मन के बहकावे से बचो – आनन्द रामायण में प्रसंग आता है-
संसार में भक्ति और माया दोनों साथ-साथ चलती है। काल और दयाल दोनों की शक्तियाँ हर समय काम करती रहती हैं। दयाल का काम सत्य-मार्ग दिखलाना है और काल का काम जीव को गुमराह करना है। दयाल का काम रूह को रोशनी देना है।
काल का काम उसे अंधेरे में गिराना है, जहाँ पर कि रूह जन्म-जन्म तक बंधन में पड़ी रहे। गोसाई तुलसीदास जी के जीवन चरित्र में प्रसंग आता है कि बहुत बड़ी विद्या के धनी होकर भी स्त्री के मोह में पड़कर अपने जीवन का वास्तविक उद्देश्य भुला बैठे।
वास्तव में तो गोसाई तुलसीदास जी एक पवित्र आत्मा थे, परन्तु पूर्व संस्कारवश ऐसी रूहों पर भी कभी- कभी काल का दाँव लग ही जाता है और वह ऐसी पवित्र आत्माओं को भी कुछ समय के लिए अपनी तरफ़ घसीट ले जाता है लेकिन दयाल पुरुष की कृपा से जीत अन्त में सच्चाई की होती है। दयाल की शक्ति कभी अपनी रूहों को नहीं भुलाती। जैसे श्री
रामायण के बालकाण्ड में कथन है—
॥ चौपाई ॥
काल स्वभाव कर्म बरिआई ।
भलेहु प्रकृतिवश चुकई भलाई ॥
सो सुधारि हरिजन इमि लेहीं ।
दलि दुख दोष विमल यश देहीं ॥
(बालकाण्ड)
अर्थात् काल, स्वभाव और कर्मों के आधीन तथा प्रकृति के वश होकर भले पुरुष भी कभी-कभी अपने रास्ते से भटक जाते हैं। परन्तु यह अवस्था उनकी अधिक समय तक नहीं रहती। प्रभु अपने प्रिय भक्तों के दोषों और अवगुणों को साफ करके तुरन्त सुधार लेते हैं और उनको संसार में उज्ज्वल और निर्मल यश देते हैं।
रात्रि में जब तुलसीदास जी बिना सूचना दिए पत्नि के घर पहुँच गए तो उन्हें देखकर तुरंत उसने कहा- हे पतिदेव ! जितना प्रेम तुम हाड़ माँस की मेरी देह से कर रहे हो उतना यदि प्रभु राम से करते तो भवसागर से पार हो जाते।
स्त्री के वचन क्या थे, एक चेतावनी थी जो गोसाई तुलसीदास जी को उनकी स्त्री द्वारा दी जा रही थी, बल्कि यह कहना चाहिए कि प्रेरणा करने वाले प्रभु राम उनकी स्त्री के मुख से बोल रहे थे और मार्ग से भूली-भटकी अपनी प्यारी रूह को अपनी तरफ खींच रहे थे।
मनुष्य के सुधरने का समय जब निकट आता है तो कोई न कोई कारण या संयोग बन जाता है और उसके माध्यम से वह अपने सुधार के मार्ग पर चल पड़ता है। स्त्री के वचनों ने गोसाई जी के दिल पर गहरा प्रभाव दिखाया क्योंकि उनका समय भी प्रभु मिलन का निकट आ चुका था।
पूर्व के शुभ संस्कारों ने तुरंत पलटा खाया। स्त्री, पुत्र, घर और बाहर की प्रीत त्याग कर वैराग्यवान् होकर गूंगे के समान चुपचाप वहाँ से चल दिए और सीथे तीर्थाटन करते हुए प्रभु राम के दर्शन पाने के लिए उपाय खोजने में लग गए और इसमें वे सफल भी हुए।
प्रभु दर्शन कर सच्ची भक्ति का वरदान पाया जिसके प्रभाव से सद्गुरु का मिलन हुआ। सद्गुरु के चरण-कमलों का ध्यान किया, दिव्य दृष्टि प्राप्त की जिसके द्वारा प्रभु राम के गुप्त एवं प्रकट चरित्रों का दर्शन किया। जैसा कि उन्होंने रामचरित मानस के आरंभ में कथन किया
श्री गुरु पदनख मणिगण ज्योति ।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ॥
अर्थात् श्री गुरुदेव के चरणों में मणि-सदृश्य चमकने वाले नाखूनों की ज्योति का ध्यान करने से अंतहृदय में दिव्य-दृष्टि प्रकट हो जाती है। गोसाई तुलसीदास जी ने इन प्रभु राम के चरित्रों को माध्यम बनाकर रामचरित मानस की रचना की तथा प्रभु नाम और प्रभु भक्ति का संचार जन-जन तक किया जो आज तक कलयुगी जीवों के भवपार जाने का जहाज बना हुआ है।
कथा का भाव यह है कि साधक भक्त को सदा मन के बहकावे से सावधान रहना चाहिए। मन तो जीव को सत्य-मार्ग से भटकाने का यत्न करता ही रहता है।
कथा अमृत के झरने की- लोक कथाओं में सुना जाता है कि बादशाह सिकंदर जब संसार पर विजय पाने के लिए भारत में बढ़ता आ रहा था तो मार्ग में एक अलमस्त फ़कीर के त्याग, वैराग्य और निडरता से बड़ा प्रभावित हुआ। उसने उस फ़कीर से प्रार्थना की कि सुना है आपको अमृत के झरने का पता है। मुझे भी कृपा करके उसमें से एक घूंट पिला दीजिए ताकि मेरा जीवन अमर हो जाए।
फ़कीर ने कहा कि हाँ, वह स्थान मुझे ज्ञात है, पर वहाँ पहुँचना बहुत ही कठिन है। पूर्व दिशा में एक दुर्गम पहाड़ी के पार जाना होता है, वहाँ से कई मील दूर जाकर पूर्व दिशा में एक अमृत का झरना है। वहाँ पहुँकर उसमें से आप जितना अमृत पीना चाहो, पी कल्याण मार्ग सकते हो।
सिकंदर ने कहा कि उसके लिए संसार में कुछ भी न कठिन है और न ही दुर्गम वह पहुँचकर ही रहेगा। इस प्रकार पक्का इरादा कर कुछ बहादुर फौज को साथ लेकर चल दिया। फ़कीर के कथनानुसार
सिकंदर वहाँ पहुँच गया। सचमुच झरने को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ।
उत्साह में भरकर जैसे ही वह झरने से अंजलि भरकर जल पीने लगा कि एक कौआ जो समीप ही वृक्ष पर बैठा था, बोल पड़ा- अरे भाई ! सावधान होकर पहले मेरी बात सुनो, उसके बाद ही तुम यह जल ग्रहण करना। वह कहने लगा कि पहले में भी तुम्हारी तरह एक मनुष्य था।
किसी संत के कहने पर मैंने भी इस झरने का जल पी लिया, जिसे पीते ही मैं कौआ बन गया। अब में जीते हुए भी मरने के बराबर हूँ। इसलिए मैं तुम्हें चेतावनी दे रहा है कि इस जल का सेवन कदापि न करना। ऐसा सुनते ही सिकंदर ने जल से भरी अपनी अंजलि वापस झरने में डाल दी और फ़कीर के पास लौट आया।
फ़कीर ने उस से पूछा कि क्या तुम अमृतपान कर आए हो ? उसने कहा कि मैंने अपनी अंजलि जल से भरी ही थी कि एक कौए ने मुझे अपनी हुई दुर्दशा बताते हुए मुझे वह जल पीने से रोक दिया। इस कारण मैंने अपनी अंजलि में लिया हुआ जल वापस झरने में डाल दिया।
फ़कीर ने अफ़सोस करते हुए कहा कि तुम कितने अभागे हो जो तुमने हमारे वचन पर विश्वास न किया और कौए के बहकावे में आकर अमृत सरोवर के पास जाकर भी अमृतपान नहीं किया।
इसी प्रकार ही सन्त सद्गुरु सत्संग रूपी अमृत का सरोवर संसार में स्थापित करते हैं और सब को इसमें डुबकी लगाने तथा अपनी जन्म-जन्म की प्यास बुझाने का उपदेश करते हैं, किंतु कई बार मन रूपी कौवा इसे भ्रम में डालकर इसे अमृतपान से वंचित कर देता है।
सन्तों की वाणी है-
मन के मते सब कोइ खेले, गुरुमुख विरला कोइ ।
दादू मन की माने नहीं, सतगुरु का सिष सोइ ॥
अर्थ- मन की मति के अनुसार तो सभी जीव चल रहे हैं, गुरुमुख अर्थात् गुरु आज्ञा में दृढ़ रहने
वाले विरले ही साधु होते हैं। वास्तव में जो मन की न मानकर गुरु वचन पर चले, वही सच्चा शिष्य होता है। सन्त दादूदयाल जी कहते हैं कि मन तो सभी जीवों को ठग रहा है, मन को कोई विरला ही वश में कर पाता है। अतः कल्याण इसी में है कि गुरु-ज्ञान के द्वारा मन की न मानकर प्रभु-भक्ति में संलग्न रहो।