Swami Advait Anand ji
श्री श्री 108 श्री स्वामी अद्वैत आनन्द जी महाराज
Shri Swami Advait Anand ji का अवतरण
भारत के नभोमण्डल पर खुशियों का एक नया रंग छा रहा था। जन जन का हृदय आनन्द में विभोर हो रहा था। चारों दिशाओं से वायु सुगन्धि छिटकाने लगी।
न जाने इतना उल्लास कहां से आ रहा है? प्रत्येक प्राणी के हृदय में हर्ष था। परन्तु किसे क्या मालूम कि सृष्टि का भार हल्का करने को तथा मोह माया में सोये हुए प्राणियों को जागृति का सन्देश देने के लिए स्वयं सन्त रूप में भगवान् प्रकट हो रहे हैं।
घर में एक अलौकिक प्रकाश हुआ। यही वह शुभ दिन था ‘रामनवमी’ का, जिस पुनीत दिवस में मानवता में भक्ति ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित करने के लिए श्री परमहंस दयाल जी श्री स्वामी अद्वैत आनन्द जी महाराज का शुभ अवतरण हुआ।
श्री परमहंस दयाल जी 5 अप्रैल सन् 1846 ई० तदनुसार 23 चैत्र संवत् 1903 रविवार पुष्य (पुख) नक्षत्र सुकर्मा योग में रामनवमी के दिन बिहार की पुण्य भाग्यशालिनी भूमि कसबा छपरा, ज़िला सारन के उच्च ब्राह्मण कुल पाठक वंश में अवतरित हुए।
आप जन्मजात अवतार तथा महापुरुष थे। आपके पिता श्री तुलसीराम जी पाठक अत्यन्त सुशील तथा परोपकारी थे।
जब सम्बन्धियों ने श्री परमहंस दयाल जी के जन्म महोत्सव मनाने के लिए उन्हें कहा तो आपके पूज्य पिता जी ने फ़रमाया “हमारे घर में जन्मोत्सव मनाने की ऐसी क्या विशेषता है? आज के दिन तो सम्पूर्ण भारतवर्ष में ही राम जन्मोत्सव का आनन्द पहले ही मनाया जा रहा है।”
वास्तव में यह रामनवमी महोत्सव त्रेतायुग के अवतार श्री रामचन्द्र जी के अतिरिक्त युग की पुकार सुननेवाले युगपुरुष श्री परमहंस दयाल जी का जन्म महोत्सव था।
तदनुसार पिता जी ने आपका शुभ नाम ‘राम रूप’ और ‘राम नारायण’ रखा। वे आपको प्यार से ‘रामयाद’ भी बुलाते थे। ‘यथा नाम तथा गुण’ बड़े होने पर यह बात अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई।
आपके जन्म पर घर में हर्ष ही हर्ष छा गया। आनन्द ने डेरे डाल लिये परन्तु पिता जी के लिए यह प्रसन्नता अधिक समय तक न रह सकी क्योंकि जब आपकी आयु लगभग नौ मास की हुई होगी कि आप माता जी की छत्रच्छाया से वंचित हो गये। इधर आपके जन्म लेने की खुशी उधर धर्मपत्नी के स्वर्ग सिधारने का शोक ।
अब आपके पूज्य पिता जी को आपके पालन-पोषण की चिन्ता हुई। उनके हज़ारों ही शिष्य, सेवक व श्रद्धालु थे परन्तु उनका विशेष प्रेम एक सज्जन लाला नरहर प्रसाद जी कायस्थ (श्रीवास्तव) से था।
श्रीवास्तव जी का घर नये बाज़ार में था और उनका व्यवसाय वकालत करना था। श्रीवास्तव जी व उनकी धर्मपत्नी दोनों बड़े साधु-सेवी थे। वे अपने गुरु अर्थात् आपके पिता जी के
अत्यधिक श्रद्धालु थे। उनका इकलौता लड़का आप से छः मास बड़ा था । अचानक ही आपकी माता जी के स्वर्ग सिधारने से एक मास पूर्व उनके पुत्र का देहान्त हो गया।
वे अपने पुत्र के दुःख में अत्यन्त दुःखी रहते थे। अब आपकी माता जी की मृत्यु के पश्चात् आपके पिता जी ने आपको लाला नरहर प्रसाद जी तथा उनकी धर्मपत्नी को सौंप दिया। उन्होंने आपका पालन-पोषण बड़े लाड़ प्यार से किया।
उनके दिल में सदा यही इच्छा रहती कि आप अपने माता-पिता को तनिक भी स्मरण न कर सकें। इसलिए वे सदा आपको मातृ-पितृ सुलभ स्नेह से पूर्ण करते।
आपने पाठक वंश में जन्म लेकर कायस्थ माता के दूध का बल प्राप्त किया। दिन-रात प्रत्येक क्षण उनका ध्यान आपकी देख-रेख तथा सेवा में व्यतीत होता, परन्तु जो स्वयं सृष्टि के कर्ता-धर्ता हो उनका पालन पोषण कौन कर सकता है?
आप स्वयं सृष्टि के नायक तथा पालनहार थे। सांसारिक दृष्टिकोण से आप अवतार होते हुए भी मानव सिद्धांतों को चरितार्थ कर रहे थे।
प्रकृति का खेल कि सन् 1851 में जब आपकी अवस्था अभी पाँच वर्ष की हुई तो पूज्य पिता श्री तुलसीराम पाठक जी का देहावसान हो गया।
अब तो लाला साहिब जी का ध्यान और भी अधिक आपकी ओर हो गया। उनके दिल में यह ख़्याल था कि जो उमंगें आपके पूज्य पिता जी आपकी ओर से अपने दिल में ले गए उनको पूरी कोशिश से पूरा किया जाए ताकि उनकी आत्मा को शान्ति मिले।
उन्होंने आपके साथ इस तरह लाड़ प्यार तथा स्नेह का व्यवहार किया कि आप भूलकर भी माता-पिता को याद न करें। इतना लाड़ प्यार होते हुए भी आपको सर्वसाधारण बालकों की तरह खेलना पसन्द न था। आप बाल्यकाल में अपनी ही मस्ती में मस्त रहते।
एकान्त तो आपका प्रिय मित्र था। प्रकृति जिनकी चरणरज छू लेने को आतुर हो, ऋद्धियां सिद्धियां जिनकी चरण-छांव का आश्रय प्राप्त करना चाहती हों वे भला इस संसार को क्या समझते हैं।
फिर भी लाला श्रीवास्तव जी ने यथासम्भव अपने कर्तव्य को पूर्ण रूप से निभाया। सांसारिक दृष्टिकोण से आपकी शिक्षा-दीक्षा हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, अरबी एवं फ़ारसी में हुई।