क्या यह सत्य है
क्या यह सत्य है कि जिसने नाम-दीक्षा ग्रहण की हो वह चाहे कैसे भी कर्म क्यों न करे, मृत्यु के समय सद्गुरु उसकी रक्षा करेंगे?
उत्तर – यदि हम सद्गुरु की आज्ञा मौज में चलते हुए भजनाभ्यास करते हैं, तो सद्गुरु अवश्य ही हमें निजधाम ले जायेंगे, लेकिन हम इसका दावा नहीं कर सकते।
हमें उस योग्य बनना चाहिये। जो जीवन भर सद्गुरु के मार्गदर्शन में सत्संग भजनाभ्यास करेगा तो मृत्यु के समय वे सहायता के लिए आयें यह तो स्वाभाविक ही है।
ऐसा सेवक पतन (माया) की ओर कदापि नहीं जा सकता। हमें शायद इस दृष्टिकोण से आश्वासन चाहिये।
हम जो कुछ भी करना चाहें अपने मन के अनुसार करते जायें; भजनाभ्यास न करें और कहें कि अवश्य ही अन्त समय सद्गुरु हमारी सहायता करेंगे, यह सर्वथा गलत है।
केवल नाम की दीक्षा लेने मात्र से लक्ष्य पूर्ण नहीं होता अपितु क्रियात्मिक रूप में सच्चे नाम की कमाई करने पर ही लक्ष्य पूर्ण होता है।
यदि एक बच्चा अत्यधिक उद्दण्ड बन जाता है अथवा चोरी आदि का निन्दित कर्म करता है अर्थात् अपनी शिष्टता के विपरीत नियमों का उल्लंघन करता है; तो भी उसका पिता उसको पुलिस के हवाले नहीं करता।
वह अपने बेटे को कैद में डालना कदापि पसन्द नहीं करेगा अपितु वह उसे सही मार्ग पर लाना चाहेगा, इसलिये उसे सज़ा देता है। तात्पर्य यह कि यदि हम बिल्कुल भी भजनाभ्यास नहीं करते और यह चाहें कि तब भी मालिक के दरबार में स्वीकार किये जायेंगे अथवा हमें सुर्खरुई मिलेगी। ऐसा नहीं ! सज़ा तो मिलेगी ही।
कभी कभी पिता द्वारा दी गई सज़ा पुलिस से भी ज़्यादा कठिन होती है; फिर भी इस अनुशासन के पीछे शिष्टाचार के विचारों के साथ प्यार भी जुड़ा होता है।
पिता के हृदय में कोई बदले की भावना नहीं होती। उसका लक्ष्य बेटे को सुधारना और उसे एक अच्छा इन्सान बनाना है।
पिता बेटे को सुधारने का दृढ़ प्रयास करता है, लेकिन पुलिस की कैद से बेटे को बचा कर रखता है। इसीप्रकार जो इस भक्ति मार्ग पर चलते हैं, सद्गुरु उन्हें काल के हवाले नहीं करते, अपितु सेवक का सुधार स्वयं ही करते हैं। बुरे कर्मों की सज़ा तो अवश्य मिलती है।
नाम का बीज एक बार बो देने पर कभी भी नष्ट नहीं होता। यदि खेत उपजाऊ है और वहाँ पर बीज डाला है तो अवश्य अंकुरित होगा।
किसी को एक या दो बार अथवा इससे ज़्यादा वर्षा की ज़रूरत है। वह बीज समयानुसार अंकुरित अवश्य होगा। इसीप्रकार जब सद्गुरु हमें नामोपदेश देते हैं वे आत्मा को परमात्मा के समीप ले जाने की ज़िम्मेदारी लेते हैं, लेकिन हमें भी अपना कर्तव्य पूरा करना ही होगा।
अपना कर्तव्य पूरा किये बिना हम ईश्वर के पास उज्ज्वल मुख जाने के योग्य नहीं हैं। परमात्मा तो अपनी अनन्त कृपा से हमसे हमारा कर्म करवाते हैं और जो हम प्राप्त करना चाहते हैं उसे प्राप्त करवाते हैं ।