कैसे श्री जगन्नाथ भगवान श्री वृन्दावन आए -श्री हरिदास बाबाजी

जगन्नाथ भगवान – श्रीहरिदास बाबाजी (वृन्दावन)

श्री जगन्नाथ भगवान

कैसे प्रकट हुए बांकेबिहारी जी

त्रिलोकी में जितने स्थान हैं सब त्रिलोकपति श्री भगवान् के हैं। वे अपने आंशिक परमात्मस्वरूप से सर्वत्र विराजमान हैं। पर उन्हें ब्रजभूमि जितनी प्रिय है उतनी और कोई भूमि प्रिय नहीं है। वे स्वयंरूप से यहाँ सदा विराजमान हैं; पर उनके अन्य रूपों को भी यदि इसका लोभ हो आये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

एक बार, आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व, इसका लोभ जागा श्री धामपुरी के श्रीजगन्नाथजी को। वे वृन्दावन में मनोहर यमुना पुलिनपर वास करने का लोभ संवरण न कर सके। पर वृन्दावन जायें कैसे ? सर्वसमर्थ होते हुए भी वे अपने श्रीविग्रहरूप में अपने भक्तों के जैसे अधीन हैं वैसे और किसी रूप में नहीं। भक्त ही उन्हें जहाँ चाहें ले जायें और जैसे चाहें रखें। उनके प्रेम-सेवा-रस का आस्वादन करने के लिए ही तो अर्चाविग्रह रूप में उनका अवतार है। इस रूप में वे जो भी करना चाहते हैं अपने किसी भक्त को निमित्त बनाकर उसके

सहयोग से ही कर सकते हैं। वृन्दावन तो वे तभी जा सकते थे जब उनका कोई भक्त उन्हें ले जाता और वहाँ उनकी सेवा करने को प्रस्तुत होता। उन्हें ऐसे एक भक्त की खोज थी।

वृन्दावन में हरिदास नाम के रामानन्दी महात्मा यमुनातट पर भजन करते। वे अनुरागी महात्मा थे । दिन-रात प्रभु के चिन्तन में डूबे रहते, उनके विरह में अश्रु विसर्जन किया करते। अन्त में प्रभु ने उन्हें दर्शन दिये। वे उनकी रूप-माधुरी देख अपनी सुध-बुध खो बैठे। उन्हें एकटक निहारते निहारते अचेतन हो गये। तब करुणानिधि ने अपना हस्तकमल उनके मस्तक पर फेर उन्हें चेत कराया। चेतना आते ही उन्होंने अपना सिर उनके चरणों में रख दिया। उन्होंने अपनी अमृतमयी वाणी में कहा-

‘वत्स ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम्हारे निकट रहकर तुम्हारी प्रेममयी सेवा का सुखास्वादन करने को लालायित हूँ। तुम जगन्नाथपुरी जाओ। इस वर्ष आषाढ़ में वहाँ जगन्नाथजी का विग्रह-परिवर्तन होगा। पुराना विग्रह तुम ले आना और इसी स्थल पर उसे स्थापित कर उसकी सेवा करना।’

इतना कह भगवान् अन्तर्धान हो गये। महात्मा उनके अदर्शन से छटपट करने लगे। पर उनकी आज्ञा का स्मरण कर उन्होंने धैर्य धारण किया। वे अपने शिष्यों को साथ ले कीर्तन करते हुए जगन्नाथपुरी की ओर चल पडे। उस समय रेल की सुविधा तो थी नहीं। पैदल ही बीहड़ जङ्गलों में से होते हुए, नदी-नालों और पर्वतों को पार करते हुए जगन्नाथपुरी पहुँचे।

जगन्नाथपुरी में महा-महोत्सव था। चार दिन बाद छत्तीस वर्ष पीछे दो आषाढ़ पड़ने पर जगन्नाथजी का कलेवर बदले जाने का और उनके महाभिषेक का योग था। लाखों यात्री दूर-दूर से आये थे। आनन्द और उल्लास का समुद्र उमड़ रहा था।

हरिदासजी ने जगन्नाथजी के पुजारियों के पास जाकर अपना अभिप्राय व्यक्त किया। उन्होंने कहा- ‘जगन्नाथजी का पुराना कलेवर देने का हमें अधिकार नहीं। आप राजा से मिलें।’

वे राजा के पास गये। राजा ने उनका तेजोमय मुखमण्डल देख उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और आने का कारण पूछा। उन्होंने भगवान् की आज्ञा बताकर उनसे जगन्नाथजी का पुराना विग्रह दिलवाने का आग्रह किया। राजा ने कहा- ‘महाराज ! आपको भगवान् की आज्ञा हुई है, पर मुझे तो ऐसी कोई आज्ञा नहीं। उनकी प्रत्यक्ष आज्ञा के बगैर में सदा से चली आयी रीति का पालन करने को विवश हूँ। सदा से जगन्नाथ जी का नया कलेवर होने पर पुराना कलेवर समुद्र में प्रवाहित किया जाता रहा है। अतः इस बार भी वही करना होगा। आपकी प्रार्थना स्वीकार करना सम्भव नहीं। मुझे क्षमा करें।’

हरिदास जी ने कहा – ‘यदि श्रीविग्रह सागर में प्रवाहित होंगे, तो मेरा शरीर भी उनके साथ प्रवाहित होगा।’ इतना कह वे जा बैठे समुद्र तट पर और अन्न-जल त्यागकर प्रशान्त मन से भगवान् का ध्यान करते हुए प्रतीक्षा करने लगे उस घड़ी की, जब उन्हें जगन्नाथजी के श्रीविग्रह के साथ अपने शरीर को समुद्र में प्रवाहित कर देना था।

अर्धरात्रि में, जब राजा शयन कर रहे थे, जगन्नाथजी ने उनके समक्ष प्रकट होकर मेघगम्भीर स्वर में कहा- ‘वे महात्मा मेरी आज्ञा से मेरा कलेवर माँगने तुम्हारे पास आये थे। तुमने उनका तिरस्कार किया। जाओ, उनसे क्षमा माँगो और उनकी आज्ञा का पालन करो। मेरा एक विग्रह अब वृन्दावन में भी रहा करेगा।’

राजा भयभीत हो जाग पड़े। उसी समय कर्मचारियों को भेजा महात्माजी की खोज करने। जब उनका पता चल गया, राजा स्वयं गये समुद्र तटपर। उनके चरणों में गिरकर उनसे क्षमा प्रार्थना की और उनकी आज्ञा पालन करने का वचन दिया।

अभिषेक के पश्चात् राजा ने एक विशाल रथ में श्रीजगन्नाथजी, श्रीबलदाऊजी और श्रीसुभद्राजी को विराजमान कर धन-धान्य और सेना के साथ उन्हें वृन्दावन के लिए विदा किया।

हरिदास जी और उनके शिष्य उनके साथ परमानन्दपूर्वक कीर्तन करते हुए कई मास में वृन्दावन पहुँचे। वृन्दावन में यमुना तट पर उसी स्थल पर, जहाँ वे भजन करते थे, एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण कर श्रीविग्रहों को स्थापित किया।

आज भी वह मन्दिर और श्रीविग्रह उस स्थान की शोभा बढ़ा रहे हैं। उसके सामने यमुना बह रही हैं और नीचे पक्का घाट बना है, जो ‘जगन्नाथ घाट’ के नाम से पुकारा जाता है। भक्तगण वृन्दावन में उस स्थान पर जगन्नाथजी के दर्शन कर कृतार्थ होते हैं। जगन्नाथजी की रथयात्रा के दिन वहाँ दर्शकों की विशेष भीड़ होती है।

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