट गये। अन्न-जल त्यागकर कुटिया में जा पड़े।
अनुताप और प्रियाजी के विरह की अग्नि से उनका हृदय दग्ध होने लगा। इस अवस्था में पड़े पड़े तीन माह बीत गये। तब भीतर की अग्नि बाहर फूट पड़ी। तीन दिन में अग्नि चरणों से लेकर कण्ठ तक फैल गयी। चौथे दिन श्रीजगन्नाथदास बाबा के सहयोग से उनका सारा शरीर भस्म हो गया।
भस्म-राशि शीतल हो जाने के कई दिन बाद उनके गुरुभाई श्रीप्रेमदास बावाजी महाराज आये। भस्म के निकट जाकर दण्डवत्कर बोले- ‘दादा ! आपने मेरे हाथ की लकड़ी तो ली नहीं, यह मैं लकड़ी दे रहा हूँ।’ भस्मराशि से स्पर्श होते ही लकड़ी जलने लगी और भस्म होकर उसमें मिल गयी।
इस घटना को घटे लगभग सवा सौ वर्ष हुए हैं, पर आज भी रनवारी के व्रजवासी पौषी अमावस्या को चन्दा कर श्रीश्रीकृष्णदास बाबा की तिरोभाव-तिथि के उपलक्ष में एक विराट् उत्सव करते हैं, जिसमें चौरासी कोस व्रज के वैष्णवों को भोजन कराते हैं। बाबा ने यहाँ के व्रजवासियों को फाल्गुन शुक्ला एकादशी तिथि का पालनकर रात्रि में जागरण करने का आदेश दिया था।
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आज भी यहाँ के व्रजवासी, स्त्री-पुरुष, बड़े-बूढ़े, यहाँ तक कि बालक-बालिकाएँ भी इस तिथि का विशेष रूप से पालन करते हैं और इस उपलक्ष में भगवल्लीला, कीर्तन आदि करते हैं। आज भी वे बाबा के आशीर्वाद से दुर्भिक्ष और महामारी आदि के प्रकोप से सुरक्षित हैं। उनका विश्वास है कि सिद्ध बाबा की समाधि के आगे जो कोई कुछ प्रार्थना करता है, उसकी पूर्ति होती है।
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