Krishna Mantra – श्री कृष्ण मंत्र
hare krishna mantra
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
भारत में अनेक तीर्थस्थान है जहाँ योगीजन एकांत में ध्यान करने जाते हैं, जैसा कि भगवद गीता में बताया गया है। परपरागत रूप से, हरे कृष्ण, योग किसी सार्वजनिक स्थान में नहीं किया जा सकता ।किन्तु जहाँ तक कीर्तन-मंत्र-योग, अथवा हरे कृष्ण मंत्र के कीर्तन हरे कृष्ण, हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे-के योग का संबध है उसमें जितने अधिक व्यक्ति सम्मिलित हों, उतना ही अच्छा है।
krishna kirtan – कृष्णा कीर्तन
लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व जब भारत में भगवान चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते थे तो वे प्रत्येक समूह में सोलह व्यक्तियों को कीर्तन का नेतृत्व करने की व्यवस्था करते थे, तथा उनके साथ हजारों व्यक्ति गाते थे ।
कीर्तन, या भगवान् के नाम और यश के सामूहिक गायन में सम्मिलित होना इस युग में संभव है तथा यह अत्यंत सरल भी है, परंतु जहाँ तक ध्यान योग पद्धति का संबंध है, वह बहुत कठिन है।
भगवद्- गीता में यह विशेष रूप से कहा गया है कि ध्यान-योग करने हेतु व्यक्ति को किसी निर्जन तथा पवित्र स्थान में जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, घर छोड़ना आवश्यक है। जनसंख्या विस्फोट के इस युग में निर्जन स्थान पाना सदैव संभव नहीं है, परन्तु भक्ति-योग में इसकी आवश्यकता नहीं है।
भक्ति-योग पद्धति में नौ विधियाँ हैं : श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन । इनमें से श्रवण कीर्तन को सबसे अधिक महत्वपूर्ण समझा जाता है।
सार्वजनिक कीर्तन में कोई एक व्यक्ति हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का कीर्तन करे जबकि समूह के अन्य लोग सुनें, एवं मंत्र के अंत में समूह के सब लोग उसे दोहरायें।
इस प्रकार श्रवण और कीर्तन का आदान-प्रदान होता है। यह बड़ी ही सरलता से अपने ही घर में मित्रों के छोटे से समूह में या किसी बड़े सार्वजनिक स्थान पर अनेक व्यक्तियों के साथ किया जा सकता हैं।
कोई समाज में अथवा बड़े शहर में रहकर ध्यान योग के अभ्यास का प्रयत्न कर सकता है, परन्तु उसको समझना चाहिए कि यह स्वकपोलकल्पित है, भगवद् गीता द्वारा प्रस्तावित पद्धति नहीं है।
योग पद्धति की सम्पूर्ण विधि स्वयं को शुद्ध करने की है। और वह शुद्धता क्या है? अपने वास्तविक परिचय का ज्ञान होने पर शुद्धता स्वयं आती है। “मैं शुद्ध आत्मा हूँ- में यह पदार्थ नहीं हूँ” समझना ही शुद्धता है।
भौतिक संस्पर्श के कारण हम स्वयं को पदार्थ समझते हैं, तथा हम सोचते हैं, “मैं यह शरीर हूँ ।” परन्तु यथार्थ योग करने हेतु अपनी स्वरूपानुबंधी स्थिति को पदार्थ से भिन्न समझना चाहिए। एकांत में रहने तथा ध्यान-योग करने का उद्देश्य इसी ज्ञान की प्राप्ति है।
अनुपयुक्त ढंग से पद्धति अपनाने पर इस ज्ञान तक पहुँचना संभव नहीं । किसी भी स्थिति में भगवान् चैतन्य महाप्रभु का यही विचार है
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥
“कलह तथा विवादों के इस युग (कलियुग) में हरिनाम के अतिरिक्त आत्म-साक्षात्कार की अन्य कोई विधि नहीं, अन्य कोई विधि नहीं, अन्य कोई विधि नहीं । “
कम से कम पाश्चात्य जगत में सामान्यतः यह सोचा जाता है कि योग पद्धति का अर्थ शून्य का ध्यान करना है। परन्तु वैदिक साहित्य में किसी शून्य का ध्यान करने का परामर्श नहीं दिया गया।
Meaning Of Yog in vedas – योग का अर्थ वेद के अनुसार
बल्कि वेद तो यही मानते हैं कि योग का अर्थ विष्णु का ध्यान करना है, जैसा कि भगवद् गीता में भी कहा गया है। कई योग संस्थाओं में लोग आसन में सीधे बैठकर, अपनी आँखें बंद करके, ध्यान करते पाये जाते हैं। और इसलिए उनमें से पचास प्रतिशत लोग तो सो जाते हैं ।
क्योंकि जब हम ध्यान की विषयवस्तु के बिना आँखें बंद कर लें तो सो ही जायेंगे । निश्चय ही भगवद् गीता में कृष्ण ने ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं दिया है। व्यक्ति को एकदम सीधा बैठना चाहिए, नाक के अग्रभाग की ओर देखते हुए आँखों को अधखुला रखना चाहिए। अगर व्यक्ति निर्देशों का पालन नहीं करता तो परिणाम निद्रा के सिवाय अन्य कुछ नहीं होगा।
निश्चय ही कभी-कभी सोते हुए भी ध्यान चलता रहता है, किन्तु यह योग करने की प्रस्तावित विधि नहीं है। अतः स्वयं को जागृत रखने हेतु कृष्ण परामर्श देते हैं कि व्यक्ति को सदैव नाक के अग्रभाग पर दृष्टि रखनी चाहिए।
साथ ही, व्यक्ति को सदैव शांत रहना चाहिए। यदि मन उत्तेजित है अथवा यदि उसमें अत्यधिक क्रिया चल रही है तो व्यक्ति ध्यान करने में असमर्थ रहेगा। ध्यान-योग में व्यक्ति को भय से भी रहित होना चाहिए।
अध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने पर भय का कोई प्रश्न नहीं रहता । एवं व्यक्ति को मैथुन से पूर्णतया मुक्त यानी ब्रह्मचारी होना चाहिए। और न ही इस प्रकार से ध्यान करते समय कोई इच्छा रहनी चाहिए।
इच्छा रहित होने तथा इस पद्धति को समुचित प्रकार से करने पर मन व्यक्ति के वश में हो सकता है। ध्यान के लिए समस्त योग्यताओं को प्राप्त कर लेने के उपरांत उसे अपना सम्पूर्ण ध्यान कृष्ण या विष्णु पर स्थानांतरित कर देना चाहिए।
यह नहीं कि अपने ध्यान को शून्य में लगाया जाये। अतः कृष्ण कहते हैं कि ध्यान- योग पद्धति में संलग्न व्यक्ति “सदैव मेरा चिंतन करता है।”
स्पष्ट है कि योगी को आत्मा (मन शरीर एवं आत्मा) को शुद्ध करने हेतु अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
किन्तु यह तथ्य है कि इस युग में यह वडी कुशलता के साथ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे के कीर्तन द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है। यह क्यों?
क्योंकि यह दिव्य ध्वनितरंग भगवान् से अभिन्न है। जब हम भक्तिभाव से उनका नाम जपते हैं तो कृष्ण हमारे साथ होते हैं, और जब कृष्ण हमारे साथ हो तो अशुद्ध रहने की संभावना कहाँ?
परिणामस्वरूप, कृष्णभावना में मग्न व्यक्ति, कृष्ण के नामोच्चारण तथा उनकी सदैव सेवा द्वारा योग के सर्वोच्च स्वरूप का लाभ प्राप्त करता है। लाभ यह है कि उसे ध्यान योग की कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता। यही कृष्णभावनामृत की खूबी है।
योग में सभी इंद्रियों को वश में करना अनिवार्य है और जब सारी इंद्रियाँ वश में हो तो मन को विष्णु के स्मरण में नियुक्त करना होता है। इस प्रकार भौतिक जीवन पर विजय पाकर व्यक्ति शांतिमय हो जाता है।
जितात्मन: प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
“जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शांति प्राप्त कर ली है। (भ गीता ६७)
यह भौतिक जगत महादावाग्नि जैसा माना गया है। जंगल में जिस प्रकार अग्नि स्वयं भड़क उठती है, उसी प्रकार इस भौतिक जगत में हम शांतिपूर्वक रहने का प्रयास क्यों न करें, यहाँ सदैव अग्निकांड मचा रहता है। भौतिक जगत में कहीं भी शांति से रहना संभव नहीं है।
किन्तु जो दिव्य पद पर से स्थित है चाहे ध्यान योग द्वारा हो या ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग द्वारा उसके लिए शांति संभव है। योग के समस्त रूप दिव्य जीवन हेतु हैं, परन्तु कीर्तन की विधि इस युग में विशेष प्रभावी है।
कीर्तन कई घण्टों तक चलता रहे, फिर भी थकान नहीं होती, किन्तु पद्मासन में पूर्णता से कुछ मिनट बैठना भी कठिन है। फिर भी, पद्धति चाहे जो भी हो, एक बार जब भौतिक जीवन की आग बुझ जाती है तो व्यक्ति को निर्विशेष शून्य का अनुभव नहीं होता। बल्कि, जैसा कि कृष्ण अर्जुन को बताते हैं, व्यक्ति परम धाम में प्रवेश पाता है।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्ति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥
” इस प्रकार शरीर, मन तथा कर्म में निरंतर संयम का अभ्यास करते हुए संयमित मन वाले योगी को इस भौतिक अस्तित्व की समाप्ति पर भगवद्धाम की प्राप्ति होती है।” (भ. गीता ६.१५ )
कृष्ण का धाम शून्य नहीं है। वह एक प्रतिष्ठान जैसा है, जिन में विविध नियुक्तियाँ होती हैं। सफल योगी वास्तविक रूप से भगवद्धाम को प्राप्त करता है जहाँ आध्यात्मिक विविधता है।
योग पद्धतियाँ उस धाम में प्रवेश हेतु अपने को उपर उठाने के मार्ग हैं। वास्तव में हम वहीं के हैं, परन्तु विस्मरणशील हो जाने के कारण हमें इस भौतिक जगत में रख दिया गया है।
जिस प्रकार व्यक्ति के पागल हो जाने पर उसे पागलखाने भेज दिया जाता है, उसी प्रकार अपने आध्यात्मिक स्वरूप को भूलकर हम पगला गए हैं तथा इस भौतिक जगत में आ गए हैं।
अतः यह भौतिक जगत एक प्रकार का पागलखाना है और यह हम सरलता से देख सकते हैं कि यहाँ सभी कुछ पागलपन में ही किया जाता है। हमारा वास्तविक प्रयोजन यहाँ से निकलकर भगवद्- धाम में प्रवेश पाना है।