दिव्य संगीत
आत्म-विज्ञान जो मनुष्य और उसके निर्माता से सम्बन्धित है, उतना ही प्राचीन है, जितनी यह सृष्टि। यह एक ऐसा सत्य है जो सदा से चलता आ रहा है और भविष्य में भी सदा चलता ही रहेगा।
संभवतः यही एकमात्र ऐसा विज्ञान है जो स्वरूपतः पूर्ण है, जिसमें किसी परिवर्तन की संभावना नहीं और जिसमें कोई परिष्कार भी नहीं किया जा सकता।
परन्तु दुर्भाग्य से हमारी भौतिक प्रवृत्तियों के कारण यह आत्म-विज्ञान न केवल लुप्त ही हो गया है अपितु विकृत एवं रूपांतरित भी हो गया है। प्रत्येक व्यक्ति सुख और शान्ति की प्राप्ति के लिए बेचैन दिखाई देता है।
यहां तक कि अब बड़े बड़े राष्ट्र भी शारीरिक-सुखों के लिए किए गए अपने वैज्ञानिक अन्वेषणों से ऊब गए हैं और शान्ति पाने के लिए लालायित हैं। सभी पाश्चात्य देश आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के इस वरदान के लिए पूर्व (भारतवर्ष) की ओर ताक रहे हैं।
प्राचीनकाल से ही भारत ऋषियों, मुनियों और सन्त महापुरुषों का देश रहा है और आज तक ‘आत्म-विज्ञान’ के विषय में यह अग्रणी रहा है।
सन्त-मत या महापुरुषों का मार्ग, जो विज्ञान की इस विशेष शाखा से सम्बन्धित है, कभी भी किसी नये धर्म का प्रचार नहीं करता और न किसी धर्म का विरोध ही करता है।
कोई किसी भी अवस्था में हो और किसी भी धर्म में विश्वास रखता हो, सन्तजन उसमें हस्तक्षेप नहीं करते। एक साधक को यह अवश्य जान लेना चाहिए कि उसे दिव्य संगीत के साथ अपनी लय कैसे मिलानी है।
अपने धर्म या जाति में परिवर्तन लाने की उसे कोई आवश्यकता नहीं। यह विज्ञान उन जीवों के लिए है जो परम सत्य को जानने के इच्छुक हैं और मानव जीवन के वास्तविक उद्देश्य को पूरा करना चाहते हैं।
इसलिए उन्हें इस विज्ञान का अध्ययन उसी उत्साह और विश्वास से करना चाहिए जैसा कि किसी अन्य विज्ञान के लिए आवश्यक होता है तथा उसे तटस्थ एवं निष्पक्ष मन से अपनी खोजों को पूरा करना चाहिए।
यह आशा की जाती है कि कुछ समय में ही इस विज्ञान के पक्ष में किये गये दावों के कुछ प्रमाण उसे अवश्य प्राप्त हो जायेंगे। यह याद रखना चाहिए कि अपने भीतर प्रतिध्वनित इस दिव्य संगीत की खोज में सफलता उतनी ही मिलेगी जितनी ध्यान अभ्यास में साधना की जायेगी।
श्री गुरुनानक देव जी कथन करते हैं
ऐ मानव! सन्त-महापुरुषों के पवित्र उपदेशों को सुन वह वही बताते हैं जो उन्होंने स्वयं अपनी आँखों से देखा होता है।
सभी सन्त चाहे वे किसी भी धर्म, जाति अथवा वर्ग के हों,जिन्होंने अपने अन्दर मालिक के नूर को अनुभव किया है सबका यही मत है कि परमपिता परमात्मा केधाम की ओर ले जाने वाला मार्ग सबके लिए एक ही है।दूसरा कोई मार्ग नहीं।
जैसे कि पूर्व अध्याय में विवेचन किया गया है कि आत्मा को ‘नाम’ के साथ मिलाने की एक ही विधि है। यह ‘नाम’ का वरदान परमात्मा ने सबको समान रूप से दिया है परन्तु उससे लाभ प्राप्त करना यह प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत विवेक पर छोड़ दिया गया है।
‘दिव्य संगीत’ के इस विज्ञान को शाश्वत संगीत (अनहद धुन) भी कहा गया है और यह महापुरुषों के विज्ञान का मुख्य विषय है। यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि सम्पूर्ण विश्व का अस्तित्व ही इसी पर निर्भर है। यद्यपि यह विज्ञान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है तथापि सभी विज्ञानों में से यह शाखा बिल्कुल अज्ञात ही है।
यह दिव्य संगीत स्वयं परमात्मा से ही सम्पूर्ण विश्व में प्रवाहित हो रहा है। इसे परमात्मा से उत्पन्न हुआ नहीं मानना चाहिए अपितु यह स्वयं परमात्मा ही है। इसीलिए परमात्मा को सर्वव्यापक एवं विश्वव्यापक कहा जाता है।
भौतिक विज्ञान के अनुसार ध्वनि एक स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण करती है। इसलिए यदि इस संसार में कहीं कोई बोलता है तो वह केवलमात्र वायुमण्डल के प्रकम्पनों में गति उत्पन्न करता है। परन्तु इन प्रकम्पनों के भीतर वह (परमात्मा) स्वयं चलता अथवा भ्रमण करता है।
जब वह (परमात्मा) बोलता है तो प्रत्येक वस्तु जो अस्तित्व में होती है प्रकम्पित हो जाती है और वह ‘ध्वनि’ या ‘शब्द’ कहलाती है।
‘ध्वनि’ अथवा ‘शब्द’ अथवा ‘नाम’ की यह दार्शनिक व्याख्या है। भौतिक विज्ञान में गति का नियम हमें बताता है कि एक वस्तु उस स्थान की ओर जाती है जहाँ वह नहीं है। परन्तु परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है, अतः हम यह कह सकते हैं कि ‘शब्द’ या ‘नाम’ भी सर्वत्र व्याप्त है।
एक नास्तिक व्यक्ति ने अपने ड्राइंग रूम की दीवार पर लिखा था- ‘God is nowhere.’ अर्थात् भगवान कहीं भी नहीं है। उसका पुत्र विद्यालय से लौटा और उसने इस पंक्ति को इस प्रकार पढ़ा- ‘God is now here.’ अर्थात् परमात्मा अब यहाँ है।
दोनों पंक्तियों में शब्द समान हैं, वर्ण समान हैं परन्तु दोनों पंक्तियों के अर्थ में बहुत ही अन्तर है। इससे हमारे अन्तर्हदय की स्थिति पता चलती है।
पिता जो कि भौतिकवादी था, बाह्य सांसारिक पदार्थों में ही जो ईश्वर को ढूँढता रहा, और सन्त-महापुरुषों के मार्ग पर कभी चला ही नहीं, वह परमात्मा को कहीं भी प्राप्त न कर सका।
परन्तु उसका अपना पुत्र जिसका मन एक स्वच्छ स्लेट की भाँति था और भौतिक संसार द्वारा दूषित एवं मलिन नहीं हुआ था, उसी पंक्ति का सही अर्थ इस प्रकार लगा सका कि ‘God is now here.’ अर्थात् ‘परमात्मा अब यहाँ है।’
शब्द के प्रकम्पन से जो संगीत उत्पन्न होता है वह समस्त सृष्टि के सभी जीवों की जीवन शक्ति है।
यद्यपि यह सब प्राणियों में विद्यमान है परन्तु मानव में यह विशिष्ट रूप से है और उससे भी उत्कृष्ट रूप में सन्त महापुरुषों में है, जो अपने आन्तरिक कानों से इस संगीत को सुनने का अच्छा अभ्यास रखते हैं।
प्रकृति के इस मूल विज्ञान से ही सृष्टि के छोटे से छोटे अंश की अभिव्यक्ति होती है और यह सन्त महापुरुषों के विज्ञान का मुख्य विषय है।
इस ‘शाश्वत संगीत’ अर्थात् अनहद नाद का विवेचन करना सम्भव नहीं है। क्योंकि किसी भी भाषा द्वारा इसका वे सदा विवेचन नहीं हो सकता।
कई प्राचीन विद्वानों ने इस संगीत का यथासम्भव विवेचन करने की कोशिश की थी परन्तु असफल ही रहे हैं क्योंकि यह भाषा का विषय नहीं है।
यदि इस भूमंडल पर मनुष्य द्वारा बोली जाने वाली सभी भाषाओं की अभिव्यक्ति करने वाली उच्चतम शब्द शक्तियां चुन ली जायें तब भी प्रकृति के इस आधारभूत सिद्धान्त की व्याख्या नहीं हो सकेगी।
इसके स्वर लौकिक अन्य वाद्यों के स्वरों से विशिष्ट हैं। इसका उल्लासजनक स्वर माधुर्य हृदय के प्रत्येक प्रकोष्ठ में हलचल पैदा कर देता है परन्तु इसका यथार्थ रूप है पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं होता।
जब यह संगीत पूर्ण गुरु के शिष्य द्वारा अन्तर्हदय में सुना जाता है तो वह मोहित, भावविभोर में एवं परम आनन्द से भरपूर हो जाता है। कभी-कभी तो साधक से कई घंटों तक समाधि अवस्था में ही रहता है।
सन्त-महापुरुष जो सदा परमात्मा से एकरूप हुए होते हैं, प्रमाण रूप से कहते हैं कि यह ईश्वर से प्रवाहित हो रहे दिव्य प्रवाह की एक झलक है। इसी से ही सबकी सत्ता है और इसी से ही सबकी पालना होती है। प्रत्येक जीव इसी प्रवाह में ही उत्पन्न होता है, जीवन प्राप्त करता है तथा अन्त में अपने मूल स्रोत में इसी प्रवाह द्वारा लीन हो जाता है।
हमारे भीतर ईश्वरीय राज्य के पांच पृथक्-पृथक् लोक हैं। यह सभी एक दूसरे से अधिक सूक्ष्म एवं स्वयं ज्योतिर्मय (प्रकाशमान) हैं तथा अलग-अलग ध्वनियों से गुंजायमान हैं।
जितना अधिक हम अन्दर की ओर जाते हैं, यह संगीत उतना ही अधिक मधुर और मोहक होता जाता है। तीसरे मण्डल को पार करने के बाद मिला-जुला यह उदात्त संगीत इतना अधिक मोहक और स्वरों में स्पष्ट होने लगता है कि आत्मा और आगे जाने के लिए अधीर हो उठती है।
साधक उसमें पूरी तरह लीन हो जाता है। यह उसका जीवन, उसका सुख, उसकी आत्मा का भोजन तथा उसके लोक-परलोक का आधार बन जाता है।
इस शाश्वत् संगीत के मधुर दिव्य स्वर सभी प्राणियों, समस्त लोकों और ब्रह्माण्डों में गुंजायमान होते हैं। यह दूसरी बात है कि जीवनदायी यह मधुर संगीत उन लोगों को सुनाई नहीं देता जिन्हें इसकी लय में अपनी सुरत को लगाने का अभ्यास नहीं है।
शायद ही सृष्टि में कोई ऐसा प्राणी होगा जिसने इस नाद को एक बार पूर्ण एकाग्रता से सुना हो और से वह पुनः इससे आकृष्ट न हुआ हो। इस भू-मण्डल पर सुख और आनन्द का यदि कोई स्रोत है तो वह है—यह ‘दिव्य शाश्वत नाद’ ।
यदि धर्म नाम का कुछ है तो उसका स्रोत भी ‘अनहद संगीत’ ही है। आखिर, धर्म का उद्देश्य क्या है? यदि धर्म अपने अनुयायियों को सुख और नित्य शान्ति प्रदान करता है। और आत्मा को अपने स्त्रोत परमात्मा से मिलाता है तो वह वास्तव में धर्म है, और यदि ऐसा नहीं तो वह धर्म नहीं है।
सच्चा धर्म वही है जो आत्मा का परमात्मा से मिलाप कराये, यही सभी अवतारों, ऋषियों, सन्तों और महात्माओं ने उपदेश दिया है, अब भी देते हैं और इसके बाद भी यही उपदेश देते रहेंगे। आत्मा को मन के चंगुल से और काल की यातनाओं से मुक्त कराना है। केवल वे ही जो सत्पुरुषों की राहनुमाई में ईश्वर की प्राप्ति में विशेष प्रयत्नशील हैं, सच्चे धर्मात्मा कहे जा सकते हैं।
यह अनहद नाद सभी मनुष्यों में विद्यमान है, इसलिए मनुष्य कौन से धर्म को मानता है, यह कोई महत्त्व की बात नहीं है। यह नाद विश्वव्यापक धर्म और बन्धुभाव का मूल आधार है और प्रत्येक व्यक्ति के मानसिक दृष्टिकोण में मूलतः परिवर्तन लाकर उसे घृणा, प्रतिशोध से प्रेम और शान्ति के धाम में पहुँचा देता है।
यह दिव्य संगीत सम्पूर्ण सृष्टि की पालना करने वाला है — सभी ध्वनियों का प्राण है। रेंगती हुई चींटी से लेकर विशालकाय हाथी तक, ज्वार-भाटा की छोटी सी लहर से लेकर सूर्यमण्डल के चक्र तक सम्पूर्ण सृष्टि के पीछे इस नाद की शक्ति गतिशील है।
भौतिक विज्ञान जिसे ऊर्जा कहते हैं और ऋषियों ने जिसे प्राण कहा है, वह भौतिक जगत् के कार्यों में केवल इस शाश्वत संगीत की अभिव्यक्ति ही है।
जिस प्रकार वायु में विद्युत (बिजली) व्यापक है, उसी में प्रकार यह शाश्वत संगीत भी व्यापक है। यह ध्वनि सर्वशक्तिमान भी है क्योंकि इसमें शक्ति विद्यमान होती है, चाहे वह गुप्त हो या गतिशील। स्वयं की अभिव्यक्ति के लिए इसे ईश्वरीय राज्य से भौतिक जगत् में आना पड़ता है, जहां इसके विभिन्न नाम पड़ जाते हैं।
केवल एक गुण, जो इसके सही रूप को बताता है, उसे ‘प्रेम’ कहा जा सकता है। और, सन्तों का भी यही कहना है कि ‘ईश्वर ही प्रेम है’ और ‘प्रेम ही ईश्वर है’।
इसका सही रूप से विवेचन करने में असमर्थ होने के कारण हम केवल यही कह सकते हैं कि विषय गहन होने के कारण इसे शब्दों द्वारा नहीं बताया जा सकता। जब जब भी यह विज्ञान लुप्त हो जाता है तब तब परमात्मा मनुष्य रूप में अवतार लेकर इस विज्ञान को पुनः प्रकट करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं
॥ श्लोक ॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानम् धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ॥ गीता ४/७
अर्थ- “जब जब धर्म का नाश होता है और अधर्म बढ़ने लगता है, तब तब मैं किसी रूप में अवतार लेता हूँ।”
यहां भगवान् ने स्वयं स्पष्ट रूप से कहा है कि धर्म की अवनति होने से वे स्वयं मृत्युलोक में आते हैं। परन्तु यह धर्म है क्या ? पारमार्थिक जीवन धर्म है और अपारमार्थिक जीवन अधर्म है।
परन्तु यह पारमार्थिक क्या है? यहां यही कहना पर्याप्त होगा कि जो प्रक्रिया आत्मा को अपने मूल स्त्रोत परमात्मा की ओर ले जाये, वह पारमार्थिक है।
यह अन्तर्मुखी प्रक्रिया जिसे ‘सुरत-शब्द योग’ कहा जाता है, इसमें अनहद धुन ‘सुरत’ को अन्दर ही अन्दर ऊँचा ले जाने में, जब तक वह ईश्वर के परमधाम ‘अनामी देश’ में नहीं पहुँच जाती, मार्गदर्शक का कार्य करती है।
इस प्रकार भगवान कृष्ण के कथन से हमें पता चलता है कि भगवान प्रत्येक युग में लुप्त हुए धर्म-परमार्थ को पुनर्जीवित करने के लिए अवतार लेते हैं।
हाड़-मांस के इस शरीर में आन्तरिक कान हैं जो आहत नाद तथा अनाहत नाद को ग्रहण करने के लिए एक यंत्र का काम करते हैं।
ध्वनि को ग्रहण करने का यह यंत्र ठीक रेडियो के समान है जिसे संगीत सुनने के लिए सही स्थान पर केवल लगाना ही होता है। जिस प्रकार किसी के घर में एक रेडियो में है, उसे ठीक से चलाने के लिए एक व्यक्ति की आवश्यकता है। (वही व्यक्ति जिसे यह पता है कि रेडियो की सुई कहां पर करने से कौन सी संगीत ध्वनि उत्पन्न होगी, वही उसे ठीक से चला सकता है।)
उसी तरह हमारे शरीर में विद्यमान ध्वनि को ग्रहण करने वाले इस कर्ण-यंत्र द्वारा मधुर संगीत सुनने के लिए ‘गुरु’ की आवश्यकता है।
(क्योंकि केवल गुरु ही जानते हैं कि सुरत को कहां जोड़ देने से मधुर शाश्वत संगीत उत्पन्न होता है।) भीतर की आत्मिक रचना बहुत सूक्ष्म है और एक साधारण व्यक्ति को इसका पता नहीं होता, इसलिए आन्तरिक श्रवण शक्ति को बढ़ाने में कुछ समय लग जाता है।
इसके लिए (अनहद धुन को सुनने के लिए) भीतर के मानसिक और बौद्धिक सारे यंत्रों को पुनः ठीक तरह से लगाना होता है। मन का भीतर जाने का अभ्यास अवश्य होना चाहिए।
इसे विपरीत दिशा में मोड़ने में कुछ समय तो लगेगा ही। क्योंकि यह मन कई जन्मों से इन्द्रिय सुखों के पीछे भाग रहा है और उसे उसके पुराने रस से हटाकर बिल्कुल अज्ञात मार्ग की ओर ज़बरदस्ती चलाना मन को स्वीकार नहीं होगा।
यहां मनुष्य को मन से मुकाबला करना होगा और मन को भीतर के नये मार्ग की ओर जाने के लिए प्रेरित करना होगा। मन को प्रशिक्षित करने में कुछ समय अवश्य लगेगा परन्तु जैसे ही मन इस नये मार्ग को जान लेगा तो वह उसका एक वफ़ादार मित्र बन जायेगा।
इस मधुर संगीत का आनन्द इस विश्व में अतुलनीय है। यह श्रोता की आत्मा का जीवन बन जाता है, उसे पुनर्जीवित करता है और श्रोता स्वयं को एकदम भिन्न संसार में समझने लगता है। अब इन्द्रियों के विषय उसे आकर्षित नहीं करते, संसार की अति अधिक कीमती वस्तु भी उसे कंकर के समान लगती है।
मृत्यु उसके लिए अब कुछ महत्त्व नहीं रखती। वह अमरता को प्राप्त कर लेता है। यही मन की सच्ची शान्ति है। मृत्यु तो इस भौतिक शरीर की होगी जिसकी पीड़ा उसे बिल्कुल अनुभव ही न होगी।
ऐसा भक्त तो मृत्यु के नाम पर हँसता है और अनहद धुन से खिंचता हुआ वह अपने पिता परमात्मा के पास पहुँच जाता है। एकाकार के उल्लास से वह सभी आसक्तियों को पीछे छोड़ देता है। इस प्रकार वह मनुष्य-जन्म के लक्ष्य को प्राप्त करता है और अध्यात्म के अनन्त समुद्र में, जहां से वह आया था, वापस लीन हो जाता है।
अतः जो मनुष्य मन की शान्ति प्राप्त करने का इच्छुक है, उसे ये तीनों बातें अवश्य अपनानी चाहियें।
1. सद्गुरु 2. सत्तनाम अथवा शाश्वत संगीत 3. सत्संग ।
शान्ति शान्ति अलौकिक शान्ति,
मिलती है परम पिता से हमें ।
आत्मा शुद्ध हमारी हो,
यही मांगते प्रभु हम तुमसे ।
डूबे रहें अथाह प्रेम में ,
दे दो ऐसा वरदान हमें ॥