॥ कविता ॥
समय की सार्थकता
1. बाजी जीत कर जगत से खुश होकर वह जाए ।
समय को जो मालिक की भजन बन्दगी में लगाए।
छोड़कर झूठी ममता को वह मालिक से जुड़ जाए।
रसना को कर लीन शब्द में गुणवाद प्रभु के गाए ।।
2. जन्म लिया जिस ने जहान से वह जाएगा ज़रुर ।
भले ही पद परिवार और वंश का हो उसे गरूर ।
साथ न कुछ भी जा सके कुदरत का यह दस्तूर ।
समय सकारथ कर ले गर पानी खशियां भरपूर ।।
3. माया को एकत्र करने की न ले किसी से सलाह ।
असली पूँजी साथ जो जानी कर उसकी परवाह ।
वहदत की ओर जाने की है गर तझ को चाह ।
सतगुरु की राहनुमाई में तय कर मंजिल की राह ।।
4. हाथों से भले ही करो तुम दुनिया के सब काज ।
पर सतगुरु के नाम बिना न व्यर्थ हो इक स्वांस ।
धड़कन में बसा लो सच्चे नाम की मीठी आवाज़
‘ सतगुरु को बना के मीत कर लो सब कारज रास ।।
5. रिश्ते नाते, मित्र, सब सम्बन्धी, है सब झूठ पसारा ।
इसमें साचा कुछ नहीं कछ नहीं सब स्वारथ का व्यवहारा ।
इन खुदगर्जों से प्राणी जो प्राणी करता नहीं किनारा ।
तलिया मल फिरे पछताता जग में मारा मारा ।।
6. आया था करने इस जग में नाम का तू व्यापार ।
फस गया दुश्मन की कैद में रहा न तू होशियार ।
कौड़ियों बदले खो दिए बेशकीमती हीरे जवाहर ।
सौदा करके घाटे का किस मुख जाओगे दरबार ।।
7. ज्यादा वक्त तो बीत गया, बचा जो जीवन शेष ।
प्रपंचों को त्याग कर कुछ कर लो कार्य विशेष ।
हर पल तुझे सुजाग है करता सतगुरु बन दरवेश ।
उसकी नज़रे इनायत पर करो विश्वास हमेश ।।
8. दुनिया है चंद दिन का मेला इसमें न चित्त अटका ।
बेशकीमती स्वांसों की इसी समय में कदर ले पा ।
जो करना है अभी तू कर ले न हाथ से कुछ गंवा ।
काल कुछ बिगाड़ने न पाए ए प्राणी तू चेत जा ।।
9. चंद रोज़ की जिंदगानी में कुछ कर्म ले ऐसे कमा ।
जहाँ जाना है वहाँ के लिए कोई ले तू जगह बना।
सफर में जो मिले हैं साथी उनमें न चित्त अटका ।
छोड़ कर आस बेगानी गुरु संग ले प्रीत लगा ।।