सतगुरु सदैव अंग संग हैं
सद्गुरु को सदा अंग संग समझना ही रूहानियत का सर्वश्रेष्ठ गुण है। जिस प्राणी में यह गुण परिपक्व हो जाता है, वह पाप कर्मों से बचा रहता है।
एक छोटा सा दृष्टांत है-
एक बार किसी सन्त ने अपने सेवक को एक पक्षी दिया और उसे हुकम किया कि इसे ऐसी जगह पर मारना, जहाँ कोई भी न देख रहा हो। वह सेवक उस पक्षी को दूर ले गया लेकिन जहाँ भी मारने का प्रयास करे, वहीं उसे अपने गुरुदेव खड़े दिखाई दें। उसके ध्यान में इतनी परिपक्वता थी।
पक्षी लेकर वापस आ गया और अर्ज़ की कि सच्चे पादशाह! मैं जहाँ भी गया, वहाँ आपको मौजूद पाया। इसलिए मैं इस पक्षी को मारने में असफल रहा।
सद्गुरु ने उसकी ऐसी उच्च अवस्था देखकर उसे आशीर्वाद दिया।
गुरुवाणी में वर्णन आया है :-
सगल गुणा गुण ऊतमो भरता दूरि न पिखु री ॥
सत्पुरुष फ़रमाते हैं कि सबसे उत्तम गुण यही है कि तू मालिक को कभी न दूर समझ। जब तुझमें ऐसा भाव आ जाएगा तो प्रभु सदैव तेरे अंग संग रहकर तेरी सहायता करेंगे। प्रह्लाद ने प्रभु को सर्वव्यापी समझा। उसने इसी गुण व विश्वास के कारण ही अपने शक्तिशाली पिता पर विजय पाई। पिता द्वारा अनेकों यातनाएं दिए जाने पर भी वह अपने निश्चय पर अडिग रहा। आखिरकार प्रभु ने खम्भे में से प्रकट होकर प्रहलाद की रक्षा की।
इसके विपरीत हिरण्यकशिपु में इस गुण का सर्वथा अभाव था। वह स्वयं को अपराजित जान भगवान की सत्ता पर विश्वास न रखता था। परिणामस्वरूप अहंकार के नशे में अँधा होकर उसने अपनी जान गंवा दी।
परमेश्वर का नूर जरे जर्रे में है विराजमान ।
खोल दृष्टि अंतर की तू कर ले उनकी पहचान ॥
जो भक्त भगवान को सर्वव्यापक समझता है उसके दिल से वैर, विरोध, घृणा और भय स्वतः ही समाप्त हो. जाते हैं। शत्रुता को भुलाकर वह समद्रष्टा बन जाता है।
कथा है- श्री गुरु गोबिंद साहिब जी भाई कन्हैया जी की
कथा है- श्री गुरु गोबिंद साहिब जी के समय में मुगलों से युद्ध हो रहा था। युद्ध के मैदान में गुरु साहिब जी ने भगत कन्हैया को घायल सेवकों को जल पिलाने की सेवा प्रदान की। भाई कन्हैया पानी की गागर हाथ लिए । तन मन से दोनों सेनाओं के घायल व्यक्तियों को पानी पिलाने में जुट गया।
उसकी दृष्टि में सिक्ख व मुसलमान कोई भेद न था। अतः वह मसलमानों को भी बराबर जल पिलाने लगा। यह देखकर सिक्खों ने गरु साहिब जी से जाकर शिकायत कि भाई कन्हैया मुगल सैनिकों को जल नकी सहायता कर रहा है। हम बड़ी कठिनाई से घायल करते हैं लेकिन यह जल पिलाकर उन्हें वापस होश में ले आता है।
श्री गुरु महाराज जी’ जी ने उसे सभी सिक्खों के सामने बुलाकर पूछा कि तुम मुसलमानों को पानी क्यों पिला रहे हो? उसने बड़ी ही नम्रता से जवाब दिया कि सच्चे पादशाह! मुझे तो आपके सिवा वई कोई भी नज़र नहीं आता। मैं जिधर देखता हूँ, मुझे केवल आप ही आप दिखाई देते हो। इसलिए मैं सभी में आपको ही जान सबको पानी पिलाये जा रहा हूँ।
गुरु साहिब जी ने उसे इतनी उच्च अवस्था में पहुंचा। देखकर उसे मरहम पट्टी देकर कहा कि भाई कन्हैया। तू घायलों को पानी पिलाने के साथ उनकी मरहम पटटी भी कर दिया कर। ध्यान में परिपक्व जीव की द्वैत भावना का नाश हो जाता है। उसकी सुरति सदैव अद्वैत में समाई रहती है।
मैं मेरी का वैर भाव जो दिल से अपने मिटाते । द्वैत भुलाकर दिल से रहते प्रभु के रंग में राते ॥
इसी प्रकार पाण्डवों को भगवान श्री कृष्ण जी पर : अटूट श्रद्धा एवं अनन्य विश्वास था। वे उन्हें सदैव अपन : अंग संग जान उन्हें अपना रक्षक मानते थे। वास्तव में भगवान श्री कृष्ण जी ने उन्हें हर कठिनाई से बचाया भी। दुर्योधन ने जब भी उनसे शत्रुता कर उन्हें क्षति पहुंचा चाही भगवान श्री कृष्ण जी ने पाण्डवों की पूरी मदद की। एक बार भीमसेन को मिठाई में विष खिलाकर दुधि उसे गंगा नदी में फेंक दिया।
भगवान की कृपा से वह वहां से नागलोक में पहुँच गया और वासुकी नाग के द्वारा उसे हजार हाथियों का बल मिल गया। दुर्योधन की यह सोच कि जिसको मैं मारूंगा वह मर जाएगा असफल रही।
गुरुवाणी में वर्णन आया है :
जिसु राखै तिसु कोइ न मारै ॥
भाव यह कि जिसके रक्षक स्वयं प्रभु हों, उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। दुर्योधन सदा अपने बल के अहंकार में ही डूबा रहा और भगवान की सत्ता को न मानकर उसने अपनी राह में स्वयं ही कांटे बो लिए। यही भीमसेन युद्ध के दौरान कौरवों पर खूब भारी पड़ा और उसने सारे कौरवों का नाश कर दिया।
तात्पर्य यह कि जिसने सद्गुरु को सर्वत्र विराजमान समझा, सदैव अंग संग जाना तो सद्गुरु ने भी प्रति पल उनकी संभाल करके उनके जीवन में आनन्द ही आनन्द भर सच्ची खुशियों से ओत प्रोत कर दिया। ऐसी सूझबूझ दृष्टि भी किन्हीं विरले भाग्यशाली गुरुमुखों को ही प्राप्त होती है।