योग या भक्ति – ऐसा नहीं है कि भगवद् गीता ध्यान-योग पद्धति को अस्वीकार करती हो, वह इसे एक प्रमाणिक विधि के रूप में स्वीकार करती है, किन्तु वह यह भी दर्शाती है कि यह विधि इस युग में संभव नहीं है। अतः भगवद् गीता के छठे अध्याय की विषय-वस्तु को श्री कृष्ण तथा अर्जुन ने तुरंत छोड़ दिया। अर्जुन ने आगे पूछा –
“हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है, किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योग-सिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता ?”
अन्य शब्दों में, वह पूछ रहा है कि असफल योगी का क्या होता है, या उस व्यक्ति का क्या होता है जिसने योग करने का प्रयत्न किया हो किन्तु किसी कारणवश रुक गया हो तथा सफल न हुआ हो।
यह कुछ उसी प्रकार है जैसे किसी विद्यार्थी को विद्यालय छोड़ देने के कारण डिग्री प्राप्त न हो पाई हो। गीता में
अन्य स्थान पर श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते है कि तमाम मनुष्यों में से कुछ ही सिद्धि के लिए प्रयास करते हैं तथा उन सिद्धि हेतु प्रयास करने वालों में से कुछ ही सफल हो पाते हैं।
इसलिए अर्जुन इतनी अधिक असफलताओं के विषय में जिज्ञासा कर रहा है। यदि मनुष्य में श्रद्धा भी हो तथा वह योग पद्धति में सिद्धि का प्रयास भी करे तो, अर्जुन कहता है कि, वह सांसारिकता की मानसिकता के कारण सिद्धि पाने में असफल हो सकता है।
कचिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।अप्रतिष्ठा महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ।।
“हे महाबाहु कृष्ण!” अर्जुन आगे कहता है, क्या ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सफलताओं से च्युत नहीं होता और छिन्नभिन्न बादल की भांति विनष्ट नहीं हो जाता जिसके फलस्वरूप उसके लिए किसी लोक में कोई स्थान नहीं रहता ?” (भ. गीता ६.३८) । जब बादल हवा से बिखर गया हो तो वह वापस नहीं जुड़ता ।
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः । त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्त न ह्युपपद्यते ॥
“हे कृष्ण! यही मेरा सन्देह है, और मैं आपसे इसे पूर्णतया दूर करनी की प्रार्थना कर रहा हूँ । आपके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो इस सन्देह को नष्ट कर सके।”
अर्जुन असफल योगी की गति के विषय में यह प्रश्न इसलिए कर रहा है जिससे भविष्य में लोग हतोत्साहित न हो। योगी से अर्जुन का तात्पर्य हठ योगी, ज्ञान-योगी तथा भक्ति-योगी से है, यह नहीं कि ध्यान ही योग का एकमात्र रूप है।
ध्यानी, दार्शनिक तथा भक्त- ये सभी योगी समझे जाने चाहिए। अर्जुन उन सभी हेतु प्रश्न कर रहा है जो सफल आध्यात्मवादी बनना चाहते हो। और श्रीकृष्ण उसका किस प्रकार उत्तर देते हैं?
यहाँ, जैसा कि गीता में अन्यान्य स्थानों पर भी है, श्री कृष्ण को भगवान् कहा गया है। यह प्रभु के अनेकानेक नामों में से एक है।
भगवान् शब्द दर्शाता है कि कृष्ण छः ऐश्वर्यों के स्वामी हैं: उनके पास समस्त सौन्दर्य, समस्त सम्पत्ति, समस्त बल, समस्त यश, समस्त ज्ञान तथा समस्त त्याग है।
जीवात्माएँ इन ऐश्वर्यो में आंशिक रूप से भागीदार बनती हैं। कोई एक परिवार में, एक नगर में, एक देश में या एक लोक में प्रसिद्ध हो सकता है, किन्तु कोई भी श्री कृष्ण की तरह सम्पूर्ण सृष्टि में प्रसिद्ध नहीं है।
संसार के नेतागण कुछ वर्षों के लिए प्रसिद्ध हो सकते हैं, किन्तु भगवान कृष्ण पाँच हजार वर्षों पूर्व प्रकट हुए तथा वे अभी तक पूजित हैं। अतः इन समस्त ऐश्वयों को पूर्ण रूप से रखने वाला ही भगवान समझा जाता है।
भगवद्गीता में कृष्ण अर्जुन से परम पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में बोलते हैं, और इस प्रकार यह समझना चाहिए कि उनके पास पूर्ण ज्ञान है। भगवद्गीता कृष्ण द्वारा सूर्यदेव तथा अर्जुन को प्रदान की गई थी।
क्यों? पूर्ण ज्ञान का अर्थ है कि वे जानने योग्य सब कुछ जानते हैं। यह केवल भगवान् की वृत्ति है। चूंकि कृष्ण सब कुछ जानते हैं, अर्जुन उनसे असफल योगी के भाग्य के विषय में प्रश्न कर रहा है।
अर्जुन के लिए सत्य का अनुसंधान करना संभव नहीं। उसको केवल पूर्ण स्रोत से ज्ञान ग्रहण करना है एवं यही गुरु-शिष्य परंपरा की पद्धति है। कृष्ण पूर्ण हैं, तथा कृष्ण से आया ज्ञान भी पूर्ण है।
यदि अर्जुन इस पूर्ण ज्ञान को ग्रहण करे तथा हम उसे अर्जुन से यथारूप ग्रहण करें तो हम भी पूर्ण ज्ञान प्राप्त करेंगे। और वह ज्ञान क्या है? “श्री भगवान् ने कहा हे पृथापुत्र! कल्याण कार्यों में मिरत योगी का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है।
हे मित्र! भलाई करने वाला कभी बुराई से पराजित नहीं होता।” यहाँ कृष्ण संकेत करते हैं कि योग की पूर्णता का प्रयास करना ही अत्यंत शुभ है। जब कोई इतने शुभ कार्य हेतु प्रयासरत हो तो वह कभी भी पतित नहीं होता ।
वास्तव में अर्जुन एक बहुत ही उपयुक्त तथा बुद्धिमत्तापूर्ण प्रश्न कर रहा है। भक्तिमूलक सेवा से नीचे गिर जाना असाधारण नहीं है।
कभी-कभी कोई नवदीक्षित भक्त विधि-निषेधों का पालन नहीं करता । कभी वह नशे में पड़ जाता है अथवा स्त्री के आकर्षणों में फँस जाता है। योग सिद्धि के मार्ग में ये अवरोध हैं।
किन्तु श्री कृष्ण उत्साहपूर्ण उत्तर देते हैं, क्योंकि वे अर्जुन से कहते हैं कि यदि कोई गम्भीरतापूर्वक आध्यात्मिक ज्ञान का एक प्रतिशत भी पालन करता है तो वह भौतिक भँवर में कभी नहीं गिरेगा।
यह उसके निष्ठावान प्रयास के कारण है। यह सदैव समझते रहना चाहिए कि हम बहुत निर्बल हैं तथा माया बहुत प्रबल है । आध्यात्मिक जीवन ग्रहण करना कमोवेश माया के विरुद्ध युद्ध छेड़ना है।
माया बद्धजीव को अधिक से अधिक फांसने का प्रयत्न कर रही है, और जब बद्ध जीव ज्ञान की आध्यात्मिक प्रगति द्वारा उसके चंगुल से निकलने का प्रयास करता है तो भौतिक प्रकृति यह परिक्षा करने में और भी अधिक कठोर तथा बलवती हो जाती है कि प्रत्याशी आध्यात्मवादी कितना गम्भीर है। भौतिक शक्ति या माया तब अधिक प्रलोभन देती है।
इस संदर्भ में, विश्वामित्र मुनि की कहानी है जो एक महान राजा तथा क्षत्रिय था, जिसने अपने राज्य को त्याग कर और अधिक आध्यात्मिक प्रगति हेतु योग विधि को अपनाया था।
उस समय ध्यान- योग पद्धति का पालन संभव था। विश्वामित्र मुनि ने इतनी घोर तपस्या की कि स्वर्ग के राजा इंद्र ने उसे देखकर सोचा, “यह मनुष्य मेरा पद लेने का प्रयत्न कर रहा है।” देवलोक भी भौतिक है तथा वहाँ भी स्पर्धा है कोई व्यापारी अन्य व्यापारी को अपने से आगे निकलने देना नहीं चाहता।
इस डर से कि कहीं विश्वामित्र मुनि उसे वास्तव में पद-च्युत न कर दें, इंद्र ने मेनका नाम की स्वर्गीय अप्सरा को प्रलोभन देने भेजा । मेनका निश्चय ही अति सुंदर थी, तथा वह मुनि का ध्यान भंग करने को तत्पर थी।
वे उसकी चूड़ियों की खनखनाहट सुनकर उसकी नारीसुलभ उपस्थिति जान गए और उन्होंने तुरन्त ध्यान तोड़ कर सामने देखा, और देखकर वे उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गए।
परिणाम स्वरूप, उन दोनों के मिलन से शकुन्तला नामक सुंदर कन्या का जन्म हुआ। शकुन्तला के जन्म लेने पर विश्वामित्र शोक करने लगे: “अरे मैं तो आध्यात्मिक ज्ञान के पालन का प्रयास कर रहा था, और पुनः मैं फँस गया।”
वे भागने ही वाले थे जब मेनका अपनी सुंदर कन्या को उनके सामने लाई और डाँटने लगी। उसकी विनती के उपरांत भी विश्वामित्र ने जाने का निश्चय कर लिया।
इस प्रकार योग-पथ पर असफलता की प्रत्येक सम्भावना है। विश्वामित्र मुनि जैसा महान ऋषि भी भौतिक प्रलोभन के कारण गिर सकता है।
यद्यपि मुनि कुछ समय के लिए ही गिरे, और तत्पश्चात वे योग विधि का अनुसरण करने को फिर तत्पर हो गए। ऐसा ही हमारा भी निश्चय होना चाहिए। कृष्ण हमें सूचित करते हैं कि ऐसी असफलताओं को निराशा का कारण नहीं बनना चाहिए।
एक प्रसिद्ध कहावत है कि “असफलता ही सफलता का स्तम्भ है।”
विशेषकर आध्यात्मिक जीवन में असफलता निराशादायक नहीं होती। कृष्ण स्पष्ट व्यक्त करते हैं कि यदि असफलता मिले भी तो इस लोक या परलोक में कोई हानि नहीं होती।
आध्यात्मिक संस्कृति के इस शुभ मार्ग को अपनाने वाला कभी भी पूर्णतः ध्वस्त नहीं होता। अब
असफल आध्यात्मवादी का वास्तव में क्या होता है?
इसके बाद में श्री कृष्ण विशेष रूप से बताते हैं :
‘असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या कि धनवानों के कुल में जन्म लेता है अथवा वह ऐसे योगियों के कुल में है। जन्म लेता है जो अति बुद्धिमान हैं। निश्चय ही इस संसार में ऐसा जन्म दुर्लभ है।” (भ. गीता ६.४१-४२)
ब्रह्माण्ड में कई लोक हैं, तथा ऊपरी लोकों में अधिक सुविधाऐं हैं, जीवन की अवधि लम्बी है और वहाँ के वासी अधिक धार्मिक तथा देवी हैं।
चूंकि यह कहा जाता है कि पृथ्वी के छह महीने ऊपरी लोकों में एक दिन (१२ घंटे) के समान होते हैं, असफल योगी इन ऊपरी लोकों में अनेकोनेक वर्षों तक रहता है। वैदिक साहित्य में वर्णित है कि उनकी आयु दस हजार वर्ष की होती है।
अतः यदि कोई असफल भी हो, तो उसे इन ऊपरी लोकों में पदोन्नत कर दिया जाता है। किन्तु व्यक्ति वहाँ हमेशा नहीं रह सकता। जब व्यक्ति के पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो उसे पृथ्वी पर लौटना पड़ता है।
तथापि, इस लोक में लौटने पर भी असफल योगी सोभाग्यशाली परिस्थितियाँ पाता है, क्योंकि वह धनाढ्य परिवार में या पुण्य परिवार में जन्म लेता है।
सामान्यतया, कर्म के सिद्धांत के अनुसार, यदि कोई पुण्य कार्य करे तो उसे अगले जीवन में अत्यंत कुलीन परिवार या अत्यंत धनवान परिवार में जन्म द्वारा पुरस्कृत किया जाता है। अथवा वह महान पंडित बनता है, या बहुत सुंदर पैदा होता है।
किसी भी स्थिति में, जो निष्ठापूर्वक आध्यात्मिक जीवन प्रारंभ करते हैं, उन्हें अगले जीवन में मनुष्य जन्म की केवल मनुष्य जन्म ही नहीं, अपितु अत्यंत पुण्यवान अथवा धनवान परिवार में जन्म गारंटी दी जाती है।
अतएव ऐसा उत्तम जन्म पाने वाले को यह समझना चाहिए कि उसका भाग्य उसकी पूर्व पुण्य कार्यों तथा भगवद्-कृपा कारण है।
ये सुविधाऐं भगवान् द्वारा दी जाती हैं। वे हमें उनको प्राप्त करने के साधन देने को सदैव प्रस्तुत रहते हैं। कृष्ण बस यही देखना चाहते हैं कि हम निष्ठावान हो ।
श्रीमद- भागवतम् में कहा गया है कि प्रत्येक विशिष्ट व्यक्ति का जीवन में अपना कोई कर्त्तव्य होता है, भले ही वह किसी भी स्थिति या किसी भी समाज में क्यों न हो।
फिर भी यदि वह अपने स्वधर्म को छोड़ दे तथा किसी न किसी प्रकार – भावनावश अथवा संगवश अथवा पागलपन में अथवा जैसे भी हो – कृष्ण का आश्रय ले, और यदि अपनी अपरिपक्वता के कारण, वह भक्तिमार्ग से गिर जाये, तो भी उसके लिए कोई हानि नहीं है।
दूसरी ओर, यदि व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों का भलीभांति पालन करता रहे किन्तु भगवान् की और न आए, तो उसे क्या लाभ होगा? उसका जीवन निश्चय ही व्यर्थ है ।
परन्तु कृष्ण तक आनेवाला व्यक्ति योग पद से निचे गिरकर भी अच्छी स्थिति में होता है। कृष्ण आगे कहते हैं कि जन्म लेने हेतु समस्त अच्छे परिवारों में सफल व्यापारियों के परिवार या दार्शनिकों या ध्यानियों के परिवारों में सर्वश्रेष्ठ परिवार योगियों का होता है।
अत्यंत धनी परिवार में जन्म लेने वाला दिग्भ्रमित हो सकता है। अधिक धन प्राप्त मनुष्य के लिए यह सामान्य है कि वह उस सम्पत्ति का भोग करने का प्रयत्न करे, इसलिए धनवानों के पुत्र अधिकतर शराबी या वेश्यागामी बन जाते हैं।
इसी प्रकार, एक पुण्यवान परिवार या ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने वाला अधिकतर घमंडी तथा गर्वीला हो जाता है, सोचता है, “में ब्राह्मण हूँ। में पुण्यवान मनुष्य हूँ।
धनवान तथा पुण्यवान परिवारों में पदच्युत होने की संभावना है, किन्तु जो योगियों या भक्तों के परिवार में जन्म लेता है, उसके लिए अपने भ्रष्ट आध्यात्मिक जीवन को सुधारने की कहीं अधिक संभावना है। कृष्ण अर्जुन को बताते हैं
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धी कुरुनन्दन ।
“हे कुरुनन्दन! ऐसा जन्म पाकर वह अपने पूर्वजन्म की देवी चेतना को पुनः प्राप्त करता है और पूर्ण सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से वह आगे उन्नति करने का प्रयास करता है।” (भ. गीता ६.४३)
योग या भक्ति करने वालों के परिवार में जन्म लेकर, व्यक्ति को अपने पूर्वजन्म में सम्पादित आध्यात्मिक गतिविधियों का स्मरण होता रहता है। जो भी कृष्ण भावना को निष्ठापूर्वक ग्रहण करे, वह साधारण व्यक्ति नहीं है; उसने अवश्य अपने पूर्वजन्म में यही विधि अपनाई होगी। ऐसा क्यों?
पूर्वाभ्यासेन तेनैव हियते ह्यवशोऽपि सः ।
” अपने पूर्वजन्म की देवी चेतना के कारण वह न चाहते हुए भी स्वतः योग के नियमों की ओर आकर्षित होता है ।” भौतिक जगत में, हमें अनुभव है कि हम अपनी संपत्ति को एक जीवन से अगले जीवन में नहीं ले जा सकते। मेरे पास बैंक में करोड़ों रूपए हो सकते हैं, किन्तु मेरे शरीर की समाप्ति के साथ साथ बैंक में शेष बचा मेरा रूपया भी खत्म हो जायेगा।
मृत्यु होने पर, बैंक में शेष बचा हुआ रूपया मेरे साथ नहीं जायेगा, वह बैंक में ही किसी अन्य के द्वारा भोगने हेतु पड़ा रहेगा।
ऐसी परिस्थिति आध्यात्मिक जीवन के साथ नहीं है। यदि आध्यात्मिक स्तर पर बहुत ही कम कार्य संपन्न हुआ हो, तो भी वह व्यक्ति उसे अगले जीवन तक अपने साथ ले जा सकता है, और उसी बिन्दु से पुनः प्रारंभ कर सकता है।
जब व्यक्ति उन ज्ञान को पुनः प्रारंभ करे जिसे रोक दिया गया था, तो उसे यह जानना चाहिए कि अब शेष भाग खत्म करना होगा एवं योग विधि की पूर्ण करना होगा।
व्यक्ति को अगले जन्म में उस विधि को पूर्ण करने का खतरा नहीं उठाना चाहिए अपितु इसी जीवन में उसे पूर्ण करने का प्रण लेना चाहिए। हमें इस प्रकार दृढ होना चाहिए: “किसी न किसी कारणवश अपने पूर्वजन्म में मैनें अपनी आध्यात्मिक प्रगति पूर्ण नहीं की।
अब कृष्ण ने मुझे दूसरा अवसर दिया है, इसलिए मुझे इसे इसी जन्म में पूर्ण करने दो।” अतः इस शरीर को छोड़ने के पश्चात् व्यक्ति को इस भौतिक जगत में पुनः जन्म नहीं लेना पड़ेगा, जहाँ जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि सर्वत्र व्याप्त हैं, बल्कि वह कृष्ण के पास लौट जाये।
कृष्ण के चरणकमलों में आश्रय लेने वाला इस भौतिक जगत को केवल एक संकटमय स्थान के रूप में देखता है। आध्यात्मिक संस्कृति अपनाने वाले के लिए यह भौतिक जगत अनुपयुक्त है। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती कहा करते थे, “यह स्थान सभ्य व्यक्ति के रहने योग्य नहीं है।”
यदि व्यक्ति एक बार कृष्ण के निकट जाये तथा आध्यात्मिक प्रगति करने की चेष्टा करे तो कृष्ण, जो हृदय में स्थित रहते हैं, निर्देश देना आरंभ करते हैं। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि जो उन्हें स्मरण करना चाहता है, उसे वे स्मृति देते हैं तथा जो उन्हें भूल जाना चाहता है, उसे वे भूलने की अनुमति दे देते हैं।