विचारों से कैसे बचें
सुखमनी साहिब में वर्णन आया है
साथि न चालै बिनु भजन बिखिआ सगली छारु ॥ हरि हरि नामु कमावना नानक इहु धनु सारु ॥
फ़रमाते हैं कि केवल नाम का धन ही है जो आत्मा के साथ जाता है। बाकी जगत का सारा पसारा मिथ्या व नश्वर है। सब यहीं का यहीं रह जाना है। इसलिए तू सदैव मालिक के नाम का ही सुमिरण कर क्योंकि यही सर्वोत्तम व सच्ची पूँजी है।
इस अनमोल पूँजी को सुरक्षित रखना अति अनिवार्य है क्योंकि वस्तु जितनी अमूल्य हो, उतना ही उसका चोरी होने का भी भय होता है।
जो रूहानी धन से भरपूर है उसे अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना अति आवश्यक है। आँख, कान, एवं मुख पर पूर्ण नियन्त्रण रखना पड़ता है ताकि कोई भी अनुचित विचार या ख्याल मन में प्रवेश करके कोई विक्षेप न पैदा कर दे। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार आदि दुश्मनों से हर पल सतर्क रहने की पूर्ण आवश्यकता है।
राजा भर्तृहरि
राजा भर्तृहरि ने रत्नों जड़ित महल, हीरे जवाहरातों से जड़े असंख्य आभूषणों व हज़ारों रानियों को त्यागकर वैराग्य धारण किया। एक दिन चांदनी रात के हलके उजाले में धरती पर एक आदमी की पान की थूक को लाल समझकर वह जैसे ही उठाने लगे तो उनका हाथ थूक से भर गया। मन ही मन गहरा अफ़सोस प्रकट करते हुए वह कहने लगे
रतन जड़ित सिंघासन तजे, तजी सहस्त्रों नार
अभी भी कामना ना तजी, ए मन तोहे धिक्कार ||
कहने का तात्पर्य यह है कि मन पर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि हावी हुए रहते हैं। भक्ति के धन को सुरक्षित रखने के लिए इन शत्रुओं से अपनी रक्षा करना अति अनिवार्य है।
भाई सत्ता और बलवण्ड
भाई सत्ता और बलवण्ड गुरु दरबार में वाणी का गायन किया करते थे। उनके स्वर में इतना माधुर्य था कि जो भी उनका कीर्तन श्रवण करता वह सुधबुध भुलाकर आत्मविभोर हो उठता।
अपने परिवार में किसी शादी के लिए उन्होंने गुरु साहिब जी से एक दिन के चढ़ावे की मांग की। कुदरत का करिश्मा, उस दिन जो चढ़ावा चढ़ा वह उनकी उम्मीद से काफी कम था। इस बात पर क्रोधित होकर सत्ता और बलवण्ड वहाँ से उठकर अपने घर की ओर चल दिए।
गुरु साहिब जी के बुलाने पर भी न आए। अंहकार ने ज़ोर दिखाया तो गुरु घर की निंदा करते हुए कहने लगे कि अब देखेंगे कि कौन इतना अच्छा कीर्तन करेगा और कहाँ से धन भेंट चढ़ेगा ?
कहाँ तो इतना प्रेम और कहाँ अहंकार के वशीभूत होकर उन्होंने सद्गुरु के हुकम की अवहेलना कर दी। जिसका भाणा सत्य करके मानना चाहिए था उनकी बेअदबी कर दी। गुरु के हुकम का उल्लंघन करने के कारण उनके शरीर पर कोढ़ हो गया।
अन्ततः जब उन्होंने श्री चरणों में आकर क्षमा मांगी तब गुरु साहिब जी ने अपनी किरपा से उन्हें नवाज़ कर पुनः भक्ति धन से भरपूर कर दिया।
भाई गुरदास जी
ऐसे ही भाई गुरदास जी भी अहंकारवश सद्गुरु के वचन पर संशय कर भक्ति की अमूल्य निधि को खो बैठे। कई वर्षों तक अशान्त होकर भटकते रहे।
अन्ततः सद्गुरु की किरपा से ही सद्बुद्धि मिली और पुनः सद्गुरु की किरपा के पात्र बनकर उन्होंने रूहानी धन को प्राप्त किया। इन कथाओं से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि मन हमें भ्रम में डालकर भक्ति से गुमराह न कर दे इसके लिए सदैव अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना चाहिए।
नित्य कर्म की श्री आरति पूजा, सुमिरण ध्यान, सेवा, सत्संग व गुरु भक्ति को सुदृढ़ करने वाली सुंदर कथाओं का स्वाध्याय करने से गुरु भक्ति सुदृढ़ होगी और जीवात्मा शब्द का रसपान करती हुई विकार मुक्त हो आनन्दस्वरूप हो जाएगी।