गुरु क्या है? इस बात के समझने में अक्सर आदमियों की समझ का रुख़ गलती की तरफ़ रहता है। वे गुरु को साधारण मनुष्यों की तरह ख्याल करते हैं। वे समझते जैसे हम इन्सान हैं ऐसे ही गुरु भी एक इन्सान है। मगर ऐसा समझना सख्त गलती में दाखिल है।
जो लोग गुरु के मुतल्लिक इस किस्म का विश्वास रखते हैं, वे परमार्थी तरक्की नहीं कर सकते। दर हकीकत गुरु की ज़ात-मालिक कुल की पवित्र जात है। उसमें और मालिक में कोई भेद नहीं।
यह ज़ाहिर स्वरूप जो उनका हमको नज़र आ रहा है, वह सिर्फ हमारी ज़रूरत के वास्ते अख्त्यार किया गया है। मगर उनका असली स्वरूप और है। उनका इस दुनिया के अन्दर स्थूल रूप में आना सिर्फ हमारी ज़रूरत की वजह से ही है।
क्योंकि इस स्थूल दुनिया में रहते हुए हमारे ख़्यालात कसीफ (स्थूल) हो गये हैं और सुरत संसारी पदार्थों में फँसकर बिल्कुल बहिर्मुखी बन गई है और हमारी निगाहें हमेशा स्थूल चीज़ों को देखने की आदी हो गई हैं। इसलिए गुरु को भी हमारी ज़रूरत के अनुसार स्थूल शक्ल अख्त्यार करनी पड़ती है।
जिस तरह इल्म वास्तव में इन्सान के दिमाग की गहराइयों की सूक्ष्म वस्तु है, मगर उसे जानने के लिए शब्दों, सतरों और किताबों की सूरतें बनानी पड़ती हैं, इसीतरह सद्गुरु असल में रंग रूप से रहित और शक्ल सूरत की दुनिया से परे की वस्तु हैं ।
परन्तु हमको उनका ज्ञान तब तक नहीं हो सकता, जब तक वह हमारे सामने किसी ऐसे रूप में प्रकट होकर न आयें जिसको हम अपनी स्थूल दृष्टि से देख सकें । यही वजह होती है कि वह इस नाम रूप की स्थूल दुनिया में प्रकट होते हैं।
जिस तरह इल्म को तख्तियों और किताबों में बाहर पढ़ लिखकर फिर इन्सान उसको अपने अन्दर पाता है, उसी तरह गुरु के ज़ाहिरी स्वरूप की सेवा-भक्ति से उनके अन्तरीय स्वरूप का साक्षात्कार होता है। यह भक्ति की फ़िलासफ़ी का गहरा राज़ है। जिनकी समझ में
यह बैठ जाता है, वे ठिकाने लग जाते हैं। फिर चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाये, उनके कदमों को कोई उखाड़ नहीं सकता ।
आप समझ गये होंगे कि गुरु क्या है, गुरु नाम है इष्ट और आदर्श का। इष्टदेव वही होता है जो हर तरह से पूर्ण हो। जिसमें कोई तराश-ख़राश न कर सकता हो । खुलासा यह कि गुरु हर तरह से पूर्ण और हद बेहद दोनों से ऊपर है । वह सूक्ष्म है, वह स्थूल है, वह परमार्थी है और परमार्थ का दाता है।
उसका खान-पान, बोल-चाल, सोना-जागना, उठना-बैठना अर्थात् कुल व्यवहार परमार्थ रूप है। वह धुर स्थान का मालिक है और संसारी जीवों के साथ व्यवहार करता हुआ और उनमें रहता हुआ भी हर समय अपने निज स्थान पर विराजमान है, उसका तार हर वक्त धुर स्थान से मिला हुआ है। वह वहाँ के सन्देश जीवों को सुनाता है।
उसका वचन धुर का वचन है। उसकी सेवा-पूजा मालिक कुल की सेवा-पूजा है। उसका प्रेम मालिक कुल का प्रेम है। उसका दर्शन मालिक कुल का पवित्र दर्शन है और उसका ताल्लुक खास धुर स्थान का ताल्लुक है।
इसलिए दुनिया में जहाँ जहाँ भी रूहानियत का सवाल आता है वहाँ गुरु के साथ सम्बन्ध पैदा करना, गुरु को सब कुछ मानना और गुरु का स्मरण तथा ध्यान करना लाज़मी शर्त रख दी गई है।
सत्पुरुषों के वचन हैं—
॥ दोहा ॥
बने तो सतगुरु से बने, नहीं बिगड़े भरपूर । तुलसी बने जो और ते, ता बनवे पर धूर | एक भरोसा एक बल, एक आस विश्वास । स्वाँति बूँद सतगुरु चरण, हैं चातक तुलसीदास ||
तुलसी साहिब ने एक गुरु के अकीदे को पुख़्ता करने पर इस कदर ज़ोरदार हिदायत क्यों की है ?
इसका जवाब यह है कि बाकी तमाम ताल्लुकात इन्सान को गैरियत के गढ़े में गिरा देते हैं। उन में से किसी एक के सम्बन्ध से हज़ारों के ताल्लुकात पैदा हो जाते हैं।
जैसे स्त्री और पुरुष शादी तो एक दूसरे के साथ करते हैं परन्तु उनका यह सम्बन्ध अनेक रिश्ते सास, ससुर, साला, साली, देवर, देवरानी वगैरह के ला खड़े करता है। उनको न सिर्फ हर एक को अपनाना बल्कि हर एक के साथ दर्जा बदर्जा व्यवहार भी रखना पड़ता है।
भाव यह कि दुनियावी रास्ते में ज्योंही किसी ने ज़रा कदम बढ़ाया तो दुनिया ने उसको अपनी तरफ़ ऐसा घसीटा कि उसे फिर दामन छुड़ाना मुश्किल हो गया। मगर समर्थ गुरु का सम्बन्ध इसके विरुद्ध है।
वहाँ सिर्फ एक गुरु के प्रेम को बेगर्ज़ी के साथ दिल में जगह देनी है। इस ख़्याल ने ज्योंही दिल में जगह पाई, एकता की हालत खुद-बखुद पैदा होने लगी। रूहानियत के संस्कारों ने उभर कर तबीयत का रुख अन्तर्मुख कर
दिया, सुरत खुद बखुद ऊपर को चढ़ना शुरु हो गई और इन्सान को वह रूहानी खुशी नसीब हुई जो कहने सुनने से बाहर है। मगर यह हालत सिर्फ गुरु को देखने से ही नहीं आ जाती बल्कि उनका वचन मानने और उनके असूलों की पैरवी करने से पैदा होती है। इसलिए बुज़ुर्गों ने यह वचन फ़रमाया है—
सतगुरु नो सभु को वेखदा जेता जगतु संसारु ॥ डिठै मुकति न होवई जिचरु सबदि न करे वीचारु ॥
गुरुवाणी
यह गुरु की पहचान का असली तरीका है जब तक उनके वचन की पैरवी अमली सूरत में न की जायेगी काम नहीं बनेगा। क्योंकि गुरु और शिष्य का ताल्लुक या रिश्ता सिर्फ वचन का है।
ज्यों ज्यों गुरु के पवित्र वचनों पर शिष्य अमल करता जाता है उसमें पवित्रता आती जाती है, क्योंकि समर्थ गुरु का वचन पाक-साफ़ और माया से रहित होता है। इसलिए शिष्य भी उसकी पैरवी करने से माया से निर्लेप हो जाता है। गुरु चूँकि खुद कामिल होता है।
इसलिए शिष्य भी जिस कदर उनके वाक्यों पर अमल करता जाता है, उसकी कमी पूरी होते होते वह दर्जा कमाल तक पहुँच जाता है और जिसको गुरु के वचनों में हद दर्जे का यकीन है और श्रद्धा-भक्ति से उसकी पालना करता है, चाहे दुनिया उलट-पुलट हो जाय मगर उसको नहीं त्यागता।
वही सही अर्थों में सच्चा और पूरा शिष्य समझा जाता है।
जिस समय शिष्य के अन्दर ऐसी हालत पैदा हो जाती है तो उसमें और गुरु में कोई भेद नहीं रहता । वह गुरु का और गुरु उसका हो जाता है।
जिस वक्त शिष्य में अपना आपा नाम को भी नहीं रह जाता, यानि वह गुरु की ज़ात में फ़नाह हो जाता है तो गुरु और शिष्य दोनों एक हो रहते हैं।
जो लोग यह कहते हैं कि उन्हें गुरु की ज़रूरत नहीं है, वह सिर्फ उस एक सर्वव्यापक ईश्वर ही को मानते हैं और उसी की भक्ति करते हैं, उनकी मिसाल उस आदमी की सी है जो गंगा के घाट पर खड़ा हुआ है और वहाँ स्नान इसलिए नहीं करता कि वह सारी गंगा तैरेगा।
लेकिन यह कितनी हँसी की बात है, क्योंकि सारी गंगा न तो कोई आज तक तैर सका है और न तैर सकता है। गंगा के यात्री हमेशा उसके घाट पर स्नान करके अपनी यात्रा सफल कर लिया करते हैं और सारी गंगा के तैरने वाले किनारे पर ही खड़े रह जाते हैं कि पर्व गुज़र जाता है।
यह कितनी भूल है। गौर करना चाहिए कि हकीकत में गंगा और गंगा के घाट में फ़र्क ही क्या है?
हमारे ख्याल में तो घाट का स्नान सारी गंगा का स्नान है। हमेशा यात्रियों के स्नान केलिए घाट ही की जगह मुकर्रर होती है। बल्कि उसी मुकद्दस (पवित्र) जगह का स्नान ही पवित्र और सफल समझा जाता है। इसी तरह ईश्वर रूपी तीर्थ का घाट भी गुरु को समझ लेना चाहिए।
क्योंकि यह ईश्वरीय नियम है, जो हमेशा अटल और कायम है। खाली बातों से न कभी कुछ बना है न बनेगा। इसलिए फज़ूल मगज़-खोरी की आदत को त्याग करके सच्चे गुरु की तलाश करने में ही कल्याण है।
जब खुशकिस्मती से पूरे गुरु मिल जायेंगे तब फिर सब कुछ वहीं मिल जायेगा और जिसको तुम बाहर तलाश करते हो, उसको अपने अन्दर पाओगे। न कहीं बाहर भरमने और जगह-बजगह फिरने की ज़रूरत है, न कोई कठिन तप या कठिन साधना करने की आवश्यकता है न कहीं आना है, न जाना है।
सिर्फ़ गुरु के पीछे-पीछे चलना है। कैसा आसान और सहल तरीका है, “हिंग लगे न फटकड़ी” और काम भी पूरा बन जाये, न लोक की चिंता न परलोक का ग़म, दोनों का बोझ उनके कन्धों पर धर दो और आप आज़ाद हो जाओ, काम खुद-ब-खुद बन जायेगा।
यही तो पूरे गुरु का कर्तव्य है कि शिष्य का सारा बोझ अपने ऊपर ले लेते हैं और उसे हर एक बात से बेखौफ़ बेफ़िक्र कर देते हैं।
मगर एक शर्त इसमें लाज़मी है कि शिष्य भी सच्चा और पूरा होना चाहिए तब तो बेड़ा पार है वरना अगर शिष्य कमज़ोर है तो गुरु ख़्वाह पूरे भी हों, तो भी काम का बनना मुश्किल है।
कबीर साहिब फ़रमाते हैं-
॥ दोहा ॥
पहिले दाता शिष्य भया, जिस तन मन अरपा शीश । पीछे दाता गुरु भए, जिन नाम किया बखशीश ||
इस दोहे का मतलब नीचे के दृष्टांत से अच्छी तरह विदित हो जाएगा कि किस तरह शिष्य को गुरु के आगे रहना चाहिए। एक दफ़ा का ज़िक्र है गुरु अमरदास जी का दरबार लगा हुआ था । सब सत्संगी जमा थे, गुरु साहिब ने हुक्म दिया सब लोग चबूतरे बनावें। हुक्म की देर थी चबूतरों का काम शुरु हो गया।
सबने अपने अपने चबूतरे बनाये मगर गुरु साहिब ने सबको नापसन्द करके गिरवा दिया और हुक्म दिया कि फिर बनाओ। फिर तैयार किये। लेकिन उन्होंने फिर गिरवाने और नये सिरे से फिर बनवाने का हुक्म सादर किया।
किसी ने दो मरतबा, किसी ने चार मरतबा, किसी ने दस मरतबा बनाये मगर ये बराबर गिरवाते रहे । पसन्द नहीं करते थे।
आखिर सब ने तंग आकर इस काम को छोड़ दिया। उन शागिर्दो में एक रामदास जी ऐसे थे जिन्होंने चबूतरे बनाने के काम को न छोड़ा। गुरु साहिब ने उनसे भी कई दफ़ा चबूतरा बनवाया और गिरवाया मगर यह बराबर काम में लगे रहे और चेहरे पर शिकन तक न लाये।
गुरु साहिब ने पूछा क्यों रामदास ! सब तो घबरा कर चले गए हैं तुम क्यों काम में लगे हो ? उन्होंने चरणों को चूम कर जवाब दिया, कृपा सागर! हमारा काम हुक्म बजा लाना है सेवक का धर्म सेवा करना है और यह खुशकिस्मती है कि हमको सेवा को मौका मिला है।
जितनी सेवा ली जाती है व जितनी दफ़ा भी सेवा कराई जाती है उतनी ही हम में पवित्रता आती जाती है। अगर चबूतरा गिरवा दिया जाता है तो कुछ पर्वाह नहीं इसके बदले गुरु की प्रसन्नता की कमाई तो आहिस्ता-आहिस्ता हो रही है।
दीनबन्धु ! एक तो यह बात हुई और दूसरी बात यह है कि गुरु अच्छी तरह जानता है कि किस तरह सेवक के मन की घड़त होती है। हम ज़्यादा समझ ही क्या सकते हैं, हमको तो सिर्फ आपके हुक्म और वचन से प्रीत है। दीनदयाल ! हमको न चबूतरे के बनने से गरज़ है न उसके गिरने से मतलब ।
हमको तो यह खुशी बहुत है कि हमको सेवा का हुक्म दिया जाता है और जिसने भवसागर से पार करने का बीड़ा अपने सिर पर उठाया है उसने भी पहले कच्चे पक्के की परख करनी है।
अगर इस नाचीज़ चबूतरे के बनने में मुस्तकिल मिजाज़ी से काम न लिया गया तो आगे का क्या ठिकाना ? प्राणनाथ! इसलिए अगर आप जन्म भर मुझसे यह काम लेते रहें तो मैं अपने आप को कृतकृत्य समझँगा ।
इन लफ्ज़ों को सुनकर गुरु अमरदास जी बहुत खुश हुए। चेले को प्रेम से अपने अंग लगाया और उसी वक्त अपनी गद्दी पर बैठाकर अपना रूहानी जानशीन कायम किया ।
॥ दोहा ॥
गुरु समान दाता नहीं, दीनों दात अमोल | क्या कोई जाने दान वह, जाको मोल न तोल ॥ गुरु माता गुरु पिता हैं, गुरु भ्राता गुरु मीत । गुरु सम प्रीतम जगत में, मोहि न आवै चीत ॥ गुरु को सब कुछ जानिये, कीजिये निसदिन सेव । गुरु साहिब गुरु साइयाँ, गुरु हैं सच्चे देव ||
इसलिए जो सच्चे खोजी होते हैं वह गुरु के साथ मज़बूती से कायम रहते हैं और उन्हीं की सेवा, भजन और आज्ञा से काम रखते हैं।
वह गुरु के मामले में किसी से राज़ीनामा करने पर तैयार नहीं होते, चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाये और उनके ऊपर पहाड़ तक गिर कर उनको चूर चूर क्यों न कर डाले मगर वह सिवाय गुरु के भूलकर भी किसी गैर का ख़्याल नहीं करते जिससे वह रूहानी मकसद में कामयाब होकर रहते हैं।
और जो उनसे अपना मुँह फेर लेते हैं उनके लिए फिर काम का बनना वैसे ही मुश्किल हो जाता है जैसे कमान से निकले हुए तीर का वापस आना कठिन है।