ईमानदारी – सुख की कल्पना क्या है ?

ईमानदारी

ईमानदारी – सुख की कल्पना क्या है, इसका एक उदाहरण देकर स्पष्ट करूंगा।

राजा जनक के गुरु थे याज्ञवल्क्य। उनकी दो पत्नियां थीं कात्यायनी और मैत्रेयी। उनके पास अथाह धन था, वैभव था, मान-सम्मान था और वे सर्व-समृद्धि से सम्पन्न थे । याज्ञवल्क्य के मन में विचार आया कि मुझे संन्यास लेना है। उन्होंने दोनों पत्नियों को बुलाया और कहा, “मैं संन्यास लेने जा रहा हूँ।

धन-सम्पत्ति, जो कुछ मेरे पास है, वह मैं आप दोनों में बांट देना चाहता हूँ।” कात्यायनी ने तुरंत हां कर दी। मैत्रेयी ने सोचा- हमारे पतिदेव के पास सब कुछ है। इतनी मान-प्रतिष्ठा होने के पश्चात् भी वे संन्यास क्यों लेना चाहते हैं। क्या इससे भी बड़ी कोई चीज है, जिसके लिए ये सब कुछ छोड़कर जाना चाहते हैं! यह सब सोचने के बाद उसने कहा, “मुझे इसमें से कुछ भी नहीं चाहिए।

मुझे ऐसा लगता है कि जिसके लिए आप जा रहे हैं, उसके आगे ये सारी चीजें हेय हैं। तभी इनको छोड़कर आप जा रहे हैं। मुझे आपके साथ जाना है। यह सब कात्यायनी को दे दीजिए।”

अब बताइए – खुशी, प्रसन्नता आनन्द किसमें है? क्या धन-वैभव में है या त्याग में ?

हम सब संसारी हैं। हर समय हमें कुछ चाहिए । कोई क्षण ऐसा नहीं, जिसमें कोई मांग न हो। आजकल तो यह रिवाज हो गया है कि ईश्वर से भी शर्त रखकर मांगते हैं कि मुझे बेटा दे दो, मुझे गाड़ी दे दो, मुझे एक और महल खड़ा करके दे दो तो मैं तुम्हें यह दूँगा।

यह शर्त है ईश्वर से मांगने की। ईश्वर की कल्पना कीजिए वह तो पूर्ण आनंद है। उसके पास आनंद ही आनंद है। फिर उससे आनंद के बजाए कुछ और ऐसी चीज क्यों मांगी जाए जो दुःख देने वाली है अर्थात धन-संपत्ति आदि क्योंकि ये सब सुख के कारण नहीं हैं।

ईश्वर दुःख कैसे देगा ! दुःख तो उसके पास है ही नहीं। उससे तो केवल आनंद मिल सकता है। यह वह आनन्द है, जिसके लिए संन्यास लिया जाता है, जिसके लिए याज्ञवल्क्य सब कुछ देकर चल पड़े।

यह तभी संभव है, जब हमारी निष्ठा, श्रद्धा या आस्था होगी। जिसमें आस्था, श्रद्धा व विश्वास नहीं है, वह भटकता है, उसको कुछ मिलने वाला नहीं है। इसलिए

यदि कुछ प्राप्त करना है तो आवश्यक है कि जिससे लेने की इच्छा है, उसके प्रति पूर्ण निष्ठा और आस्था हो, अन्यथा आनंद प्राप्त होने वाला नहीं। ईश्वर से पहली बात तो यह है कि मांगना नहीं ।

उसको पता है कि किसको क्या देना है। अगर कुछ मांगना ही है तो केवल एक चीज मांगने वाली है, वह है सद्बुद्धि ।

मांगों कि हे परमात्मा ! मेरी बुद्धि ठीक रखना । बस, मुझे कुछ नहीं चाहिए । अगर मेरी बुद्धि ठीक होगी तो मुझे किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं होगा। मेरी सोच गलत हो गई तो भले ही मैं कुछ भी करता रहूं, मुझे आनंद नहीं मिल सकता।

प्रभु मानव को संसार में भेजता है तो सब कुछ तय करके भेजता है। शक करने की कोई बात नहीं है। उसका कार्यक्रम निर्धारित है। यह योजनाबद्ध तरीके से चलता है। इतनी बड़ी सृष्टि का संचालन बिना योजना के करता है। क्या !

एक बार मैंने पहले कहा था कि सभी केन्द्र प्रमुख अपना आसन पीछे लगाएंगे और अपने स्थान पर किसी दूसरे केन्द्र – प्रमुख को खड़ा कर देंगे। क्या मैंने यह किया?

क्या मैंने सूचना की अवहेलना की या सूचना का पालन किया? क्या योग संस्थान के आदेश का शत-प्रतिशत अनुपालन किया?

क्या मैं यह मानने के लिए आज तैयार हूँ या कोई न कोई बहाना ढूंढता हूं बचने का । काम करना नहीं चाहता- इसलिए कोई कारण बताता हूं कि मैं इसलिए नहीं करता।

क्या मैं गलत तरीके से अपनी तसल्ली करता हूं? अधिकारी को गलत बताने की कोशिश करता हूं ?

विचार करो मेरा जीवन कैसा है? क्या मैं प्रामाणिकता के साथ कहता हूं कि मैं ऐसा कार्य करने में असमर्थ हूँ, मुझे बदल दिया जाए? मैंने जिस केन्द्र प्रमुख को तैयार कर दिया है, उसको मेरे स्थान पर केन्द्र – प्रमुख बना दो । भले ही केन्द्र की संख्या दस है, पर मुझे अधिकारी बना दो। क्या मैंने अपने आपको अर्पण किया है? क्या मैं अपना स्थान छोड़ने के लिए तत्पर हूँ?

मैं जिला प्रधान / जिला मंत्री हूं। क्या मैं अपने उत्तरदायित्व को निभा रहा हूँ या समय व्यतीत कर रहा हूँ? यदि समय व्यतीत कर रहा हूँ तो यह ईमानदारी नहीं हैं। उसे तुरंत स्थान छोड़ देना चाहिए और यह कहे कि मेरे स्थान पर इसको बना दिया जाए। यह है – समर्पण

यह रीढ़ का काम है कि अपने स्थान पर रहते हुए कोई न्यूनता न आने दे। यदि वह इस प्रकार व्यवहार करता है तो समझना चाहिए कि उसे संस्थान के प्रति निष्ठा है। यदि वह इधर-उधर भटकता है, कभी एक जगह तो कभी दूसरी जगह भागता है तो वह एकनिष्ठ नहीं है। वह साधना नहीं करता। साधना प्रमुख है। जो साधना करेगा, उसे भागने की जरूरत नहीं है।

केन्द्र प्रमुख संस्थान की रीढ़ है। अधिकारी उससे भी अधिक कार्य करता है। इसलिए वह अधिकारी है।

योग एकाकी अभ्यास है, सामूहिक नहीं है। योग की साधना के लिए मुझे अलग से बैठकर, एकांत में बैठकर, दत्तचित होकर अभ्यास करना होगा। तभी समझना होगा कि मैंने अभ्यास किया है।

इसके लिए आज के बाद आप में से प्रत्येक कार्यकर्ता पांच मिनट रोज रात को सोने से पहले अपने बारे में विचार करने के लिए बैठेगा। उन पांच मिनटों के अंदर उसे विचार करना है कि क्या मैं संस्थान की रीढ़ हूँ? रीढ़ का जो कार्य है, क्या मैं वह कार्य कर रहा हूँ? रीढ़ में सारे शरीर को सुचारू रूप से चलाने की सामर्थ्य है।

रीढ़ झुक गई, रीढ़ में बीमारी आ गई तो आप यह समझिए कि शरीर गिरेगा।

आत्म-चिंतन कीजिए: ईमानदारी से…..

(1) क्या मैं प्रामाणिक हूँ ? क्या ईमानदारी से अपने काम को निभा रहा हूँ या जैसे-तैसे दिन निकाल रहा हूँ? क्या मैं काम के प्रति ईमानदारी बरतता हूँ?

(2) मैंने आज जो व्यवहार किया है, उसमें क्या-क्या कमी रह गई, कल तो यह नहीं होगी ?

विचार करिए – आप उस रीढ़ का उत्तरदायित्व निभा रहे हैं या नहीं। अगर मैं केन्द्र प्रमुख हूँ तो क्या केन्द्र पर समय से पन्द्रह मिनट पहले जाता हूँ? क्या मैं उसके पश्चात् और रुकता हूँ? क्या मैं उसके पश्चात् साधकों के घरों में मिलने के लिए जाता हूँ ? ये सब केन्द्र प्रमुख के काम हैं। क्या मैं योग संस्थान के प्रति उत्तरदायित्व को ईमानदारी से निभा रहा हूँ?

आज का विषय ईमानदारी है। क्या मैंने किसी अधिकारी से गलत बात कही है या झूठ बोल दिया है? क्या मैंने अन्य काम के लिए झूठ बोल दिया? यदि मेरा अधिकारी कहता है कि केन्द्र को छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर जाना है और वहां पर जाकर केन्द्र चलाना है। तो क्या मैंने अपने स्थान पर अन्य व्यक्ति को तैयार कर रखा है?

साधना के पश्चात् अपने स्वरूप में अवस्था की क्षमता आती है। भागता कौन है जो साधना नहीं करता । साधना करने के पश्चात् इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं है और वह भटकेगा भी नहीं।

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