अटल बिहारी वाजपेयी कविता
श्री अटल बिहारी वाजपेयी मूलतः कवि थे। जीवन के आरम्भिक वर्षों में उन्हें अपने घर का जो साहित्य-सौरभमय वातावरण मिला उससे उनके कोमल मन में नयी भाव-भंगिमाओं का उन्मेश हुआ।
उनके बाल-मन में विश्व की एक विराट कल्पना; भारतीय जन-जीवन-समाज की सार्थक सोच जागी थी, जिसका विकसित रूप उनके महान व्यक्तित्व में साफ देखने को मिलता है। अपनी सार्थक सोच, लोकपरक भावनाओं, तीव्र तीक्ष्ण बुद्धि-विवेक, दया, क्षमा, करुणा, सहानुभूति, प्रेम, उदारता, त्याग-निष्ठा के कारण वे विश्व की विशेष विभूतियों में से एक थे।
उनके अक्षय व्यक्तित्व का विशिष्ट पक्ष है- स्वहित से ऊपर उठकर सर्वहित की चिन्ता, विश्व बन्धुत्व की भावना । वे हिन्दी के गौरव हैं। हिन्दी उनकी नस-नाड़ियों में प्रवाहित है। उनका तन-मन हिन्दीमय है। यही कारण है कि उनके व्यक्तित्व से प्रखर प्रतिभा की दीप्त किरणें फूटती थी।
वाजपेयी जी का कवि सचेत सतर्क थे । वे बचपन से ही तुकान्त रचनाएँ करने लगे थे। किन्तु वास्तविक अर्थ में 1942 में उसका निखार हुआ। साढ़े पाँच दशक से भी कुछ अधिक अवधि तक उन्होंने जीवन के अमूल्य क्षणों को हिन्दी काव्य-रचना को दिये।
उनकी रचनाओं में विचारों की ताजगी और भावों की गंभीरता है। ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्तित्व ही साहित्य को प्रतिष्ठित करते हैं- साहित्य उनसे गौरवान्वित होता है। यदि व्यक्तित्व कमल पुष्प-सा खिला हो तो उसका महत्त्व स्वतः स्थापित होता है।
अटल जी सीधे-सच्चे साफ इंसान थे। यही सीधी-सच्ची-साफ इंसानियत उनकी कविताओं में भी झलकती है। उनके सरल-सहज – निश्छल व्यक्तित्व-सा उनका काव्य साफ-सुथरा सुबोधपरक है।
कहते हैं, फूल मुरझा जाने पर भी अपनी महक नहीं छोड़ता। वाजपेयी की कविताएँ वर्षों बाद भी अपनी नवीनता से जन-मन को उद्बोधित करती हैं। अगर अटल जी फूल की तरह कोमल मन वाले थे तो लौह-शलाका की तरह कठोर भी हैं।
उनकी कविताओं में इन दोनों रूपों की अद्भुत अभिव्यक्ति मिलती है। वे कुशल राजनीतिज्ञ होने के साथ लोक- कवि, जनपक्षधर, प्रखर चिन्तक व क्रांतिकारी विचारक थे। उनकी वाणी में माँ सरस्वती विराजमान रहती थी। उनकी करनी कथनी में कोई अन्तर नही था।
जन-जीवन के संघर्षों को उन्होंने सदैव सार्थक वाणी दी है। राष्ट्रधर्म, राजधर्म, लोकधर्म और जीवन-कर्म- उनके व्यक्तित्व में समाए हुए थे।
गीत, छन्दोबद्ध एवं मुक्त-छन्द में रची उनकी रचनाएँ एक ओर समाज की गहरी संवेदनाओं को व्यंजित करती हैं तो दूसरी ओर प्रकृति-परिवेश के कुछ जीवन्त अक्स भी उपस्थित करती हैं। उनमें भावों की सहजता, सुबोधता, वैचारिकता थी।
उनकी कविताओं का आस्वादन रसवादियों ने किया किन्तु असली अर्थ में उसकी गुणात्मकता पर सम्यक विचार शायद अभी तक नहीं किया गया है। उनकी कविता कल्पनालोक से परे यथार्थ के धरातल पर मजबूती से अपनी पहचान बनाने में सक्षम है।
वाजपेयी की कविता उदार भारतीय राष्ट्रीय कविताओं की एक श्रेष्ठ धरोहर है।
कविता के बारे में अभी तक जो सामान्य अवधारणा है वह है, ‘काव्य, कवि के हृदय का गान है। उसकी बुद्धि का सौन्दर्य है।’- (राम नरेश त्रिपाठी)।
रामधारी सिंह ‘दिनकर ‘ ने लिखा है, ‘कविता, प्रकाश और अन्धकार की वह संधि-रेखा है, जहाँ पहुँचकर मानव का मन परिचित विश्व को छोड़कर अपरिचित जगत से परिचय-लाभ उठाता है।” कविता भावना की सार्थक अभिव्यक्ति है।
डॉ. जानसन का अभिमत है, ‘कविता वह कला है जिसमें कल्पना शक्ति विवेक की सहायक होकर सत्य और आनन्द का परस्पर सम्मिश्रण करती है और उसका सार आविष्कार करती है।
कवि का इतर प्राणियों से अलग मानते हुए शैले ने लिखा है, ‘वह (कवि) सन्त होता है, पैगम्बर होता है और समाज का सहज नीति नियामक होता है।
कवि छाया का अनुकरण नहीं करता। यह दृश्य जगत जिस आदि शक्ति की छाया है, कवि उस शक्ति के सान्निध्य में पहुँच सकता है। इसलिए, कविता किसी विशेष शास्त्र तक सीमित नहीं है, वह दर्शन नीति का समन्वित रूप (भी) है।
उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में जो कविता समाज-सुधार, राष्ट्र-चेतना और नीतिपरक लिखी जाती है, वह औरों से भिन्न सत्य की चमक लिए होती है।
धर्म प्रचार के लिए लिखी जाने वाली कविताओं में काव्य-तत्त्व गौण होता है। उसमें ‘चीपनेस’ होती है। इसी तरह जो कविताएँ मात्र समाज-सुधार या राजनीति से प्रेरित होकर रची जाती हैं, उनमें भी एकांगिता पाई जाती है।
जागरण और प्रेरणा से उद्भूत कम कविताएँ रची गई हैं। ऐसे कवि उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। खैर… सामाजिकता, राष्ट्रीयता, नैतिकता और मानवीय मूल्यों और आदर्श गुणों से युक्त कविताएँ ही जन-मन को सही मायने में आकृष्ट कर सकती हैं।
जन-जागरण, आदर्श, क्रान्ति और चेतना का जो प्रखर स्वर स्वाधीनता- पूर्व उठा उसमें दासता से मुक्ति का प्रबल नाद था। उसमें जनता को झिंझोड़ने की अदम्य शक्ति थी। लोग उसे सुनते-पढ़ते हए झूम उठते थे। मरने-मारने पर उतारू हो जाते थे।
त्याग और बलिदान की भावना से भरकर उत्तेजित, उत्साहित हो उठते थे। दरअसल, उन कविताओं में कोरी कल्पना नहीं, युग-जन-जीवन का यथार्थ था। उन्होंने जन-चेतना के साथ क्रांति का स्वर गुंजाया ।
पर स्वातन्त्र्योत्तर लिखी जाने वाली अधिकांश कविताएँ उस कोटि की नहीं। इनमें भाषिक प्रयोगों का नयापन भले ही है, पर अन्तर्मन को गहराई से स्पर्श करने की शक्ति कम है।
इसलिए ये कविताएँ जिन्दगी को हिलोर कर रोमांटिकता का दुग्ध-उफान ला सकती हैं, युग का प्रतिबिम्वन कर सकती हैं, सम्मोहनशीलता पैदा कर सकती हैं पर लोकप्रिय नहीं हो सकर्ती- कदापि नहीं।
‘भारत भारती’ (मैथिलीशरण गुप्त ) ‘एक धूल की चाह’ (माखनलाल चतुर्वेदी) और ‘जागो फिर एक बार’ (निराला) सी रचनाएँ अब कहाँ है? फिर ‘ अरुण यह मधुमय देश हमारा’ (जयशंकर प्रसाद), ‘हिमालय की पुकार’ (दिनकर), तिरंगा गीत (सोहन लाल द्विवेदी) से गीत कहाँ है? ऐसे, जिन्हें पढ़कर जन-मन झूम उठे।
राष्ट्रीय चेतनापरक गीत का इससे अच्छा उदाहरण नहीं मिल सकता। अटल जी की कुछ कविताएँ इस कोटि की हैं, इसमें सन्देह नहीं। प्रबुद्ध पाठक और सुधी आलोचक ऐसा अनुभव करेंगे।…
कलावादियों ने भी कला और रंग का सपना कविता में देखा था। कुछ हद तक कई मेजर रचनाकारों ने उसे तूलित भी किया। लेकिन अपनी विश्वसनीयता में ये कविताएँ प्रभावहीन- सी बनकर रह गईं। उत्कृष्टता उनमें नहीं आ पाई।
कला में एक शक्ति जरूर होती है कि वह उसे (कविता को) चित्रात्मकता सौंपती है। उसे संगीतमयी बनाती है। हालांकि, कुछ समीक्षकों ने ‘कला को कला के लिए’ ही माना और कुछ ने ‘कला को ‘जीवन’ कहा। मगर, दोनों दशाओं में कला, कला है।
ये कविता के गुण नहीं स्वीकार किए जा सकते। कला से काव्य में सौन्दर्य उत्पन्न होता है, पर सौन्दर्य के लिए कला जरूरी नहीं। कला में सौन्दर्य के आभिर्भाव के प्रश्न को लेकर एक अन्य अवधारणा कलात्मक सौन्दर्य एवं प्रकृतिगत सौन्दर्य की है।
‘सौन्दर्य कला का मूल उत्स एवं आधार प्रकृति भी है। “मेरी इक्यावन कविताएँ की कृति की कविताओं में कलात्मक सौन्दर्य के सूक्ष्म संकेत मिलते हैं। ‘जीवन की डोर, छोर छूने को मचली/ जाड़े की धूप स्वर्ण कलशों से फिसली।’- स्पष्ट है, काव्याभिव्यंजन का मूलाधार भाव है। भाव ही काव्य में सहज सौन्दर्य की सृष्टि करता है।
भावावेग के क्षण अन्यर्थ होते हैं। इन्हीं क्षणों में भाव छन्द का रूप ग्रहण करता है। काव्य में सौन्दर्य का अपना महत्त्व है। इसलिए इसे ‘काव्य की आत्मा’ कहा गया है। यही ‘प्रकृति, मानव, जीवन तथा ललित कलाओं का आनन्ददायक गुण है।’- (डॉ. रामविलास शर्मा ) ।
आज जनता कविताओं में सामाजिक चेतना तलाशती है। धर्म, भाषा अथवा नैतिकता सम्बन्धी गहन विचार चाहती है। जिन पाठकों की बौद्धिक क्षमता विकसित तथा रुचि परिमार्जित और महीन है, वे कविता की गुणात्मकता को बखूबी समझते हैं।
उसकी ध्वनि और निराकार संगीत का आनन्द लेते हैं। अत्याधुनिक समकालीन कविता जनता से दूर हुई है। दोषी कौन है? कविता समसामयिक-सामाजिक बोध का एक सशक्त माध्यम हैं जो विचारों को सामूहिकता देती है।
ऐसी कविता का कोई भविष्य नहीं होता जो किसी वाद से प्रतिबद्ध हो रची जाती है, उसका वर्तमान भले ही चमक भरा हो।
ऊँचाई
ऊँचे पहाड़ पर पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
जमती है सिर्फ बर्फ,
जो कफ़न की तरह सफेद और
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर
अपने भाग्य पर बूँद-बूँद रोती है।
ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस,
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनन्दन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिए आमंत्रण है,
उस पर झण्डे गाड़े जा सकते हैं,
किंतु कोई गौरैया, वहाँ नीड नहीं बना सकती,
न कोई थका-माँदा बटोही,
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।
सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा बँटा,
केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना, मजबूरी है।
आकाश-पाताल की दूरी है।
पहाड़ की महानता नहीं,
ऊँचाई और गहराई में
जो जितना ऊँचा, उतना ही एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ही ढोता है, चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।
जरूरी यह है कि
जिससे मनुष्य
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
औरों से घुले-मिले,
ठूंठ-सा खड़ा न रहे,
किसी को साथ ले ,
किसी के संग चले।
भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगन्ध देता है।
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान को छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें,
किंतु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले ।
न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्रा अकेलेपन का सन्नाटा।
मेरे प्रभु !
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूँ
इतनी रुखाई कभी मत देना
हिरोशिमा की पीड़ा
किसी रात को मेरी नींद अचानक उचट जाती है,
आँख खुल जाती है,
मैं सोचने लगता हूँ कि
जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का किया था:
वे हिरोशिमा-नागासाकी के भीषण नरसंहार के समाचार सुनकर,
रात को सोये कैसे होंगे ?
दाँत में फँसा तिनका, आँख की किरकिरी,
पाँव में चुभा काँटा, आँखों की नींद,
मन का चैन उड़ा देते हैं।
सगे-संबंधी की मृत्यु,
किसी प्रिय का न रहना,
परिचित का उठ जाना,
यहाँ तक कि पालतू पशु का भी विछोह हृदय में इतनी पीड़ा, इतना विषाद भर देता है कि चेष्टा करने पर भी नींद नहीं आती है। करवटें बदलते रात गुजर जाती है।
किंतु जिनके आविष्कार से
वह अंतिम अस्त्र बना
जिसने छः अगस्त उन्नीस सौ पैतालीस की काल रात्रि को
हिरोशिमा-नागासाकी में मृत्यु का ताण्डव कर
दो लाख से अधिक लोगों की बलि ले ली, हजारों को जीवन भर के लिए अपाहिज कर दिया।
क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही, यह अनुभूति हुई कि उनके हाथों जो कुछ हुआ, अच्छा नहीं हुआ ? यदि हुई, तो वक्त उन्हें कटघरे में खड़ा नहीं करेगा, किंतु यदि नहीं हुई तो इतिहास उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा।
मोड़ पर
मुझे दूर का दिखाई देता है, मैं दीवार पर लिखा पढ़ सकता हूँ, मगर हाथ की रेखाएँ नहीं पढ़ पाता।
सीमा के पार भड़कते शोले
मुझे दिखाई देते हैं।
पर पाँवों के इर्द-गिर्द फैली गर्म राख नज़र नहीं आती।
क्या मैं बूढ़ा हो चला हूँ?
हर पचीस दिसम्बर को
जीने की एक नई सीढ़ी चढ़ता हूँ,
नए मोड़ पर
औरों से कम, स्वयं से ज्यादा लड़ता हूँ।
मैं भीड़ को चुप करा देता हूँ, मगर अपने को जवाब नहीं दे पाता, मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर, जब जिरह करता है,
मेरा हलफनामा मेरे ही खिलाफ पेश करता है,
तो मैं मुकदमा हार जाता हूँ, अपनी ही नज़र में गुनहगार बन जाता हूँ।
तब मुझे कुछ दिखाई नहीं देता,
न दूर का, न पास का,
मेरी उम्र अचानक दस साल बढ़ जाती है,
मैं सचमुच बूढ़ा हो जाता हूँ।
स्वतन्त्रता दिवस की पुकार
पन्द्रह अगस्त का दिन कहता-आजादी अभी अधूरी है। सपने सच होने बाकी हैं, रावी की शपथ न पूरी है ।।
जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई। वे अब तक हैं खानाबदोश गम की काली बदली छाई ।।
कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आँधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं ।।
हिन्दू के नाते उनका दुःख सुनते यदि तुम्हें लाज आती । तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती।। .
इन्सान जहाँ बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है।
इस्लाम सिसिकियाँ भरता है, डालर मन में मुस्काता है।। भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाये जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं । ।
लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया । पख्तूनों पर, गिलगित पर है गमगीन गुलामी का साया ।
बस इसीलिए तो कहता हूँ आजादी अभी अधूरी है। कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है ।।
दिन दूर नहीं खण्डित भारत को पुनः अखण्ड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे ।।
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें। जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें ।।
अमर आग है
कोटि-कोटि आकुल हृदयों में
सुलग रही है जो चिनगारी,
अमर आग है, अमर आग है।
उत्तर दिशि में अजित दुर्ग सा,
जागरूक प्रहरी युग-युग का,
मूर्तिमन्त स्थैर्य, धीरता की प्रतिमा सा,
अटल अडिग नगपति विशाल है।
नभ की छाती को छूता सा
कीर्ति पुञ्ज सा,
दिव्य दीपकों के प्रकाश में-
झिल-मिल-झिल-मिल-
ज्योतित माँ का पूज्य भाल है।
कौन कह रहा उसे हिमालय ?
वह तो हिमावृत्त ज्वालागिरि,
अणु-अणु कण-कण, गह्वर-कन्दर,
गुञ्जित ध्वनित कर रहा अब तक
डिम-डिम डमरू का भैरव स्वर ।
गौरीशंकर के गिरि गह्वर
शैल-शिखर, निर्झर, वन-उपवन
तरु-तृण दीपित।
शंकर के तीसरे नयन की-
प्रलय-वह्नि से जगमग ज्योतित ।
क्षण भर ही में
जिसको छू कर,
काम रह गया मुट्ठी भर ।
यही आग ले प्रतिदिन प्राची
अपना अरुण सुहाग सजाती,
और प्रखर दिनकर की,
कंचन काया,
इसी आग में पल कर
निशि-निशि, दिन-दिन,
जल-जल, प्रतिपल,
सृष्टि-प्रलय- पर्यन्त तमावृत
जगती को रास्ता दिखाती।
यही आग ले हिन्दमहासागर को
छाती है धधकाती।
लहर-लहर प्रज्वाल लपट बन
पूर्व-पश्चिमी घाटों को छू
सदियों की हतभाग्य निशा में
सोये शिलाखण्ड सुलगाती।
नयन-नयन में यही आग ले
कण्ठ-कण्ठ में प्रलय-राग ले,
अब तक हिन्दुस्तान जिया है।
इसी आग की दिव्य विभा में,
सप्त-सिंधु के कल कछार पर,
सुर-सरिता की धवल धार
पर तीर-तटों पर,
पर्णकुटी में , पर्णासन पर,
कोटि-कोटि ऋषियों-मुनियों ने
दिव्य ज्ञान का सोम पिया था।
जिसका कुछ उच्छिष्ट मात्र
बर्बर पश्चिम ने,
दया दान सा, निज जीवन को सफल मान कर,
कर पसार कर,
सिर-आँखों पर धार लिया था।
वेद-वेद के मन्त्र-मन्त्र में
मन्त्र-मन्त्र की पंक्ति पंक्ति में
पंक्ति-पंक्ति के शब्द-शब्द में, श
ब्द-शब्द के अक्षर स्वर में,
दिव्य ज्ञान- आलोक प्रदीपित,
सत्यं शिवं सुन्दरं शोभित,
कपिल, कणाद और जैमिनि की
स्वानुभूति का अमर प्रकाशन,
विशद-विवेचन, प्रत्यालोचन,
ब्रह्म, जगत, माया का दर्शन।
कोटि-कोटि कंठों में गूँजा
जो अतिमंगलमय स्वर्गिक स्वर,
अमर राग है, अमर आग है।
कोटि-कोटि आकुल हृदयों में
सुलग रही है जो चिनगारी
अमर आग है, अमर आग है।
यही आग सरयू के तट पर
दशरथ जी के राजमहल में,
घन-समूह में चल चपला सी,
प्रगट हुई प्रज्वलित हुई थी।
दैत्य-दानवों के अधर्म से
पीड़ित पुण्यभूमि का जन-जन,
शंकित मन-मन, त्रसित विप्र,
आकुल मुनिवर-गण,
बोल रही अधर्म की तूती
दुस्तर हुआ धर्म का पालन ।
तब स्वदेश- रक्षार्थ देश का
सोया क्षत्रियत्व जागा था।
राम-रूप में प्रगट हुई यह ज्वाला, जिसने
असुर जलाए
देश बचाया,
वाल्मीकि ने जिसको गाया।
चकाचौंध दुनिया ने देखी
सीता के सतीत्व की ज्वाला,
विश्व चकित रह गया देखकर
नारी की रक्षा-निमित्त जब
नर क्या वानर ने भी अपना,
महाकाल की बलि- वेदी पर,
अगणित हो कर
सस्मित हर्षित शीश चढ़ाया।
यही आग प्रज्वलित हुई थी-
यमुना की आकुल आहों से,
अत्याचार – प्रपीड़ित ब्रज के
अश्रु-सिन्धु में बड़वानल बन।
कौन सह सका माँ का क्रन्दन ?
दीन देवकी ने कारा में,
सुलगाई थी यही आग, जो
कृष्ण-रूप में फूट पड़ी थी।
जिसको छू कर,
माँ के कर की कड़ियाँ,
पग की लड़ियाँ,
चट-चट टूट पड़ी थीं।
पाञ्चजन्य का भैरव स्वर सुन,
तड़प उठा आक्रुद्ध सुदर्शन,
अर्जुन का गाण्डीव भीम की गदा,
धर्म का धर्म डट गया,
अमर भूमि में, समर भूमि में,
धर्म भूमि में, कर्म भूमि में,
गूँज उठी गीता की वाणी,
मंगलमय जन-जन कल्याणी।
अपढ़, अजान विश्व ने पाई
शीश झुका कर एक धरोहर ।
कौन दार्शनिक दे पाया है.
अब तक ऐसा जीवन-दर्शन ?
कालिंदी के कल कछार,
पर कृष्ण-कंठ से गूँजा जो स्वर
अमर राग है, अमर राग है।
कोटि-कोटि आकुल हृदयों में
सुलग रही है जो चिनगारी,
अमर आग है, अमर आग है।
परिचय
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रंग-रंग हिन्दू मेरा परिचय !
मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार-क्षार ।
डमरू की वह प्रलय- ध्वनि हूँ जिसमें नचता भीषण संहार ।
रणचण्डी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत्त हास ।
मैं यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुआँधार ।
फिर अन्तरतम की ज्वाला से, जगती में आग लगा दूँ मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अम्बर, जड, चेतन तो कैसा विस्मय ?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय !
मैं आदि पुरुष, निर्भयता का वरदान लिए आया भू पर ।
पय पी कर सब मरते आये, मैं अमर हुआ लो विष पी कर ।
अधरों की प्यास बुझाई है, पी कर मैंने वह आग प्रखर ।
हो जाती दुनिया भस्मसात् जिसको पल भर में ही छू कर ।
भय से व्याकुल फिर दुनिया ने प्रारम्भ किया मेरा पूजन।
मैं नर, नारायण, नीलकंठ बन गया न इस में कुछ संशय।
हिन्दू, तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय !
मैं अखिल विश्व का गुरु महान् देता विद्या का अमरदान।
मैंने दिखलाया मुक्ति-मार्ग, मैंने सिखलाया ब्रह्मज्ञान ।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर ।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर ?
मेरा स्वर नभ में घहर-घहर, सागर के जल में छह-छहर ।
इस कोने से उस कोने तक कर सकता जगती सौरभमय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रंग-रंग हिन्दू मेरा परिचय ।
मैं तेजपुंज, तमलीन जगत में फैलाया मैंने प्रकाश ।
जगती का रच करके विनाश, कब चाहा है
निज का विकास ? शरणागत की रक्षा की है,
मैंने अपना जीवन दे कर ।
विश्वास नहीं यदि आता तो साक्षी है यह इतिहास अमर ।
यदि आज देहली के खण्डहर, सदियों की निद्रा से जगकर ।
गुंजार उठे ऊँचे स्वर से ‘हिन्दू की जय’ तो क्या विस्मय ?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रंग-रंग हिन्दू मेरा परिचय !
दुनिया के वीराने पथ पर जब-जब नर ने खाई ठोकर ।
दो आसूँ शेष बचा पाया जब-जब मानव सब कुछ खोकर ।
मैं आया तभी द्रवित हो कर मैं आया ज्ञानदीप ले कर ।
भूला भटका मानव पथ पर चल निकला सोते से जग कर ।
पथ के आवर्ती से थक कर, जो बैठ गया आधे पथ पर ।
उस नर को राह दिखाना ही मेरा सदैव का दृढ़ निश्चय ।
हिन्दू तन-मन, हिन्द जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय !
मैंने छाती का लहू पिला पाले विदेश के क्षुधित लाल ।
मुझ को गानव में भेद नहीं, मेरा अन्तस्थल वर विशाल ।
जग के ठुकराए लोगों को, लो मेरे घर का खुला द्वार ।
अपना सब कुछ हूँ लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनागार।
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट ।
यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरीट तो क्या विस्मय ?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय !
मैं वीर पुत्र, मेरी जननी के जगती में जौहर अपार ।
अकबर के पुत्रों से पूछो, क्या याद उन्हें मीनाबजार ?
क्या याद उन्हें चित्तौड़ दुर्ग में जलने वाली आग प्रखर ?
जब हाय सहस्रों माताएँ, तिल-तिल जल कर हो गई अमर ।
वह बुझने वाली आग नहीं, रग-रग में उसे समाए हूँ।
यदि कभी अचानक फूट पड़े, विप्लव लेकर तो क्या विस्मय ?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय !
होकर स्वंतत्र मैंने कब चाहा है कर लूँ जग को गुलाम ?
मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम ।
गोपाल- राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किए?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर-घर में नरसंहार किए?
कोई बतलाए काबुल में जा कर कितनी मस्जिद तोड़ ?
भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय ।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय !
मैं एक बिन्दु, परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दू समाज ।
मेरा इसका सम्बध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज ।
इससे मैंने पाया तन-मन, इससे मैंने पाया जीवन।
मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दूँ सब कुछ इसके अर्पण ।
मैं तो समाज की थाती हूँ, मैं तो समाज का हूँ सेवक ।
मैं तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय ।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय !
उनकी याद करें
जो बरसों तक लड़े जेल में, उनकी याद करें।
जो फाँसी पर चढ़े खेल में, उनकी याद करें।
याद करें काला पानी को, अंग्रेजों की मनमानी को,
कोल्हू में जुट तेल पेरते, सावरकर से बलिदानी को।
याद करें बहरे शासन को, बम से थरति आसन को,
भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु के आत्मोत्सर्ग पावन को।
अन्यायी से लड़ें, दया की मत फरियाद करें। उनकी याद करें।
याद करें हम पुर्तगाल को, जुल्म सितम के तीस साल को,
फौजी बूटों तले क्रांति की सुलगी चिनगारी विशाल को।
याद करें सालाजारों को, जारों के अत्याचारों को,
साइबेरिया के निर्वासित, शिविरों के हाहाकारों को,
स्वतंत्रता के नए समर का शंख निनाद करें।
उनकी याद करें।
बलिदानों की बेला आई, लोकतन्त्र दे रहा दुहाई,
स्वाभिमान से वही जियेगा। जिससे कीमत गई चुकाई ।
मुक्ति माँगती शक्ति संगठित, युक्ति सुसंगत, भक्ति
अकम्पित, कृति तेजस्वी, धृति हिमगिरि-सी
मुक्ति माँगती गति अप्रतिहत ।
अन्तिम विजय सुनिश्चित, पथ में क्यों अवसाद करें ?
उनकी याद करें।