॥ कविता ॥ – अमृत पैदा होता है
अमृत पैदा होता है सतगुरु के शब्द से,
अमर हो जाता है वह जो कोई इसको चख ले ।
कोई भाग्यशाली ही इस बूंद का रसपान करे,
रह हुकम में गुरु की आज्ञा को जो है शीश धरे ।
जो शिष्य सतगुरु के वचनों पर अडिग रहते नहीं,
उन अभागों को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं ।
गुरु आज्ञा से हो विमुख उनको न मिलेगी ठौर कहीं,
खाएं ठोकरें दर दर की होगा कभी निस्तार नहीं।
वचन अमोलक सतगुरुके जीव के मन की मैल हरें,
कर देवें तन मन निर्मल कोई न संशय भ्रम रहे ।
वचनों में सुख सिन्धु समाया जो इनका रसपान करे,
भक्ति से भर लेवे दामन जो इनको हिय में है धरे ।
सतगुरु का हर वचन इलाही कोउ न मेटनहार,
शीश चढ़ा जो हृदय में धारे लेवे जन्म सँवार ।
अनमोल दातों का पाए खज़ाना मिटा मिथ्या अहंकार,
लोक परलोक सँवरता उसका पाए प्रभु का प्यार।
धुर दरगाही गुरु वचनों पर जो प्राणी अमल करे,
उसकी सारी विपदा दुविधा स्वयं श्री हरि आप हरें ।
कुदरत उसकी बने सहायी उसके सारे काज सरें,
शाद होती रूह रूहानियत की ओर जब पग हैं बढ़ें।
जो सेवक मन की सोच और लोक लाज को छोड़कर सद्गुरु के हुकम को सत् करके शीश पर रखता है, उस सेवक की संभाल भी सद्गुरु स्वयं करते हैं। सद्गुरु पर भरोसा रखकर जो प्राणी रूहानियत की ओर पग बढ़ाता है,कुदरत की सारी शक्तियां उसकी सहायता के लिए प्रस्तुत रहती हैं।