संकल्प शक्ति
विचार में बहुत शक्ति है। यदि विचार मनुष्य के अन्दर न हो तो वह संसार में जन्म नहीं ले सकता । अन्तिम समय जैसी भावना और संकल्प होता है, उसी के अनुसार मनुष्य को अगला जन्म मिलता है। शरीर के अन्दर संकल्प शक्ति के कारण ही मनुष्य चेतन भासता है। स्वप्न अथवा निद्रावस्था में विचार शरीर से बाहर चला जाता है।
वैसे तो विचार हर समय बाहर घूमते रहते हैं. परन्तु उस समय दृढ़ आत्म विचार ही स्थित रहता है और दूसरा विचार मन को साथ लेकर काल्पनिक संसार की रचना करता है।
इस जैसे ही दूसरे शरीर की रचना हो जाती है। उस विचार में रचना करने की शक्ति आ गई। यह केवल स्वप्न और जाग्रत अवस्था के मध्य की रचना है जिसे एकाग्रता कहा गया है
मन के एकाग्र होने से संकल्प में वह शक्ति आ गई जिसके द्वारा क्षण भर में नगर, बाजार, रेल गाड़ियाँ इत्यादि अनेक रूप में रचना हो गई। यह शरीर तो जहाँ सोया था. वहीं पड़ा होता है, परन्तु इस शरीर के अन्दर थोड़ा भाग ऐसा है जिसमें त्रिलोकी की रचना होती है।
यह जीव काल्पनिक संसार को रचकर उसमें भ्रमण करता है। वह जागृत अवस्था के समान ही हँसता बोलता अर्थात् सब कार्य करता है। जब उसकी आँख खुली तो उस लोक से फिर इस लोक में आकर उसी विचार से कार्य करने लगता है अर्थात् जो विचार स्वप्न में कार्य करता था ।
भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि मैं आँख बन्द करने पर संसार को लय कर लेता हूँ और आँख खोल कर संसार की रचना कर लेता हूँ। यह जीव भी उसी भगवान् की अंश है। जब इसको थोड़ी एकाग्रता प्राप्त हुई तो जीव सृष्टि से हट कर वह आत्म भाव में लीन हो जाता है।
फिर स्वप्न में भी अपनी रचना आरम्भ कर देता है। उदाहरण के रूप में बच्चा कई बार माता-पिता की नकल उतारता है। वह खेल ही खेल में मिट्टी के घर बना कर अपने सभी साथी बच्चों से दिल बहलाता है, परन्तु वास्तव में वह घर सच्चे नहीं होते ।
ठीक इसी प्रकार जीव भी उस परम पिता परमात्मा और माया रूपी माता की सांसारिक रचना देख कर स्वप्न में एकाग्रता के बल द्वारा नया संसार रच लेता है, परन्तु यह सत्य नहीं होता ।
यद्यपि स्वप्न की एकाग्रता छोड़ कर योगाभ्यास में इसको एकाग्रता प्राप्त हो जाये अर्थात् निज स्वरूप में लीन होकर सुर्ति को शब्द द्वारा अन्दर लगाए तो यही वास्तविक युक्ति ईश्वर तक पहुँचने की है। तब वह आवागमन के दुःख से छूट कर तद्रूप हो जाता है।
उसे सासारिक रचना का पूरा पता चल जाता है अर्थात् अपने पिता के घर का पूरा भेदी बनकर उसी का मालिक बन जाता है । भावार्थ यह है कि जीवभाव में दुःख है और एकाग्रता में सुख है।
इस प्रकार अनेक विचार उत्पन्न होने से यह जीव कहलाता है क्योंकि विचारों के फैलने से इसकी शक्ति कम हो गई। जब संकल्प पूरे नहीं होते तो यह जीव दुःखी होता है। जब इस जीव को यह निश्चय हो जाता है कि मैं संसार की रचना करने वाला नहीं हैं, संसार को रचना करने वाला और है, मेरा कर्त्तव्य तो केवल यही है कि अनेक ओर से विचार को हटा कर एक केन्द्र स्थान पर ध्यान को एकाग्र करूँ।
माया का पर्दा हटते ही उसे प्रतीत होगा कि
मैं वही हूँ-
हट गया पर्दा तो फिर दीदार ही दीदार है। ” कबीर जी का कथन है-
” अव्वल अल्लाह नूर उपाया क़ुदरत दे सब बन्दे । एक नूर ते सब जग उपजया कौन भले कौन मन्दे ॥ लोगों भ्रम न भूलो भाई खालिक ख़लक । ख़लक में ख़ालिक पूर रहया सब ठाई ।।
यह जीव उस परमात्मा का नूर है। यह सुख स्वरूप था, इसे किसने दुःखी किया ? इसका उत्तर यह है कि जैसे लहर का पानी सागर से पृथक रहकर गन्दा और दुर्गन्ध पूर्ण हो जाता है। वैसे ही यह जीव उस परमात्मा से बिछड़ कर दुःखी रहता है।
अब प्रश्न उठता है कि यह जीव कभी सुखी भी होगा ?
कोई ऐसा भी उपाय है जिससे इसका गन्दापन दूर हो जाये ?
तो इसका उत्तर यह है कि उस लहर का गन्दापन तभी दूर हो सकता है जब परमात्मा रूप सागर में लीन हो जाए। इस जीव को आपा भाव व्याप्त हो रहा है जिसके कारण वह दु:खी होता है।
जैसे कोई मनुष्य प्रदेश में जाकर उदास रहता है। मनुष्य वही होता है जो अपने घर में था, वहाँ उसे हर प्रकार का सुख प्राप्त था, परन्तु प्रदेश में वह अपरिचित सा घूम रहा है।
यदि वहाँ कोई अपने गाँव और देश का परिचित व्यक्ति मिल जाये तो उसे ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने ही गाँव में बैठा है। यदि उसे अपना कोई सम्बन्धी मिल जाये तो फिर उसकी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रहती।
इसी प्रकार यह लहर रूपी जीव के पीछे दूसरी बड़ी लहर आवे तो इस गन्दे पानी को अपने साथ लेकर उस सागर में जा मिले, जिससे एक रूप होकर द्वैत का दुःख मिट जाये ।
अब प्रश्न उठता है कि वह कौन सी लहर है जो इसको साथ ले जाती है ? तो इसका उत्तर यह है कि संसार में विरक्त महात्मा साधुजन ब्रह्मनिष्ठ संत महापुरुष इस लहर रूपी जीव को अपने सत्संग और साधना द्वारा अपना ही रूप देकर निजधाम तक ले जाते हैं।
इस पर जिज्ञासु के मन में फिर यह शंका उठती है कि लहर तो सागर से प्रगट होती है, परन्तु संत महापुरुष तो मनुष्य रूप में होते हैं, वे किस प्रकार मालिक का साक्षात्कार करवाते हैं ?
समुद्र वास्तव में वही है जिसमें हर समय अनेक लहरें उठती रहें। देखने-सुनने में तो वह भी लहर है और दूसरी भी लहर है, परन्तु उनमें गुण तथा कार्य का भेद है। एक जीव अपने कर्मों के अधीन है और माया उसे अपने बन्धन में जकड़े हुए है।
महापुरुषों ने अपने आप को ज्ञानवान और शुद्ध अन्तःकरण वाला बना रखा है। उनका सम्बन्ध सदैव अपने ध्यान रूपी सागर से है । ऐसे महापुरुष संसार में मनुष्य रूप में विचरण करते हुए संसारी जीवों को लाभ पहुँचाते हैं।
वह निर्गुण-निराकार सागर रूप परमात्मा स्वयं चल कर उस लहर के पास नहीं आता। वह भारी लहर जो सागर का ही रूप है, उसके पास चल कर जाती है। श्री रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में काक भुशुण्डि जी गरुड़ के प्रति इस प्रकार उपदेश देते हैं-
“ मोरे मन प्रभु अस विश्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा ॥ राम सिंधु घन सज्जन धीरा । चन्दन तरु हरि संत समीरा ॥ सब कर फल हरि भक्ति सुहाई । सो बिन संत न किन्हूं पाई ॥ अस विचार जो करि सत्संगा। राम भक्ति तेहि सुलभ विहंगा ॥”
काकभुशुण्डि जी कहते हैं कि “मेरे मन में यह विश्वास है कि प्रभु राम से उनके दास अधिक श्रेष्ठ हैं। राम सागर रूप हैं और दास उसी सागर से बादल रूप प्रकट हुए हैं वैसे सागर का जल खारा होता है अर्थात् निर्गुण का ध्यान रुचिपूर्ण नहीं होता, परन्तु बादल जो वर्षा करते हैं, वह जल निर्मल और मीठा होता है।
ठीक इसी प्रकार सगुण स्वरूप का ध्यान पूर्ण लाभ पहुँचाता है। बादल कथनी मात्र ही बादल कहलाते हैं, वास्तव में वे सागर ही हैं। वर्षा का जल खेती बाड़ी और पीने के लिये बहुत लाभदायक है किन्तु सागर का जल न तो पीने के काम आता है और न ही उसका कृषि कार्य में उपयोग होता है।
परमार्थी सन्तजन बादल रूप माने गये हैं । प्रभु चन्दन हैं और सन्तजन वायु रूप हैं। चन्दन का वृक्ष एक स्थान पर ही खड़ा रहता है । वह चल कर दूसरे पेड़ों को चन्दन रूप नहीं बना सकता, परन्तु सन्तजन पूर्ण रूप होकर चन्दन से स्पर्श करते हुए उससे सुगन्ध ग्रहण करके दूसरे पेड़ों को भी चन्दन बना देते हैं। संसार में सर्वश्रेष्ठ प्रभु की भक्ति ही हैं। परन्तु इसकी प्राप्ति संत महापुरुषों के बिना नहीं हो सकती।
जो व्यक्ति ऐसा विचार करके संत महात्माओं की संगत करते हैं, उनको राम भक्ति अर्थात् ईश्वर उपासना बहुत सुविधा पूर्वक प्राप्त हो जाती है। वह जीव रूप लहर अपने परम पिता परमात्मा तक सहज ही में पहुँच जाती है और वह सदा के लिये सुख रूप हो जाती है।
वह लहर भी बाहर के गन्दे पानी को अपने साथ ले जाकर सागर में फैंकती है । अधिक वर्षा होने के कारण छोटे-छोटे गन्दे तालाब भी जल से परिपूर्ण हो जाते हैं और उनका जल भी धीरे-धीरे महासागर रूप बन जाता है। तब जल, सागर की लहर और सागर में कोई भिन्न-भेद नहीं रहता । ठीक इसी प्रकार यह जीव भी परम पिता परमात्मा को प्राप्त करके परम आनन्द को प्राप्त करता है।