कबीर दास के दोहे अर्थ सहित, जीवन परिचय | kabir ke dohe

कबीर दास के दोहे

कबीर जी के दोहे हमारी जिंदगी पर आधारित हैं। कबीर जी के दोहे हमें भक्तिपूर्ण जिंदगी जीने के लिए प्रेरित करते हैं। उनका एक-एक दोहा हमें अपनी जिंदगी में कैसे रहना चाहिए यह समझाता है। उनके दोहे यह भावार्थ करते हैं कि हमें दुख और सुख दोनों में समान रहना चाहिए और भगवान को हमेशा याद करते रहना चाहिए।हमें दुनिया में रहकर भी अंदर से भगवान से जुड़ कर रहना चाहिए। हमारा मन हमेशा प्रभु के चरणों से जुड़ा रहना चाहिए। भगवान से जुड़कर ही हम इस दुनिया में खुशी-खुशी रह सकते हैं।

इस्लाम भाषा में कबीर शब्द का अर्थ महान है। कबीर जी बहुत बड़े अध्यात्मिक महापुरुष थे। कबीर जी ने अपना जीवन साधु बनकर व्यतीत किया।

उन्होंने सारी दुनिया को अपने सत्संग द्वारा भक्ति करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने लोगों को यह समझाया की भक्ति के लिए काम और कर्म करना मत छोड़ो हम काम करते-करते भक्ति करो कर्म करते करते भक्ति करो गृहस्थी में भी हम भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। कबीर जी हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई कभी किसी में भेदभाव नहीं करते थे सभी को एक समान ही समझते थे वह कहते थे कि सभी परमात्मा द्वारा बनाए गए हैं सभी में परमात्मा का अंश है। अपने लेखन द्वारा कबीर दास जी ने भक्ति आंदोलन चलाया ।

कबीर दास का जीवन परिचय (kabir das birth and family )

माता का नाम नीमा
पिता का नाम नीरू
जन्म 1440 ईस्वी
स्थान काशी
मृत्यु 1518 ईस्वी

कबीरदास का जन्म सन 1398 (विक्रमी संवत 1455) जेष्ठ मास की पूर्णिमा का ब्रह्म मुहूर्त काशी( उत्तर प्रदेश) लहरतारा तालाब में शिशु रूप धारण कर एक कमल के फूल पर प्रकट हुए। इसके प्रत्यक्ष दृष्टा(eyewitness) थे ऋषि अष्ट आनंद जी।

इस तरह के दृश्य को देखकर ऋषि जी सोचते हैं कि आज मैंने यह कैसा दृश्य देखा है यह मेरी भर्ती की उपलब्धि है या मेरा भ्रम ही है। इस प्रकार वह अपने मन के संशय को मिटाने के लिए अपने गुरुदेव के पास गए।

ऋषि अष्टानंद जी के गुरु थे गुरु रामानंद जी जो भगवान विष्णु के महान उपासक थे। उनके हजार से ज्यादा शिष्य प्रचारक थे जो वैष्णव धर्म का प्रचार करते थे।

ऋषि अष्टानंद जी अपने गुरुदेव के पास पहुंचे और उनको प्रणाम किया। प्रणाम करके उन्होंने अपने गुरुदेव से कहा कि गुरुदेव आज मैंने एक आश्चर्यचकित दृश्य देखा है जिससे मेरे मन में शंका उत्पन्न हो गई है कृपया मेरी शंका का निवारण कीजिए।

उनके गुरुदेव ने कहा कहो क्या बात है ?

ऋषि अष्टानंद जी बोले हैं गुरुदेव आज जब मैं साधना कर रहा था तो एक प्रकाश आकाश से नीचे की ओर आते दिखाई दिया । जिससे मेरे नेत्र सहन नहीं कर पा रहे थे और बंद हो गए। थोड़ी देर बाद मेरे आंखों के सामने एक नवजात शिशु का प्रतिबिंब बन गया। पुणे जब मैंने आंखें खोली तो अकाश तालाब के सामने सीमटता हुआ दिखाई दे रहा था।

हे गुरुदेव कृपया अब मेरी शंका का निवारण कीजिए। उनके गुरुदेव रामानंद जी बोले इस तरह की लीलाएं या घटनाएं तब होती है जब ऊपर के लोकों से कोई देव पुरुष पृथ्वी पर अवतार धारण करने के लिए आते हैं। फिर किसी स्त्री के घर में निवास करते हैं और बालक रूप धारण करके लीला करते हुए अपना लक्ष्य पूरा करते हैं

अब जो काशी में जन्म लेकर अपना प्रारब्ध पूरा करेगा। इस प्रकार गुरु रामानंद जी ने ऋषि अष्टानंद जी के संशय का निवारण किया।

कबीर दास का जन्म सन् 1440 ईस्वी में उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में हुआ था।

वहीं दूसरी ओर काशी में नीरू नीमा नाम के मुसलमान दंपति रहते थे। नीरू का पूरा नाम गौरी शंकर और नीमा का नाम सरस्वती था। उनकी कोई संतान नहीं थी। वें दोनों भगवान शिव के भक्ति किया करते थे और प्रतिदिन शिवपुराण सुबह शाम पढ़ा करते थे।

भगवान शिव की प्रगाढ़ भक्ति देखकर मुस्लिम लोगों ने उनको जबरदस्ती मुसलमान बना दिया। मुस्लिम बनने के कारण हिंदू लोगों ने उनका कथा करना और गंगा नदी पर स्नान करना बंद करवा दिया।

इस प्रकार नीरू और नीमा रोजाना लहरतारा तालाब पर स्नान करने के लिए जाने लगे। भले ही उनको मुसलमान बना दिया गया था परंतु फिर भी उनके अंदर भगवान शिव के प्रति अटूट श्रद्धा और भक्ति थी।

नीरू और नीमा स्नान करने के लिए जा रहे थे तो वह संतान ना होने के कारण बहुत व्याकुल थे आपस में चर्चा करते करते नीरू और नीमा लहरतारा तालाब में पहुंचे। पहले नीमा स्नान करके आती है और बाद में नीरू स्नान करने जाता है। स्नान करने के बाद नीमा तलाब में पहले वाले वस्त्र धोने लगती है। वस्त्र धोते-धोते उसकी दृष्टि एक कमल के फूल पर पड़ती है जहां एक छोटा सा शिशु रो रहा होता है।

फिर वह नीरू को आवाज देकर बुलाती है दोनों आश्चर्यचकित रह जाते हैं और सोचते हैं यह बालक कहां से आया है और किसका है फिर बहुत सोच विचार करने के बाद वह दोनों उस बालक को अपने साथ ले जाते हैं। फिर नीरू और नीमा ने उस बालक का नाम कबीर रखा।

वह शिशु बहुत आकर्षक और मनमोहक था सभी का मन उसको देखने के लिए ललायत होता रहता था। जो भी एक बार शिशु को देख लेता था वह बार-बार देखने आता था।

कबीर दास का व्यक्तिगत जीवन ( kabir das personal life)

कबीरदास जी एक दिव्य अवतारी विभूति थे। वो ज्यादातर भगवान की साधना में ही लीन रहते थे। कई व्याख्याकारों के अनुसार कबीर जी विवाहित नहीं थे उन्होंने अविवाहित ही जीवन व्यतीत किया है परंतु कुछ व्याख्याकार यह कहते हैं कि कबीर जी शादीशुदा है और उनकी पत्नी का नाम धारिया, पुत्र का नाम कमल और पुत्री का नाम कमली था।

कबीर दास की गुरु भक्ति(kabir das guru)

संत कबीर दास जी के गुरु रामानंद जी थे। बचपन से ही कबीर दास जी रामानंद जी के शिष्य बन गए थे। यह माना जाता है कि रामानंद जी कबीर दास जी को अपना अपने शिष्य के रूप में स्वीकार नहीं कर रहे थे। फिर कबीर दास जी ने जब जहां रामानंद जी स्नान कर रहे थे तो रामानंद जी ने देखा की कबीरदास तो उनके पांवों के नीचे हैं। ऐसा देखकर रामानंद जी को बहुत ग्लानि हुई। और उन्होंने कबीरदास को अपना शिष्य स्वीकार कर लिया।

कबीर दास जी द्वारा किये गए कार्य (kabir das work)

कबीर दास, भारतीय संत और साहित्यिक थे जो 15वीं और 16वीं सदी में जीवित थे। उन्होंने हिंदी भाषा में अपने दोहों, भजनों और पदों के माध्यम से जनसाधारण को धार्मिक और सामाजिक संदेश प्रदान किए। कबीर दास द्वारा किये गए कार्यों में निम्नलिखित मुख्य हैं:

  1. दोहे: कबीर दास की सबसे प्रसिद्ध रचनाएं उनके दोहे हैं। उन्होंने अद्वैत और समतावाद के अद्वितीय सिद्धांतों को अपने दोहों में व्यक्त किया। ये दोहे उनके सामाजिक और धार्मिक विचारों को जनता के बीच फैलाने में मदद करते हैं।
  2. भजन: कबीर दास ने अनेक भजन लिखे हैं जो उनकी अनुभूति और धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करते हैं। इन भजनों में भगवान, ईश्वर और जीवन के मूल्यों के बारे में चर्चा की जाती है।
  3. पद: कबीर दास के पद उनके धार्मिक और सामाजिक संदेशों को अभिव्यक्ति देते हैं। ये पद जीवन के विभिन्न पहलुओं पर आधारित हैं और अच्छे जीवन और उच्चतम आदर्शों की महत्ता पर बल देते हैं।
  4. सत्याग्रह: कबीर दास के जीवन और कार्यों में सत्याग्रह की महत्ता भी दिखाई देती है। उन्होंने सामाजिक और धार्मिक दुर्गंध के खिलाफ लड़ाई ली और सत्य की रक्षा की।

कबीर दास की रचनाएं और संदेश आज भी महत्वपूर्ण हैं और उन्होंने सामाजिक एकता, भाईचारा और धार्मिक समता को प्रशंसा की है। उनके कार्यों ने संत और समाज सुधारक के रूप में उन्हें विशेष मान्यता प्राप्त की है।

कबीर दास जी की उपलब्धियाँ (kabir das achievements)

कबीर दास जी की उपलब्धियों में उनकी प्रमुख प्रशंसायें उनकी कविताओं और दोहों के लिए हैं, जिन्हें उन्होंने अवधी भाषा में रचा था। उनकी कविताएं और दोहे आज भी बहुत प्रसिद्ध हैं और लोकप्रियता बनाए रखते हैं। इनकी रचनाओं में धार्मिक एवं तात्कालिक समस्याओं पर उनके विचार व्यक्त होते हैं। उनके दोहे में साधारण मानवीय सत्यों, अंतरात्मा और परमात्मा के संबंधों, द्वेष और विरोध के विरुद्ध एकता और समरसता की महत्ता पर विचार मिलते हैं।

कबीर दास जी की उपलब्धियों में उनकी कविताएं और दोहे, उनके संबंधित संग्रह के रूप में प्रकाशित हुए हैं। कुछ प्रसिद्ध संग्रहों में शामिल हैं “बीजक”, “साखी”, “गुरुग्रंथ साहिब” आदि। इनके अतिरिक्त, कई फिल्मों, नाटकों और संगीत संग्रहों में भी कबीर दास जी की कविताएं और दोहे प्रयुक्त हुए हैं।

कबीर दास जी की उपलब्धियों और उनके योगदान के कारण उन्हें एक महान संत और संत कवि के रूप में मान्यता प्राप्त है। उनकी कविताएं और दोहे आज भी लोगों के दिलों और मनोवृत्तियों को छूने का काम करते हैं और उनके विचारों को लोग मार्गदर्शन मानते हैं।

कबीर जी जी की लेखनी बहुत सरल और सुंदर है। कबीर दास जीने 70 रचनाएं लिखी हैं जिनमें ज्यादातर दोहे और भजन हैं जो परमात्मा की भक्ति करने का संदेश देते हैं।

कबीर दास के दोहे

कबीर दास के दोहे

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।

“लाडू लावन लापसी, पूजा चढ़े अपार पूजी पुजारी ले गया, मूरत के मुह छार !!”

“माटी का एक नाग बनाके, पुजे लोग लुगाया जिंदा नाग जब घर मे निकले, ले लाठी धमकाया !!

“पाथर पूजे हरी मिले, तो मै पूजू पहाड़। घर की चक्की कोई न पूजे, जाको पीस खाए संसार ॥”

“जो तूं ब्राह्मण, ब्राह्मणी का जाया । आन बाट काहे नहीं आया !!”

माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे । एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।

ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग । तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ।

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय । बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय ।।

सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज । सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए “

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए । यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए ।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।

मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ।

जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ।

तार गए से एक फल, संत मिले फल चार। सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार |

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए

कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी। एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।

जिनके नौबति बाजती, मँगल बंधते बारि । एके हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥

मैं मैं बड़ी बलाइ है, सके तो निकसो भाजि । कब लग राखी हे सखी, रूई लपेटी आणि ॥

उजला कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाहिं । एके हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥

कहा कियो हम आइ करि, कहा कहेंगे जाइ । इत के भये न उत के, चाले मूल गंवाई ॥

‘कबीर’ नौबत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ । ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखे आइ ॥

पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजों पहार । याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ।।

गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागू पाँय । बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय ॥

निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छावायें। बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात ।

जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप । जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।

जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान । जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ।

ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग। प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।

तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय। सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ।

प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए । राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए ।

जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ।

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे थोथा देई उडाय ।

जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश । जो है जा को भावना सो ताहि के पास ।

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय | जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय।

कबीर के दोहे अर्थ सहित

कबीर गाफील क्यों फिरय, क्या सोता घनघोर तेरे सिराने जाम खड़ा, ज्यों अंधियारे चोर ।

अर्थ- कबीर कहते है की ऐ मनुष्य तुम भ्रम में क्यों भटक रहे हो? तुम गहरी नीन्द में क्यों सो रहे हो? तुम्हारे सिरहाने में मौत खड़ा है जैसे अंधेरे में चोर छिपकर रहता है।

कबीर जीवन कुछ नहीं, खिन खारा खिन मीठ कलहि अलहजा मारिया, आज मसाना ठीठ ।

अर्थ- कबीर कहते है की यह जीवन कुछ नहीं है। इस क्षण मे खारा और तुरत जीवन मीठा हो जाता है। जो योद्धा वीर कल मार रहा था आज वह स्वयं श्मसान में मरा पड़ा है।

कबीर टुक टुक देखता, पल पल गयी बिहाये जीव जनजालय परि रहा, दिया दमामा आये।

अर्थ- कबीर टुकुर टुकुर धूर कर देख रहे है। यह जीवन क्षण क्षण बीतता जा रहा है। प्राणी माया के जंजाल में पड़ा हुआ है और काल ने कूच करने के लिये नगारा पीट दिया है।

कबीर पगरा दूर है, आये पहुचे सांझ जन जन को मन राखती, वेश्या रहि गयी बांझ ।

अर्थ- कबीर कहते है की मुक्ति बहुत दूर है और जीवन की संध्या आ चुकी है। वह प्रत्येक आदमी का मन पूरा कर देती है पर वेश्या स्वयं बांझ ही रह जाती है।

कबीर हरि सो हेत कर, कोरै चित ना लाये बंधियो बारि खटीक के, ता पशु केतिक आये।

अर्थ- कबीर कहते है की प्रभु से प्रेम करो। अपने चित्त में कूड़ा कचरा मत भरों। एक पशु कसाई के द्वार पर बांध दिया गया है-समझो उसकी आयु कितनी शेष बची है।

कबीर सब सुख हरि है, और ही दुख की राशि सा, नर, मुनि, जन, असुर, सुर, परे काल की फांसि ।

अर्थ- केवल प्रभु समस्त सुख देने वाले है। अन्य सभी दुखों के भंडार है। देवता, आदमी, साधु, राक्षस सभी मृत्यु के फांस में पड़े है। मृत्यु किसी को नहीं छोड़ता। हरि ही सुखों के दाता है।

 कागा काय छिपाय के, कियो हंस का भेश चलो हंस घर आपने, लेहु धनी का देश |

अर्थ- कौये ने अपने शरीर को छिपा कर हंस का वेश धारण कर लिया है। ऐ हंसो-अपने घर चलो। परमात्मा के स्थान का शरण लो। वही तुम्हारा मोक्ष होगा ।

काल जीव को ग्रासै, बहुत कहयो समुझाये कहै कबीर मैं क्या करूँ, कोयी नहीं पतियाये ।

अर्थ- मृत्यु जीव को ग्रस लेता है-खा जाता है। यह बात मैंने बहुत समझाकर कही है। कबीर कहते है की अब मैं क्या करु-कोई भी मेरी बात पर विश्वास नहीं करता है।

काल छिछाना है खड़ा, जग पियारे मीत हरि सनेही बाहिरा, क्यों सोबय निहचिंत।

अर्थ- मृत्यु रुपी बाज तुम पर झपटने के लिये खड़ा है। प्यारे मित्रों जागों। परम प्रिय स्नेही भगवान बाहर है। तुम क्यों निश्चिंत सोये हो । भगवान की भक्ति बिना तुम निश्चिंत मत सोओ।

 काल हमारे संग है, कश जीवन की आस दस दिन नाम संभार ले, जब लगि पिंजर सांश ।

अर्थ- मृत्यु सदा हमारे साथ है। इस जीवन की कोई आशा नहीं है। केवल दस दिन प्रभु का नाम सुमिरन करलो जब तक इस शरीर में सांस बचा है।

काल काल सब कोई कहै, काल ना चिन्है कोयी जेती मन की कल्पना, काल कहाबै सोयी।

अर्थ- मृत्यु मृत्यु सब कोई कहते है पर इस मृत्यु को कोई नहीं पहचानता है। जिसके मन में मृत्यु के बारे में जैसी कल्पना है-वही मृत्यु कहलाता है।

कुशल कुशल जो पूछता, जग मे रहा ना कोये जरा मुअई ना भय मुआ, कुशल कहाँ ते होये।

अर्थ- हमेशा एक दूसरे से कुशल-कुशल पूछते हो । जब संसार में कोई नहीं रहा तो कैसा कुशल। बुढ़ापा नहीं मरा,न भय मरा तो कुशल कहाँ से कैसे होगा।

कुशल जो पूछो असल की, आशा लागी होये नाम बिहुना जग मुआ, कुशल कहाँ ते होये ।

अर्थ- यदि तुम वास्तव में कुशल पूछते हो तो जब तक संसार में आशक्ति है प्रभु के नाम सुमिरण और भक्ति के बिना कुशल कैसे संभव है।

काल पाये जग उपजो, काल पाये सब जाये काल पाये सब बिनसि है, काल काल कंह खाये। 

अर्थ- अपने समय पर सृष्टि उत्पन्न होती है। अपने समय पर सब का अंत हो जाता है। समय पर सभी जीचों का विनाश हो जाता है। काल भी काल को मृत्यु भी समय को खा जाता है।

काल फिरै सिर उपरै, हाथों धरी कमान कहै कबीर गहु नाम को, छोर सकल अभिमान।

अर्थ- मृत्यु हाथों में तीर धनुष लेकर सबों के सिर पर चक्कर लगा रही है। समस्त घमंड अभिमान छोड़ कर प्रभु के नाम को पकड़ो-ग्रहण करो-तुम्हारी मुक्ति होगी।

जाता है सो जान दे, तेरी दासी ना जाये दरिया केरे नाव ज्यों, घना मिलेंगे आये।

अर्थ- जो जा रहा है उसे जाने दो-तेरा क्या जा राहा है? जैसे नदी में नाव जा रही है तो फिर बहुत से लोग तुम्हें मिल जायेंगे। आवा गमन-मृत्यु जन्म की चिंता नहीं करनी है।

चहुँ दिस ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हथियार सब ही येह तन देखता, काल ले गया मार।

अर्थ- चारों दिशाओं में वीर हाथों में हथियार लेकर खड़े थे। सब लोग अपने शरीर पर गर्व कर रहे थे परंतु मृत्यु एक ही चोट में शरीर को मार कर ले गये।

चलती चाकी देखि के, दिया कबीरा रोये दो पाटन बिच आये के, साबुत गया ना कोये।

अर्थ- चलती चक्की को देखकर कबीर रोने लगे। चक्की के दो पथ्थरों के बीच कोई भी पिसने से नहीं बच पाया। संसार के जन्म मर रुपी दो चक्को के बीच कोई भी जीवित नही रह सकता है।

गुरु जहाज हम पाबना, गुरु मुख पारि पराय गुरु जहाज जाने बिना, रोबै घट खराय ।

अर्थ- कबीर कहते है की मैंने गुरु रुपी जहाज को प्राप्त कर लिया है। जिसे यह जहाज मिल गया है वह निश्चय इस भव सागर को पार कर जायेगा। जिसे यह गुरु रुपी जहाज नहीं मिला वह किनारे खड़ा रोता रहेगा। गुरु के बिना मोक्ष संभव नहीं है।

घड़ी जो बाजै राज दर, सुनता हैं सब कोये आयु घटये जोवन खिसै, कुशल कहाँ ते होये। 

अर्थ- राज दरवार में घड़ी का घंटा बज रहा है। सभी लोग उसे सुन रहे है। लोगो की आयु कम हो रही है। यौवन भी खिसक रहा है-तब जीवन का कल्याण कैसे होगा।

चाकी चली गुपाल की, सब जग पीसा झार रुरा सब्द कबीर का, डारा पात उखार।

अर्थ- परमात्मा के चलती चक्की में संसार के सभी लोग पिस रहे है। लेकिन कबीर का प्रवचन बहुत ताकतवर है। जो भ्रम और माया के पाट पर्दा को ही उघार देता है और मोह माया से लोगो की रक्षा हो जाती है।

झूठा सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद जगत चबेना काल का, कछु मुथी कछु गोद ।

अर्थ- झूठे सुख को लोग सुख कहते है और मन ही मन प्रसन्न होते है। यह संसार मृत्यु का चवेना है। मृत्यु कुछ को अपनी मुठ्ठी और कुछ को गोद में रख कर लगातार चवा रहा है।

तरुवर पात सों यों कहै, सुनो पात एक बात या घर याही रीति है, एक आवत एक जात ।

अर्थ- बृक्ष पत्तों से कहता है की ऐ पत्तों मेरी एक बात सुनों। इस धर का यही तरीका है की एक आता है और एक जाता है।

धरती करते एक पग, करते समुद्रा फाल हाथो पर्वत तौलते, ते भी खाये काल ।

अर्थ- बामन ने एक कदम में जगत को माप लिया। हनुमान ने एक छलांग में समुद्र को पार कर लिया। कृष्ण ने एक हाथ पर पहाड़ को तौल लिया लेकिन मृत्यु उन सबोंको भी खा गया।

निश्चल काल गरासही, बहुत कहा समुझाय कहे कबीर मैं का कहुँ, देखत ना पतियाय ।

अर्थ- मृत्यु निश्चय ही सबको निगलेगा-कबीर ने इस तथ्य को बहुत समझाकर कहाँ। वे कहते कहते है की मैं क्या करूँ-लोग आँख से देखने पर भी विश्वास नहीं करते है।

बेटा जाय क्या हुआ, कहा बजाबै थाल आवन जावन हवै रहा, ज्यों किरी का नाल।

अर्थ- पुत्र के जन्म से क्या हुआ? थाली पीट कर खुशी क्यों मना रहे हो? इस जगत में आना जाना लगा ही रहता है जैसे की एक नाली का कीड़ा पंक्ति बद्ध हो कर आजा जाता रहता है।

कबीर दुनिया से दोस्ती, होये भक्ति मह भंग एंका ऐकी हरि सो, कै साधुन के संग।

अर्थ- कबीर का कहना है की दुनिया के लोगों से मित्रता करने पर भक्ति में बाधा होती है। या तो अकेले में प्रभु का सुमिरन करो या संतो की संगति करो।

कबीर पशु पैसा ना गहै, ना पहिरै पैजार ना कछु राखै सुबह को, मिलय ना सिरजनहार।

अर्थ- कबीर कहते है की पशु अपने पास पैसा रुपया नही रखता है और न ही जूते पहनता है। वह दूसरे दिन प्रातः काल के लिये भी कुछ नहीं बचा कर रखता है। फिर भी उसे सृजन हार प्रभु नहीं मिलते है। वाहय त्याग के साथ विवेक भी आवश्यक है।

कबीर माया पापिनी, फंद ले बैठी हाट सब जग तो फंदे परा, गया कबीरा काट।

अर्थ- कबीर कहते है की समस्त माया मोह पापिनी है। वे अनेक फंदा जाल लेकर बाजार में बैठी है। समस्त संसार इस फांस में पड़ा है पर कबीर इसे काट चुके है।

कबीर माया डाकिनी, सब काहु को खाये दांत उपारुन पापिनी, संनतो नियरे जाये।

अर्थ- कबीर कहते है की माया डाकू के समान है जो सबको खा जाता है। इसके दांत उखार दो। यह संतो के निकट जाने से ही संभव होगा। संतो की संगति से माया दूर होते है।

कबीर माया पापिनी, हरि सो करै हराम मुख कदियाली, कुबुधि की, कहा ना देयी नाम |

अर्थ- कबीर कहते है की माया पापिनी है। यह हमें परमात्मा से दूर कर देती है । यक मुंह को भ्रष्ट कर के हरि का नाम नहीं कहने देती है ।

कबीर माया बेसबा, दोनु की ऐक जात आबत को आदर करै, जात ना पुछै बात।

अर्थ- कबीर कहते है की माया और वेश्याकी एक जाति है। आने वालो का वह आदर करती है, पर जाने वालों से बात तक नहीं पूछती है।

कबीर माया मोहिनी, जैसे मीठी खांर सदगुरु की कृपा भैयी, नाटेर करती भांर ।

अर्थ- कबीर कहते है की समस्त माया और भ्रम चीनी के मिठास की तरह आकर्षक होती है। प्रभु की कृपा है की उसने मुझे बरबाद होने से बचा लिया।

कबीर माया रुखरी, दो फल की दातार खाबत खर्चत मुक्ति भय, संचत नरक दुआर |

अर्थ- कबीर का कथन है की माया एक बृक्ष की तरह है जो दो प्रकार का फल देती है। यदि माया को अच्छे कार्यों में खर्च किया जाये तो मुक्ति है पर यह संचय करने वाले को नरक के द्वार ले जाती है।

कबीर या संसार की, झुठी माया मोह तिहि घर जिता बाघबना, तिहि घर तेता दोह।

अर्थ- कबीर कहते है की यह संसार का माया मोह झूठा है। जिस घर में जितना धन संपदा एवं रंग रेलियाँ है-वहाँ उतना ही अधिक दुख और तकलीफ है।

गुरु को चेला बिश दे, जो गठि होये दाम पूत पिता को मारसी ये माया को काम।

अर्थ- यदि शिष्य के पास पैसा हो तो वह गुरु को भी जहर दे सकता है। पुत्र पिता की हत्या कर सकता है। यही माया की करनी है।

खान खर्च बहु अंतरा, मन मे देखु विचार ऐक खबाबै साधु को, ऐक मिलाबै छार ।

अर्थ- खाने और खर्च करनक में बहुत अंतर है। इसे मन में विचार कर देखो। एक आदमी संतों को खिलाता है और दुसरा उसे राख में फ़ेंक देता है। संत को खिलाकर परोपकार करता है और मांस मदिरा पर खर्च कर के धन का नाश करता है।

मन तो माया उपजय, माया तिरगुन रुप पांच तत्व के मेल मे, बंधय सकल स्वरुप।

अर्थ- माया मन में उतपन्न होता है। इसके तीन रुप है-सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण। यह पांच तत्वों इंद्रियों के मेल से संपूर्ण बिश्व को आसक्त कर लिया है।

माया गया जीव सब,ठारी रहै कर जोरि जिन सिरजय जल बूंद सो, तासो बैठा तोरि ।

अर्थ- प्रत्येक प्राणी माया के सम्मुख हाथ जोड़ कर खरे है पर सृजन हार परमात्मा जिस ने जल के एक बूंद से सबों की सृष्टि की है उस से हमने अपना सब संबंध तोड़ लिया है।

माया चार प्रकार की, ऐक बिलसै एक खाये एक मिलाबै हरि को, ऐक नरक लै जाये।

अर्थ- माया चार किस्म की होती है। एक तातकालिक आनंद देती है। दूसरा खा कर घोंट जाती है। एक हरि से संबंध बनाती है और एक सीधे नरक ले जाती है।

माया का सुख चार दिन, काहै तु गहे गमार सपने पायो राज धन, जात ना लागे बार।

अर्थ- माया मोह का सुख चार दिनों का है। रे मूर्ख-तुम इस में तम पड़ो। जिस प्रकार स्वपन में प्राप्त राज्य धन को जाते दिन नहीं लगते है।

माया जुगाबै कौन गुन, अंत ना आबै काज सो हरि नाम जोगबहु, भये परमारथ साज ।

अर्थ- माया जमा करने से कोई लाभ नहीं। इससे अंत समय में कोई काम नहीं होता है। केवल हरि नाम का संग्रह करो तो तुम्हारी मुक्ति सज संवर जायेगी।

माया दासी संत की, साकट की सिर ताज साकट की सिर मानिनि, संतो सहेली लाज।

अर्थ- माया संतों की दासी और संसारीयों के सिर का ताज होती है। यह संसारी लोगों को खूब नचाती है लेकिन संतो के मित्र और लाज बचाने वाली होती है।

आंधी आयी ज्ञान की, ढ़ाहि भरम की भीति माया टाटी उर गयी, लागी हरि सो प्रीति।

अर्थ- जब ज्ञान की आंधी आती है तो भ्रम की दीवाल ढ़ह जाती है। माया रुपी पर्दा उड़ जाती है और प्रभु से प्रेम का संबंध जुड़ जाता है।

कागत लिखै सो कागदी, को व्यहारि जीव आतम द्रिष्टि कहां लिखे, जित देखो तित पीव ।

अर्थ- कागज में लिखा शास्त्रों की बात महज दस्तावेज है । वह जीव का व्यवहारिक अनुभव नही है । आत्म दृष्टि से प्राप्त व्यक्तिगत अनुभव कहीं लिखा नहीं रहता है। हम तो जहाँ भी देखते है अपने प्यारे परमात्मा को ही पाते हैं।

कबीर दास जयंती

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