Shri Swami Swarupanand ji
Shri Swami Swarupanand ji का अवतरण
बसन्त की सुहानी ऋतु ऋतुराज बनकर आई। कलियाँ मुसकान खिल उठीं। नव पल्लवों ने कोमलांगों द्वारा ऋतुराज का स्वागत किया। भ्रमर पुष्प पुष्प पर गुंजार भरने लगे।
हरी-हरी दूब ने पृथ्वी को मखमली गलीचे से ढक दिया। नभ से देवता भी हर्षित होकर पुष्पवृष्टि करने लगे। आह्ह्लाद की एक मधुर झंकार के साथ भक्त-हृदय हर्षित हो उठे।
सीमाप्रान्त के जिला कोहाट, तहसील बांडा में स्थित कसबा टेरी में तीन सम्भ्रान्त कुलों में से एक वासुदेव कुल था। इस वासुदेव के उच्च प्रतिष्ठित घराने में हमारे चिरस्मरणीय अभिनन्दनीय श्री श्री 108 श्री स्वामी स्वरूप आनन्द जी महाराज ने अवतार लिया। के साथ
आपने वासुदेव कुल में दिनांक 1 फ़रवरी सन् 1884 ई० तदनुसार 20 माघ संवत् 1940 विक्रमी बसन्तपंचमी शुक्रवार के शुभ दिन इस धरती के भाग्य जगाने के लिए अवतार धारण किया।
पूज्य लाला प्रभु दयाल जी को आपके पिताजी तथा सुश्री राधादेवी जी को माता कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
आपका शुभ नाम श्री बेलीराम जी रखा गया। संकटमोचन भक्त-वत्सल श्री सद्गुरुदेव महाराज जी के अवतार धारण करते ही वासुदेव कुल सचमुच धन्य हो गया। सत्य ही कहा है कि
॥ दोहा ॥
धन्य मातु पितु धन्य कुल भवन सुहृद परिवार ।
ज्ञान भानु परकासिया, तिहुँ लोक उजियार ॥
धन्य हैं टेरी भाग्य तव, प्रभु लीन्हा अवतार ।
भव वारिधि से तारने, धरा रूप साकार ॥
शास्त्रों में भी ऐसे कुल को पवित्र, माता को पवित्र तथा धरती को पुण्यवती कहा गया है। आप जन्मजात अवतारी पुरुष थे। आपने जन्म से पहले ही अपनी अलौकिक प्रतिभा का प्रदर्शन करा दिया।
कहा जाता है कि आप जब माताजी के गर्भ में थे तो माता श्रीमति राधादेवी जी को अपने अन्दर से मूलमन्त्र तथा अनाहत ध्वनि में बांसुरी की आवाज़ आती थी।
कई बार माताजी कहतीं – “पता नहीं मेरे कानों में कौन बांसुरी बजाता है?” आपके जन्म से कुछ समय पहले माताजी की वृत्ति दान-पुण्य में मुक्त हस्त हो गई थी। यदि कोई रोकता तो उत्तर में माताजी कहतीं- “मेरे तो वश की बात नहीं। मेरे तो केवल हाथ हिलते हैं, आदेश किसी और का है।”
इस प्रकार द्वार पर जो भी भिक्षुक आया, कभी खाली न लौटा। श्री सद्गुरुदेव महाराज जी के जन्म के पश्चात् माताजी का अनाहत भी बन्द हो गया।
जब आपने जन्म लिया तो अन्य उपस्थित सम्बन्धियों तथा माता जी ने देखा कि सहसा एक दिव्य प्रकाश हुआ।
जन्म के समय आपके मुख-मण्डल पर साधारण बालकों जैसे रोने-धोने के चिन्ह न थे। अरुण अधरों पर मृदुल मुसकान खेल रही थी। आपके शुभ आगमन से प्रकृति ने प्रसन्नता का शुभ सन्देश दिया। चारों ओर बहारें छा गई।
प्राय: देखने में आता है कि दिव्य विभूतियों का सम्मान इन चार स्थानों पर नहीं होता-1, जन्म स्थान 2. बन्धुबान्धव 3. अपना परिवार और 4. बाल सखा आपने अलोकिक शक्ति से यह आश्चर्य में डाल देनेवाला कार्य भी कर दिखाया कि सीमाप्रान्त में प्रकट होकर वहां के निवासियों में भक्ति की ज्योति को प्रज्वलित कर दिया।
आपने टेरी में बाल-लीला से भक्ति-अमृत का ऐसा स्रोत बहाया कि सभी नगरवासी एवं घर के लोग सब पर एक अनूठा प्रभाव पड़ा।
वहां के वयोवृद्ध लोग जब आपके दिव्य स्वरूप तथा अलोकिक लीलाओं को देखते तो सहसा कह उठते-थे तो कोई अवतार है, साधारण पुरुष नहीं। घर-घर में आपकी पूजा हुई। उन लोगों की श्रद्धा, विश्वास तथा प्रेम की अनन्यता का आदर्श अन्यन्न मिलना कठिन है।
प्रकृति का यह नियम है कि वह भावी निर्माताओं के लक्षण बाल्यकाल की झांकियों में प्रदर्शित कर देती है। इसी तरह आपके बाल्यकाल की अठखेलियां इसी सत्य को स्पष्ट करती हैं कि आप जन्मजात अवतारी पूर्ण तत्त्व-ज्ञानी महापुरुष थे।
आपकी अवस्था अभी चालीस दिन की ही थी कि एक जटाधारी साधु आपके घर के बाहर आकर धूनि रमाकर बैठ गया। पूज्या माताजी द्वार पर आकर साथ को देख अन्दर गई और उसे कुछ भिक्षा देने के लिए पुनः बाहर आई।
उस साधु ने कहा माई। तो आपके बालक का दीदार करने की भिक्षा चाहिए। माताजी ने आपको बाहर न लाने के लिए स्पष्ट कह दिया। उनके दिल में विचार आया कि साधु जन्त्र मन्त्र से न जाने बच्चे पर कोई प्रभाव न डाल जाये।
माताजी ने जोर देकर कहा कि बाबा! बच्चा तो किसी दशा में भी बाहर नहीं लाना। परन्तु बाबा जी भी अपने हठ पर अड़े रहे तथा धूनि रमाकर अलख जगाने लगे।
इस वाद-विवाद को देखकर पड़ोसी स्त्रियों की भीड़ जमा हो गई। पंडित हेमराज जी भी किसी कार्यवश वहां आ पहुँचे और उन्होंने इस वृत्तान्त के विषय में पूछा। साधु ने अपनी इच्छा प्रकट कर दी। पंडित जी कहने लगे-माताजी।
इसमें हानि ही क्या है, एक बार बालक को बाहर ले आओ। साधु-महात्मा तो सदा दुआ ही देते हैं। इतना कहकर वे स्वयं अन्दर गये और आपको लाकर बाबा के सामने किया। उसने हाथ फैलाकर आपको उठा लिया।
कुछ देर तो वह आपको देखता रहा फिर उसने बड़े प्यार से धीरे से कहा–’क्या बाबा को पहचानते हो ?’ आप उसके चेहरे की ओर देखकर हँसने लगे। उसने एकदम आपको वक्षःस्थल से लगाया, प्यार किया और पुनः पंडित जी के हाथ में दे दिया।
पंडित जी आपको अन्दर सुलाने के लिए गए तो उन्हें ख्याल आया कि बाबा को भोजन आदि अवश्य कराना चाहिए। वे आपको सुलाकर शीघ्र ही बाहर आए और देखा तो बाबा जी न जाने कहां चले गए।
पंडित जी उन्हें ढूँढने लगे, क्योंकि वे पहुँचे हुए फ़कीर दिखाई देते थे, उन्हें भोजन अवश्य कराना चाहिए था, परन्तु वे उन्हें कहीं भी न मिले।
ऐसा प्रतीत हुआ मानो स्वर्ग से देवता भी आपके श्री दर्शन की इच्छा से वेष बदलकर अपनी मनोभावना पूर्ण करना चाहते थे। इस रहस्य को जीव बुद्धि नहीं समझ सकती कि वे बाबा जी कौन थे तथा आपने मुसकराकर उनकी हार्दिक अभिलाषा को पूर्ण कर उत्तर दे दिया।
इसी प्रकार आपके बाल्यकाल की झांकी का एक अलौकिक दृश्य यह भी है— टेरी से तीन मील की दूरी पर एक पर्वत के एक पत्थर पर देवी का चित्र अंकित था। लोग हर नवरात्रों में उसकी पूजा करने के लिए जाया करते थे।
अभी आपकी आयु तीन मास की हुई होगी कि आपकी माता पूज्या राधा देवी जी भी नवरात्रों का पूजन करने के लिए परिवारसहित उस पर्वत पर गईं। सारी रात जागरण होने के कारण उन्होंने आपको एक ओर किसी पत्थर पर लिटा दिया।
कुछ समय पश्चात् जब वे आपको देखने के लिए आईं तो आपको वहां न पाकर घबरा गई। आप अलौकिक लीला दर्शाने हेतु अदृश्य हो गए।
माता जी इधर- उधर सब ओर अच्छी तरह से देखभाल कर जब आपको ढूँढ़ न सकीं तो आपके पिता जी तथा परिवार के अन्य सदस्यों को पूछा, परन्तु सभी आश्चर्य में थे कि आप कहां चले गए। प्रातः होते ही सब लोग पर्वत के आस-पास आपकी खोज करने लगे।
माता जी के दिल को तरह-तरह की शंकाएँ आतंकित करने लगीं कि कहीं कोई जंगली जानवर ही यहां से न उठा ले गया हो। अत्यधिक बैढ़ने पर भी जब आप न मिले तो निराश होकर उस स्थान के प्रबन्धक पंडित हेमराज जी को सूचित कर सभी पर लोट आए।
माता जी व यहिन ने इसी दुःख में तीन दिन भोजन भी न किया। पिता जी व अन्य सम्बन्धी आपकी खोज में लगे रहे।
इधर पंडित जी ने तीन-चार पठानों को पर्वत के आसपास तथा जंगल में ढूँढ़ने के लिए भेजा। तीन दिन के पश्चात् अचानक पठानों ने जंगल में एक पेड़ के नीचे एक बालक को लेटे हुए देखा-बालक के ऊपर फनियर सर्प फण फैलाए बैठा था तथा बच्चा उसे देखकर प्रसन्नता से किलकारियाँ मार रहा था।
वे पठान पंडित जी के पास दोड़े आए और सब समाचार कह सुनाया। पंडित जी उनके साथ उस स्थान पर पहुँचे तथा आपकी देदीप्यमान छवि को दूर से निहारा ज्योंही पंडितजी पठानों सहित उस सर्प को मारने के लिए समीप गए, त्योंही सर्प स्वयं दूर चला गया।
पंडित जी ने आपको उठाया और प्रसन्नचित्त होकर शीघ्र ही आपके घर गए। माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धी आपको सकुशल पाकर प्रसन्नता में झूम उठे। माता जी ने आपको प्राप्त कर यथासम्भव मंगल कार्य किये।
कौन जाने इस घटना में क्या रहस्य था? आपने दर्शाया कि इसी प्रकार ही हम इस लोक में भी माया से स्वतन्त्र रहेंगे। इस प्रकार कई बार अदृश्य हो जाना तो आपका खेल सा बन गया था। माताजी इस कारण व्याकुल हो जातीं और पिता जी व भाई आप की खोज में लगे रहते।
बाल्यकाल से ही आप स्वतन्त्रता प्रिय, एकान्त सेवी तथा भजन भक्ति में लीन रहने वाले थे। आप स्वाधीन प्रकृति होने के कारण प्रायः दो-दो, चार-चार दिन घर से निकलकर गिरि-गुहा में जा बैठते।
पर्वत मालाओं में रहनेवाले पठान पर्वत की कन्दराओं में आपको अकेला बैठा हुआ देखकर आपको घर तक छोड़ आते। टेरी में वैशाखी के शुभ पर्व पर वहां से कुछ दूरी पर मेला लगता था।
लोग खान-पान तथा आमोद-प्रमोद में सारा दिन वहां व्यतीत करते थे। आपको भी पिता जी वहां अपने साथ ले गए, परन्तु आपको तो इस दुनियावी मनोरंजन से कोई सरोकार न था।
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