प्रभु नाम का महात्म्य
भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी ने गीता में लिखा है-
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वक़ते रहलत याद मेरी में, झुकाता है जो सर ।
मुझ में बेशक वसल होता है, वह कालव छोड़कर ||
यह समझ ले आख़री दम, जिसका जैसा हो ख़्याल ।
अपनी नीयत के मुताबिक, उसमें पाता है वसाल ||
दम बदम ता वक़ते आख़िर, जिसको मेरा ध्यान है ।
मुझ से मिलना, ऐसे शाग़ल के लिए आसान है ||
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जी फ़रमाते हैं कि मरते समय जिसको जिस प्रकार का मन में ध्यान आता है, उसी के अनुसार ही उसको योनि मिलेगी। अतः जिसका मरते समय मेरी तरफ़ ध्यान होगा, वह मनुष्य शरीर त्यागने पर मुझ में ही लीन हो जायेगा।
जैसा कि इस निम्नलिखित दृष्टान्त से स्पष्ट विदित होता है-त्रेतायुग में जब भगवान् श्री रामचन्द्र जी व रावण का युद्ध समाप्त हुआ, दोनों तरफ़ की राक्षस एवं वानर सेनायें अधिकांश मात्रा में मर चुकी थीं, थोड़े से ही व्यक्ति बच गए थे;
उस समय भक्त विभीषण जी ने भगवान् श्री रामचन्द्र जी के चरणों में प्रार्थना की “प्रभो! इस समय लंका में केवल अबलाओं व बालकों के अतिरिक्त शेष कोई भी नहीं रहा। छोटे बच्चे जब तक बड़े होंगे, उस समय तक लंका का काम कैसे चलेगा ?
“तब भगवान् श्री रामचन्द्र जी ने अमृत से भरा कलश विभीषण को देकर कहा “प्रिय लंकेश! एक-एक घूंट अमृत का सब मृतक राक्षसों के मुँह में डाल दो जिससे सब जीवित हो उठें।” तब विभीषण ने ऐसा ही किया ।
परन्तु राक्षसों के मुँह में अमृत डालने पर कोई भी राक्षस जीवित न हुआ। तब यह देख कर विभीषण को बड़ा आश्चर्य हुआ कि भगवन्! मेरी सेना का तो एक भी सैनिक जीवित न हो पाया। इस का क्या कारण है ?
अन्त में भगवान श्री रामचन्द्र जी के पास जाकर विभीषण जी ने सब समाचार सुनाया तब भगवान ने फ़रमाया – “ऐ विभीषण! राक्षस सेना को तो मरते समय तक मेरा ध्यान बना रहा। युद्ध के अवसर पर भी वे दिल में यह कहते रहे थे कि राम कहां हैं और लक्ष्मण कहां हैं?
मेरे ध्यान व तसव्वर में ही उनकी इस प्रकार मृत्यु हो गई। इसलिए राक्षस सेना तो सब की सब मुक्त हो गई है, वे तो अब जीवित न होंगे। भगवान श्री रामचन्द्र जी ने विभीषण को सम्बोधित करते हुए फ़रमाया कि वानर सेना ने हमारी सेवा कर के परम पद की प्राप्ति की है और राक्षस सेना को अन्तिम समय मेरा ध्यान आ जाने पर मुक्ति प्राप्त हुई है।
ऐ विभीषण! आवागमन के चक्कर से छूटने के यही दो उपाय ही हैं। सेवा तथा ध्यान तसव्वर । सेवा करने का प्रयोजन भी यही होता है कि अन्तिम समय इस जीव को अपने इष्टदेव का ध्यान और तसव्वर आवे ।
”भाव यह कि इसी प्रकार ‘अन्ते मतिः सा गति’ मरण काल में जो विचार भी सर्वोपरि होता है उसी के अनुसार ही मनुष्य को परलोक में गति मिला करती है परन्तु जीवन के अन्तिम क्षणों में श्रेष्ठ भावनाएँ ही हमारा साथ देवें- इस बात की निर्भरता मनुष्य के जीवन काल की दिनचर्या पर है।
जैसे वातावरण में और जिस प्रकार की संगति में उसने समय व्यतीत किया होगा, उसी प्रकार के विचार अन्तिम क्षणों में स्वतः उत्पन्न होंगे।
अतएव जीवन काल में ही मधुर और विमल सत्संग, सद्गुरु की सेवा व मालिक के नाम का भजन – सुमिरण के वातावरण में जीवन व्यतीत करना चाहिये । यही जीवन का मुख्य उद्देश्य है । तब ही मरते समय परम पिता परमात्मा का ध्यान आयेगा ।