Satguru shayari or status
ना राम देखा हमने न शाम देखा हमने, सतगुरु के रूप में भगवान देखा हमने… जय हो सगुरुदेव
तूं तूं करता तू भया, मुझ में रही न हूं। वारी तेरे नाम तों, जित देखां तित तूं ।।
सतगुरु मेरा मेहरांवाला रब दा रूप कहांदा है ,जिथे फिकर ते गम ना कोई औस देश लै जांदा है ।
टूटेया नूं जोडदा ऐसा मेरा सतगुरु प्यारा,खाली ना मोड़दा ऐसा सतगुरु प्यारा
फड़ मुर्शिद दा पल्ला जे तू रब पावना | छड तसबीह फूक मुसल्ला जे तू रब पावना ॥
मैं हर ज़र्रा सतगुरु नुमा देखता हूँ, मैं मुर्शिद में अपना खुदा देखता हूँ।
“गुरु ही ब्रह्मा गुरु ही विष्णु, गुरु ही सब वेदों का सार । संशय गुरु पे न कीजिये, वो ही जीवन का आधार ॥”
दिल है तेरा एक इसमें ऐ हज़ी । उल्फ़तें दो दो समा सकती नहीं ॥
“सेवा, सुमिरण, सत्संग करके,तेरा शुकर मनाना आ जाये । ज़िन्दगी ऐसी कर दो मेरी,मुझे रज़ा में राज़ी रहना आ जाये ॥ “
शरण पड़े तो सूझ पड़ी, जन्म अकारथ है, बिन सतगुरु की भक्ति ॥
करूँ आरती सतगुरु स्वामी, तन मन सुरत लगाय । थाल बना सत शब्द का अलख जोत फहराय ।
सुरत सैल असमान की लख पावे कोई सन्त । तुलसी जग जाने नहीं अति उतंग पिय पन्थ ||
पढ़ पढ़ के सब जग मुआ पण्डित भया न कोय । ढाई अक्षर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय ||
लखाँ शकलाँ तकियाँ अखियाँ ने, कोई नज़र मेरी विच खुबदी नहीं । ऐ सतगुरु दीन दयाल मेरे, तेरा नाम लियाँ बेड़ी डुबदी नहीं ||
“गुरु ज्ञान की मूर्ति रहमत का भण्डार, खुद गुरु को नमन हैं करते जिन्होंने रचा संसार “
गुरु का ध्यान कर प्यारे। बिना इस के नहीं छुटना ।
सानू बुत खाने बिच हुजूर दिसे तैनू काबे दे विच नूर दिसे । सानू नेड़े तैनू दूर दिसे, तेरी नीयत विच बदनीती है।
सो धन जोड़ किया क्या भाई । जगत लाज में दिया उड़ाई || पर जो समझवार तुम होते। तो धन से कुछ कारज लेते ॥ कारज लेना यह है भाई। गुरु सेवा में खर्च कराई ॥
कोई तो तन मन दु:खी, कोई चित्त उदास । एक एक दुःख सबन को, सुखी सन्त का दास ॥
चतुर चुप कर रहे चतुर के वचन पछाने, चतुर चुप कर रहे सभा बेगानी जाने । चतुर चुप कर रहे चतुर जब होय अकेला, चतुर चुप कर रहे गुरु के आगे चेला ||
अर्ज़ आख़िरी सतगुरु आ बस तू नेड़े नेड़े। झगडे मैं की दसां जेहड़े मेरे तेरे ।
गर्भ जोगेसर गुरु बिना, लागा हरि की सेव । कहै कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया सुकदेव ||
जनक विदेही गुरु किया, लागा हरि की सेव । कहै कबीर बैकुण्ठ में, उलटि मिला सुकदेव ||
बिन तेरे जेहा सन्त नाहीं, मेरे पापां दा अन्त नाहीं ।
सन्त नदी जल मेघला, चलें विहंगम चाल । रज्जब जहँ जहँ पग धरै, तहँ तहँ करैं निहाल ॥
धोवत है संसार सब, गंगा माहिं पाप पावन सद्गुरु के चरण, गंगा पहुँचे आप ||
भक्ति बिगाड़ी कामिया, इन्द्रिय केरे स्वाद । हीरा खोया हाथ से, जन्म गँवायो बाद ||
कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय । भक्ति करे कोई सूरमा, जात वर्ण कुल खोय ||
जातवर्ण कुल खोय के, भक्ति करो चित्त लाय । कह कबीर सतगुरु मिलें, आवागमन मिटाय ||
जिसका मन संसार के पदार्थों में उलझा हुआ है, वह संसारी है। और जिसका मन सद्गुरु चरणों में लगा हुआ है, वह संस्कारी है ।
सेवा भक्ति तब जानिए,तन मन शीतल शांत ।आई दया क्रोध गया,मिटा द्वैत यहि भांति ॥
बृच्छ कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न अचवै नीर । परमारथ के कारने, संतन धरा सरीर ॥
जैसे समुद्र में लहरें उठते हुए भी जहाज़ में बैठा व्यक्ति आनन्द से समय व्यतीत करता है, वैसे ही मन में तरंगें उठते हुए भी गुरु- शब्द का अभ्यासी आनन्दमय जीवन व्यतीत करता है ।
शील गया तो सब गया, शील गया सब झाड़ । भक्ति खेत कैसे बचे, टूट गई जब बाड़ ||
प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज दम्भ विचार । उदर भरन के कारने, जन्म गँवायो सार ॥
अमानत अपने दास की सतगुरु सुरक्षित ही रखते हैं। कुँजी बरदार हैं दरगह के लीला अलौकिक करते हैं ॥
स्थूल जगत अरु आत्मिक मंडलों के सतगुरु हैं ज्ञाता । थाम रहो दामन इन्ह का सर्वोत्कृष्ट ये हैं दाता ॥
मन कामनाओं में भटकता फिरे और बाहर समाधि लगाकर बैठना या जप-तप करना परमार्थ नहीं है।
जो सांसारिक पदार्थों के लिये ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, वे ज़ंग लगे हुए बर्तन में दूध डाल रहे हैं।
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मनी भुवंग | एक पलक बिसरे नहीं, यह गुरुमुख को अंग ॥
भक्ति से सब होत है,भक्ति जगत में सार ।भक्ति लोक परलोक में, साथ निभावनहार ॥ “
जैसे जग में महा भिखारी, दीन गरीबी उन सब बिधि धारी । कोई उसको कुछ कह लेवे, मन को अपने ज़रा न देवे। तुम सत्संग कर क्या फल पाया, उनका सा भी मन न बनाया ।
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🙏गुरु चरणों मे स्वर्ग है गुरु सेवा में मुक्ति
🙏भवसागर उद्धार की गुरु पूजन ही युक्ति
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इस कलियुग में जो दया जीवों पर हो रही है , शायद ही किसी युग में हुई हो । काम -क्रोध में तपते हुए जीव और फिर सतगुरु आकर उन्हें सम्भालते है ।
सतगुरु हुंदे जग दे दाता*
*जो एह चाहे कर सकदै,*
*पत्थर दिल वी एहना दी छोह नाल*
*भवसागर तों तर सकदै।*
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अमृत वेले आंख खुली,हुक्म सुमिरण का आया है
हम बड़े है खुशकिस्मत, सतगुरू ने हमें जगाया है
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गुरु सूँ कछु न दुराइये, गुरु सूँ झूठ न बोल । बुरी भली खोटी खरी, गुरु आगे सब खोल ||
कबीर मरना भला परदेश का जा में संग न कोय। पड़े रहो मैदान में बात न पूछे कोय ॥
एक दिन किसी ने मुर्शिद से पूछा
रात को उठ कर तेरी बंदगी करने का
फायदा क्या हे और अगर न करें तो नुकसान क्या है
मुर्शिद ने जवाब दिया
सुन बन्दे,,
अगर रात को तेरी आँख खुल जाए और तू फिर से सो जाए तो समझ लेना तूने मेरे साथ बेवफाई की हे..
पर अगर तेरी नींद खुल जाए और तू उठ कर इबादत करे.. मुझे याद करे बाद में मुझसे कुछ मांगे और में न दूँ.. तो समझ लेना मेने तेरे साथ बेवफाई की हे जो की में कभी नही करता।
आगे से कभी भी रात को जाग जाएं तो उस मालिक की याद में जरुर बैठे ।
भजन सिमरन जरुर करें जी।
कभी मन रंग तरंग चढ़े, कभी चित चाहत है धन को । कभी तिरिया संग लुभावत है, कभी छोड़ चला बन को ।
सेवा ऐसा मन्त्र है, सब का मन हर लेत
परमेश्वर भी सेवते, मुँह माँगा फल देत ॥
सतगुरु जी के चरणों में माथा टेकता है उसकी ऊल्टी रेखाएँ सीधी ही जाती है
तुलसी रण में जूझना, घड़ी एक का काम । नित उठ मन से जूझना, बिन खाण्डे संग्राम ॥
जब हम सच्चे मन से “सतगुरू को” खोजते हैं तो सतगुरू अपनी मौजूदगी का अहसास हमें जरूर करवाते हैं
काजल लागे किरकरो, और सुरमा सहा ना जाए । जिन नैनं में सतगुरु बसे, दुजा कौन समाये”
ईश्वर की दयादृष्टि अहंकार के पर्वत-शिखर पर नहीं होती, वरन् नम्रता की घाटी में सरलता से बहती है।
आशा रखना ही आशा पूर्ण होने में बाधा है और आशा त्यागना ही उसके पूर्ण होने का एकमात्र साधन है।
आध्यात्मिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न तथा सद्गुरु कृपा दोनों ही आवश्यक हैं।
स्वाभाविक ही हम अपने दोषों को छिपाते हैं और दूसरों के दोषों का निर्णय कठोरता से करते हैं। हमें अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिये; दूसरों को क्षमा करना सीखना चाहिये और अपनी त्रुटियों का कठोरता से निरीक्षणकर सुधार करना चाहिये।
नीलकंठ तुम नीले रहियो, हमारी राम-राम रामजी से कहियो । सोते हों तो जगा कर कहियो, जागते हों तो कान में कहियो ।
गुनह तुम किये दिन और रात । गुरु की कुछ न मानी बात || सहो अब पड़े जैसी आय करो फर्याद गुरु से जाय ॥
मनुष्य को सदा उत्साहपूर्वक कार्य करना चाहिये, तभी परमात्मा की अथाह शक्ति सहायता करती है।
ग़रीब को मत सता, ग़रीब रो देगा । सुनेगा उसका मालिक, तो तुझे जड़ से खो देगा ||
बड़े भाग मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा ।। साधन धाम मोच्छ कर द्वारा । पाइन जेहि परलोक सँवारा ॥
भेदी लीन्हा साथ करि, वस्तु देइ लखाय । कोटि जन्म का पंथ था, पल में पहुँचा जाय ||
सुत दारा और लक्ष्मी, पापी के भी होय ।सन्त समागम हरि कथा, तुलसी दुर्लभ दोय ॥
तन पवित्र गुरु सेवा में, धन पवित्र कर दान | मन पवित्र होय स्मरण में, तीनों विधि कल्याण ॥
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Mere satguru🙏🌹
नजरो को कुछ ऎसी खुदाई दे
मै जिधर देखू उधर तू ही तू दिखाई दे
करदे एसी मेहरबानीया आज हवा में.
कि मैं जय सतगुरु पुकारू.
और पुरे जहाँ को सुनाई दे.
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*जय गुरां दी*🙏🏼🌹
मेरी आँखों से तेरा दर्शन होता रहे,
कानो से श्रवण होता रहे,
मुख से कीर्तन होता रहे,
हाथो से सेवा होती रहे,
पैर सत्संग की ओर बढ़ते रहे,
*मन से प्रभु के चरणों का चिंतन होता रहे,चित्त में सेवा की भावना बनी रहे,यही मेरे जीवन की आराधना होती रहे।*
ज्यो तिल माहीं तेल है ,ज्यो चकमक में आग। तेरा साईं तुझमे है ,जाग सके तो जाग ।।
यदि तुम मन देकर राम लेना चाहते हो, तो सांसारिक पदार्थों में अपना मन मत उलझाओ। इस प्रकार एक दिन ऐसा आ जायेगा कि राम तुम्हारे और तुम राम के बन जाओगे ।
कथा कीरतन कलि विषै, भौसागर की नाव । कह कबीर जग तरन को, नाहीं और उपाव || कथा कीरतन करन की, जाके निसदिन रीति । कह कबीर उस साध से, निस्चै कीजै प्रीति ॥ कथा कीरतन छोड़ करि, करै जो और उपाय । कह कबीर ता साध के, पास कोई मत जाय ||
बने तो सतगुरु से बने, नहीं बिगड़े भरपूर । तुलसी बने जो और ते, ता बनवे पर धूर ||
एक भरोसा एक बल, एक आस विश्वास । स्वाँति बूँद सतगुरु चरण, हैं चातक तुलसीदास ||
पहिले दाता शिष्य भया, जिस तन मन अरपा शीश ।पीछे दाता गुरु भए, जिन नाम किया बखशीश ॥
गुरु समान दाता नहीं, दीनों दात अमोल । क्या कोई जाने दान वह, जाको मोल न तोल ॥
गुरु माता गुरु पिता हैं, गुरु भ्राता गुरु मीत । गुरु सम प्रीतम जगत में, मोहि न आवै चीत ॥
गुरु को सब कुछ जानिये, कीजिये निसदिन सेव । गुरु साहिब गुरु साइयाँ,गुरु हैं सच्चे देव ||
जो अब के स्वामी मिले, सब दुःख आँखू रोय । चरणों ऊपर सीस धर, कहूँ जो कहना होय ||
सुरत करो मेरे साईंयाँ, हम हैं भवजल माहिं । आपे ही बहि जायेंगे, जो नहीं पकड़ो बाहिं ||
मैं अपराधी जन्म का, नख शिख भरा विकार । तुम दाता दुःख भंजना, मेरी करो संभार ||
तुम तो समरथ साईंयाँ, दृढ़ कर पकड़ो बाहिं । धुर ही ले पहुँचाइयो, जनि छाड़ो मग माहिं ||
अवगुण हारा गुण नहीं, मन का बड़ा कठोर | ऐसे समरथ सद्गुरु, ताहिं लगावें ठौर ॥
जा को गुरु ने रंगया, कबहूँ न होय कुरंग | दिन दिन बाणी ऊजली, चढ़े सवाया रंग ॥
सतगुरु मारा तान कर शब्द सुरंगी बाण | मेरा मारा फिर जिये, तो हाथ न गहूँ कमान ||
जिसने किया संग गुरू का,मोह माया सब छोड़ी ।
सत्संग सुना, सेवा करी,सुरत शब्द से जोड़ी ।।वही चढ़ेगा एक दिन,सचखण्ड की पोड़ी ।आओ हम भी किरत करें,ऐसी ही थोड़ी थोड़ी ।।
सतगुरु सांचा सूरमा, नख – सिख मारा पूर । बाहर घाव न दीसई, भीतर चकना चूर ॥
सतगुरु सांचा सूरमा, करे शब्द की चोट | मारे गोला प्रेम का, ढाहे भरम का कोट ||
घायल की गति और है, औरन की गति और । प्रेम बाण हृदय लगा रहा कबीरा ठौर ||
भक्ति दुहेली गुरु की, नहीं कायर का काम । सीस उतारे हाथ से, सो लैसी सत्तनाम ||
लड़ने को सब ही चले, शस्त्र बाँध अनेक | साहिब आगे आपने जूझेगा कोई एक ।।जूझेंगे तब कहेंगे, अब कछु कहा न जाये ।भीड़ बने मन मसख़रा, लड़े कि या भग जाये ।
सूरा के मैदान में, कायर निकसा आय।। ना भाजै न लड़ सकै,मन ही मन पछताय ।
सूरा थोड़ा ही भला, सत कर रोपे पग्ग । घना मिला किस काम का, सावन का सा बग्ग ॥
साईं मुफ़्त न पाइये, बातन मिलै न कोय | कबीर सौदा नाम का, सिर बिनु कबहूँ न होय ||
ऊँचा तरुवर गगन को, फल निरमल अति दूर | अनिक सयाने पच मुये, पन्थी मोये झूर ||
दूर भया तो क्या भया, सतगुरु मेला सोय । सिर सौंपे उन चरण में, कारज सिद्धि होय ॥
अगन आँच सहना सुगम, सुगम खड़ग की धार । नेह निभावन एक रस, महा कठिन व्यवहार ||
नेह निभाये ही बने, सोचे बने न आन । तन दे मन दे सीस दे, पर नेह न दीजै जान ॥
साहिब के दरबार में, कमी काहू की नाहिं । बंदा मौज न पावही, चूक चाकरी माहिं || द्वार धनी के पड़ा रहे, धक्का धनी का खाय । कबहूँ धनी निवाजहीं, जो दर छोड़ न जाय ||
परमातम से आत्मा, जुदे रहे बहु काल । सुंदर मेला करि दिया, सतगुरु मिले दयाल |
सुंदर सतगुरु हैं सही, सुंदर सिच्छा दीन्ह । सुंदर बचन सुनाइ कै, सुंदर सुंदर कीन्ह ॥
सुंदर सतगुरु आपु तें, किया अनुग्रह आइ । मोह निसा में सोवतें, हमकौं लिया जगाइ॥
सुंदर सतगुरु सारिखा, कोऊ नहीं उदार । ज्ञान खजीना खोलिया, सदा अटूट भँडार ॥
हर समय अरदास करूँ मैं,
चरणों में सतगुरु तेरे,
तेरी दया से सतगुरु,
मैं हूँ बड़ी ख़ुशहाल,
सतगुरु रखना हम सबका ख्याल,
Jai gurandiji🙏🌹🕉️🥰🙇♀️
“गुरु” नाम के रस मे तन मन भीग जाता है
सुनकर “गुरु” नाम तो “परब्रह्म” भी रीझ जाता है
चाहे भक्ति का मार्ग हो या दुखो: का चक्रव्युह “गुरुजी” नाम लेने वाला हर परिस्थिती मे जीत जाता है ।
💞💞 जैसे हरे भरे पेड़ पर कोई
सुखी डाली नही होती…
जो “प्रभु” के चरणों में नमन करते है,
उनकी झोली कभी खाली नहीं होती।।
💞💞
फल कच्चे हों या पक्के*
माली बाग़ दी राखी करदा,
चेला पक्का होवे या कच्चा
मेरा सतगुरु सब ते रेहमत करदा ।
💞💞
संतों के द्वारा जो कुछ भी हमें मिलता है वह सबकुछ परमात्मा से ही आता है…..
हे मेरे प्यारें सतगुरु साँवरिया जी,👏
अपने सीने से लगा कर,मेरे गम दूर करदे!
तुझसे जुदा ना हो पाऊँ,मेरे दाता,
इतना मुझे मजबूर करदे..!!👏
मेरी नस नस में बस जाये प्यार तेरा ,
मै किसी को ना देखूं इक तेरे सिवा,ऐसा
तू अपने दीदार के नशे में चूर करदे..!!!
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जैसे कार से आगे उसको रास्ता दिखाने के लिए उसकी लाइट पहुँच जाती है बिल्कुल वैसे ही गुरु की कृपा जीव के आगे उसकी रक्षा करते हुए चलती है
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परमेसुर अरु परम गुरु, दोनों एक समान । सुंदर कहत बिसेष यह, गुरु तें पावै ज्ञान ॥
सुंदर सतगुरु मिहर करि, निकट बताया राम । जहाँ तहाँ भटकत फिरें, काहे को बेकाम ॥
सुंदर सतगुरु ब्रह्ममय, पर सिष की चम दृष्टि । सूधी ओर न देखई, देखे दर्पन पृष्ट ॥
संगति से सुख ऊपजै, कुसंगति से दुख जोय । कहै कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥
संगति कीजे संत की, जिन का पूरा मन । अनतोले ही देत हैं, नाम सरीखा धन ॥
साधुन के सतसंग तें, थरहर काँपै देंह । कबहूँ भाव कुभाव ते ,मत मिटि जाय सनेह ॥
कबीर खाई कोट की, पानी पिवै न कोय जाइ मिले जब गंग से, सब गंगोदक होय ॥
सन्त बड़े परमार्थी, सीतल जिनके अंग । तपत बुझावें और की, देकर अपना रंग ॥
बारह साल रहे सन्तों की टोली। तब समझे सन्तों की इक बोली ॥
सतगुरु की बंदगी करो, वरना उसकी दी हुई रोटी मत खाओ।
सतगुरु की रज़ा और उसकी दी हुई राज़ी रहो, वरना दूसरा ख़ुदा ढूँढो जो तुमको ज्यादा दे ।
यदि पाप का विचार रखते हो तो ऐसी जगह ढूंढ़ो जहाँ तुमको ख़ुदा न देखे, वरना पाप से बाज़ आओ।
शान सिर्फ ख़ुदा के लिए है। तमाम बड़े-बड़े कार्य उनके हुक्म से होते हैं और अजाम पाते हैं। अत: तुम्हारा अहंकार फिज़ूल है।