अपने को न भूलो

अपने को न भूलो

संसार में मनुष्य के दुःखी रहने का एकमात्र कारण यही है कि वह अपने स्वरूप को बिल्कुल ही भूल चुका है। जिस उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए उसे यह मानव जन्म मिला था उस लक्ष्य को भूलकर वह इस नश्वर शरीर, इन्द्रियों तथा शारीरिक रिश्ते-नातों को ही अपने सुख का केन्द्र मान बैठा है जिसके कारण वह सच्चे व अनुपम रूहानी सुख के भण्डार से कोसों दूर जा पड़ा है।

केवल सन्त सतगुरु ही जीव को इन सांसारिक दुःखों से आज़ाद करा सकते हैं। उनकी संगति को पाकर जीव अपनी सुरति को मालिक के नाम व शब्द में लगाकर अपने वास्तविक स्वरूप अर्थात् आत्मा को जान सकता है, अन्य कोई चारा नहीं । इसी पर एक रोचक दृष्टान्त नीचे दिया जा रहा एक बार जुलाहों की मण्डली का किसी बारात में जाना हुआ।

मार्ग में उन्हें एक नदी पार करनी पड़ी। मण्डली में दस व्यक्ति थे और ग्यारहवां था उन का सरदार | वे पैदल ही चलकर नदी के उस पार पहुँचे । नदी पार होकर सरदार ने सोचा- अपने सदस्यों की गणना कर लेनी चाहिये। कहीं हममें से नदी में कोई डूब न गया हो । यह सोचकर उसने गिनती करनी प्रारम्भ कर दी।

अपने दस साथियों को तो वह गिन गया परन्तु स्वयं को नहीं गिना । गिनती करने पर जब कुल दस व्यक्ति हुए तो सरदार अत्यन्त चिन्तातुर होने लगा, ‘ओह! हमारा एक व्यक्ति तो लापता है। आख़िर मेरा सन्देह सत्य ही चरितार्थ (घटित) हुआ। अवश्य ही हमारा एक व्यक्ति नदी की भेंट हो गया है ।’

उसने पुनः गिनना आरम्भ किया और इस बार भी अपने को छोड़ कर दस ही गिने। उसकी चिन्ता बढ़ने लगी। कई बार सरदार के गिनती करने पर भी ग्यारह सदस्य पूरे न हुए । तब सभी सदस्यों ने भी बारी-बारी से गणना की, सभी ने स्वयं को न गिन कर दूसरे दस व्यक्तियों की गिनती की।अब तो उन्हें सोलह आने विश्वास हो चला कि हमारा एक व्यक्ति नदी में डूब चुका है।

यह सोच कर सभी रोने,पीटने व चिल्लाने लगे, ‘हाय ! हमारा एक आदमी नदी में डूब गया, अफ़सोस ! हमारा बड़ा नुकसान हो गया है।’ इस प्रकार उन्होंने रो-रो कर आसमान सिर पर उठा लिया था । अकस्मात् एक विचारवान् आदमी उधर आ निकला और उनको इस प्रकार करुण क्रन्दन करते हुए देख उनसे कारण पूछा-सब वृत्तान्त ज्ञात कर लेने पर उस बुद्धिमान् व्यक्ति ने उन सब पर विहंगम दृष्टि डाली।

देखा कि यह हैं तो ग्यारह । फिर रोने-पीटने का क्या कारण? उसे समझने में देर न लगी। उसने सरदार को अपने पास बुलाकर गिनती करने को कहा। उसको गिनती करते देख चतुर मनुष्य को यह शीघ्र ज्ञात हो गया कि ये हर बार गिनती में अपने को भूल जाते हैं।

इसी कारण ही वे दुःखी और परेशान हो रहे हैं।उसने समझाया कि ‘भाई ! तुम हर बार अपने दसों साथियों को गिनकर अपनी गिनती करना तो भूल ही जाते हो । यही भ्रम ही तुम्हें दुःखी व बेचैन कर रहा है।”जुलाहों के सरदार ने उस व्यक्ति के कथन अनुसार ही गिनना आरम्भ किया जब उसने अपने दस आदमियों की गिनती की तब उस विचार शील मनुष्य ने उसका हाथ पकड़ कर उसकी ओर किया कि भाई ! अपने को भी तो गिनो।

जब उसने अपने आप को गिना तब अपने को गिनने से ग्यारह सदस्य पूरे हुए तब कहीं जाकर उन्होंने सुख का श्वास लिया। यह है विचारवानों की संगति की गरिमा की बात कि निमिषमात्र उस विचारवान् पुरुष की संगति से उनके समस्त दुःख व भ्रम का नाश हो गया और वे मारे प्रसन्नता के बल्लियों उछलने लगे।

इस दृष्टान्त का भाव यह है कि जीव संसार में इसीलिए दुःखी है कि दस इन्द्रियाँ व ग्यारहवाँ जीवात्मा ईश्वर की तरफ से सबको मिले हुए हैं परन्तु हर एक जीव आत्मा की ओर ध्यान न देकर दस इन्द्रियों के सुखों में दिन-रात लीन रहता है। आत्मा की ओर इसका ध्यान ही नहीं जाता, यही इसके दुःख का मूल है। समय के सन्त सद्गुरु ही इस जीव को आत्मा का बोध कराते हैं।

मनुष्य की सुरति जो शरीर के सम्बन्धों में उलझी पड़ी है उसे आत्मा की ओर लगाने की प्रेरणा देते हैं। जैसे जुलाहों ने जब विचारवान् व्यक्ति की प्रेरणा से अपनी ओर ध्यान दिया तब उनके भ्रम व संशय दूर हो गये। इसी तरह से सद्गुरु के उपदेश द्वारा जब जीव अपनी आत्मा की ओर ध्यान देता है तथा उसे ही अपना सच्चा साथी समझता है तब ही यह जीव सुखी हो सकता है ।

परन्तु यह जीव अविद्यावश अपनी आत्मा को नहीं देख पाता। इसके लिए इसे सद्गुरु की चरण-शरण में जाने की नितान्त आवश्यकता है। उनके द्वारा ही इस मनुष्य को आत्मा का बोध होता है ।

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