अनमोल वचन

अनमोल वचन

  1. भक्ति-मार्ग में सफलता प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ साधन है—तन गुरु-सेवा में और मन गुरु-शब्द में लीन रहे ।
  2. सद्गुरु की आज्ञा और उनके उपदेशों को हृदयंगमकर उन पर आचरण करना ही कल्याण का सुगम मार्ग है।
  3. यदि सुख-शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहते हो, तो तृष्णा का त्यागकर सन्तोषी जीवन व्यतीत करो।
  4. जिह्वा से दूसरों की निन्दा-चुगली करने की अपेक्षा गुरु-शब्द का जाप करो।
  5. शत्रु इतना अनिष्ट नहीं करता, जितना कुपथ कुपथगामी मन अनिष्ट करता है, इसलिये उसे सत्यपथ पर लगाओ।
  6. भ्रमर की दृष्टि उद्यान में अन्य वस्तुओं पर न पड़कर केवल पुष्प के सौन्दर्य पर ही जाती है। तुम भी केवल मनुष्य के सुन्दर गुणों की ओर देखो; उसके अवगुणों तथा उसकी कमियों की ओर मत देखो।
  7. आलस्य का त्याग करो, यह जीव का महान् शत्रु है।
  8. दुर्जन के लिये दुर्जन मत बनो, उसकी दुर्जनता को अपनी सज्जनता से दूर करो।
  9. परिश्रम और लगन से कार्य करने पर ही सफलता प्राप्त होती है।
  10. परमात्मा का सुमिरण-ध्यान करना और उसके गुण- अनुवाद गायन करना ही समय का उचित उपयोग है।
  11. निष्काम कर्म करने से ही मन शुद्ध होता है और शुद्ध मन में ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है।
  12. मन सफेद कपड़े के समान है। उसे जैसी संगति में रखोगे, वैसा ही उस पर रंग चढ़ जायेगा।
  13. जो परमात्मा और मृत्यु दोनों को सदा स्मरण रखता है, वह पारमार्थिक कार्य को कल पर नहीं छोड़ता, वरन् उन्हें सबसे पहले और पूरी लगन से करता है।
  14. भक्तिपथ के साधक दूसरों के दोषों को कभी नहीं देखते, वरन् वे अपने दोषों पर दृष्टि रखकर दिन-प्रतिदिन उनका सुधार करते हैं।
  15. मृत्यु का समय निश्चित नहीं है; इस शरीर का किसी भी क्षण नाश हो सकता है। इसलिये शीघ्र ही समय के सन्त- सद्गुरु की शरण-संगति खोजो और इस जीवन के अमूल्य क्षणों को सार्थक बना लो।
  16. मन की अवस्था तब बदलती है, जब सत्संग को तर्क-वितर्क बुद्धि से रहित होकर सुनें, हृदय में धारण करें और उस पर आचरण करें।
  17. पूर्ण निष्ठा से सद्गुरु की आज्ञा का पालन करने में तत्पर साधक पारमार्थिक भेदों को समझने की शक्ति प्राप्त कर लेता है।
  18. सन्त – सत्पुरुषों का सत्संग प्राप्त होने पर जीव के हृदय से मोह का नाश हो जाता है, तब हृदय में परमात्मा का प्रेम उत्पन्न होता है। इस प्रेम को पाकर जीव परम आनन्द की प्राप्ति कर लेता है।
  19. यश- अपयश, निन्दा-स्तुति, हर्ष-शोक– ये सब सांसारिक बन्धन के कारण हैं, गुरुमुखजन इन बन्धनों में कभी नहीं फँसते; वे समभाव अपनाकर अपने जीवन को सुखदायी बना लेते हैं।
  20. मन की चाह को पूरा करने के लिये संसारी मनुष्य सदैव कामनाओं से ग्रस्त रहता है। अतः वह मन की परिधि में ही रमण करता है परन्तु गुरुमुखजन सद्गुरु के शब्द का आश्रय लेकर कामनाओं से स्वयं को सदैव स्वतन्त्र रखते हैं।
  21. जब जीव अपने चित्त को भगवन्नाम के सुमिरण में लगाकर अपने पापों का प्रायश्चित करता है, तो उसका जीवन सदा के लिये सुखी हो जाता 3/6 ।
  22. जिस विधि द्वारा सद्गुरु की शरण संगति प्राप्त हो, – उसे शीघ्र अपनाकर जीव आत्म-कल्याण करे; यही मनुष्य जन्म का लक्ष्य है।

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