श्री परमहंस दयाल जी का जीवन परिचय –
श्री श्री 108 श्री स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज – श्री परमहंस दयाल जी
श्री स्वामी अद्वैतानन्द जी (श्री राम याद पुरी) जी अपनी करुणा दया एवं उदारता के गुणों के कारण श्री परमहंस दयाल जी के नाम से जाने जाते हैं।
सभी जानते है कि संसार भ्रम का फंदा है लेकिन जीवनपर्यन्त प्रयास करके भी कोई उसका उच्छेदन नहीं कर पाता। आत्म-अनात्म का भ्रम छुड़ाने के लिए ही सारी साधनायें बताई गई है।
हमारे सद्ग्रन्थ कोटि-कोटि पुरुषों में किसी विरले सत्पुरुष की कल्पना सार्थक बताते हैं जो अपनी साधना-तपस्या द्वारा जीवन और जगत् का रहस्य जान पाते हैं।
गीता में ‘मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धयें और मानस में ‘नर सहस्र महं सुनहु पुरारी, कोउ एक होहिं धरम व्रतधारी’ कहकर वैसे विरल व्यक्तित्व को सम्बोधित किया गया है।
श्री परमहंस दयाल जी जैसे सत्पुरुष ने अवतरित होकर यह बता दिया कि जन्म-मृत्यु के बंध का उच्छेदन कोई असम्भव कार्य नहीं है।
छपरा में संकल्पित होकर वह आध्यात्मिक अनुष्ठान बक्सर से प्रारम्भ हुआ और उसकी पूर्णाहुति हुई रोहतास में। उस परम पुरुष ने सभी धर्मों को अपने में समाहितकर, सभी सम्प्रदायों को पचाकर, अनेक साधना-पद्धतियों के गूढ़ रहस्य को समझकर, वेदान्त दर्शन की भूमिका में स्थित होकर यह उद्घोष किया-
हमको द्वैत दृष्टि नहिं भाती।
जहँ देखो तहँ वही आतमा पिता पुत्र औ नाती। ब्राह्मण वैश्य शूद सब एही, नाममात्र बिलगाती ।।
यही देवता, यही देवालय, पुष्प धूप अरु वाती। पूजनवाली यही आतमा, यह ही आप पुजाती।।
अण्डज पिण्डज स्वेदज उद्भिज, सकलो एही जाती। कारण यही काज भी एही, यह सबको उकसाती।। ‘रामयाद’ विचार निर्भय हो, कासे करूँ संघाती।सच्चिदानन्द प्रकाश हुआ तब, सबहीं भरम नसाती।।
-नौ वर्षों की साधना में नौ द्वारों को बन्दकर वे आत्मानन्द में प्रतिष्ठित हो गए। सच्चिदानन्द के प्रकाश से उनका मन-मानस प्रोद्भासित हो गया।
भ्रम का तिमिर अब रहे तो कहाँ! वे अवधूत तपोधन शुरू के ‘रामयाद’ और बाद के परमहंस दयाल ‘श्री स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज’ भारत के सच्चे सपूत निकले, जिनकी बादशाही के समक्ष दूसरी कोई बादशाही रह नहीं गई।
समस्त संसार के उत्तम चरित्र और साधना-तपस्या के लक्ष्य उनमें समाहित हो गए। न शिष्य न समाधि और न मठ बनवाने का कोई ख्याल रहा। बस, एक परमात्मा का नाम लेना और सन्मार्ग का उपदेश करना सिर्फ उद्देश्य रह गया।
सचमुच ज्ञान-उपदेश का जो विशाल ध्वज वे अपने सुयोग्य ज्ञानवाहक स्वनामधन्य सद्गुरुदेव स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज के हाथों थमा गए उसके साये में आज विश्व के लाखों नर-नारी ज्ञानलाभ कर रहे हैं।
“किसी किस्म की यादगार कायम करना राजा-महाराजा और बादशाहों का काम है। जब अवधूत हो गए तो आत्मकथा वगैरह से क्या ताल्लुक! तमाम संसार के चरित्र को हमारा चरित्र समझो।
जबसे हमने भेष धारण किया है, हमारा यही ख्याल रहा है कि किसी को न चेला बनायेंगे और न किसी प्रकार की यादगार कायम करेंगे। न समाधि और मठ बनाने का ही ख्याल है।
परमात्मा के नाम-उपदेश की जो खिदमत हमें सुपुर्द हुई। है वह पूरी तरह से निभ जाय, यही पर्याप्त है। और बातें पसन्द नहीं। इसी वजह से आजतक हमने किसी को अपना नाम तक नहीं बताया।
दरअसल जब अवधूत हो गए तो नाम और गाँव कैसा? बल्कि यह भी एक तरह का अहंकार ही है कि हमारा यह नाम है और हम प्रसिद्ध होकर पूजे जायें अथवा हमारे हालात लोगों पर रौशन हों।
वाकई बात यह है कि हम उपदेश वगैरह कुछ नहीं करते बल्कि पूर्ण ब्रह्म ही सब तरह से काम कर रहा है। कहीं गुरु बनकर उपदेश करता है तो कहीं चेला बनकर मानता है।
श्री परमहंस दयाल जी (श्री श्री 108 स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज) का जन्म
ये हैं आर्ष वचन उन अमर पुरुष श्री परमहंस दयाल, श्री श्री 108 स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज के, जिनका जन्म बिहार प्रांत के छपरा नगरस्थित दहियावाँ (ब्राह्मण टोली) में चैत्र श्री रामनवमी, सन् 1846 ई० को हुआ था।
भगवान श्रीराम के अवतार दिन को जन्म लेने के कारण आपका नाम भी ‘रामयाद’ रखा गया। धन्य हुई छपरा की पावन भूमि और पंडित श्री ख्यालीराम जी पाठक का कुल।
सो कुल धन्य उमा सुनु।। जगत् पूज्य सुपुनीत।
श्री रघुबीर परायन जेहि नर उपज विनीत ।।
संत चरणदास जी के अनुसार
धनि नगरी धनि देश है, धनि पुर पट्टन गाँव। जहँ साधूजन जनमिया, ताके वलि बलि जाँव।।
श्री पाठक जी छपरा के सर्वमान्य प्रतिष्ठित ब्राह्मण थे। उनका पेशा पुरोहिताई था। आस-पास के अनेक सम्भ्रांत परिवार उनके शिष्य थे। उनके पुत्र श्री तुलसीराम जी पाठक भी संस्कृतज्ञ थे जिन्हें श्री परमहंस दयाल जी के पिताहोने का गौरव प्राप्त हुआ। माता जी भी आदर्श पतिव्रता नारी थीं। वे श्री पाठक जी की बड़ी आज्ञाकारी थीं।
यद्यपि घर में अनेक नौकर-चाकर थे किन्तु वे स्वयंही अपने पतिदेव की अपने हाथों से सभी सेवा-टहल करती थी। सम्पूर्ण परिवार’कोला धर्म’ में उपदिष्ट था।
श्री पाठक जी को ब्रह्मविद्या की प्राप्ति केदारघाटकाशी के एक महापुरुष श्री परमहंस जी द्वारा हुई थी। आप केवल गिने-चुने शिष्यों को ही इस अंदरूनी मार्ग का उपदेश दिया करते थे।
महापुरुषों का अवतार कठिनाइयों के बीच ही होता है। यह ईश्वरीय विधान है। आठ-नौ महीने की आयु में ही माता की छत्रछाया ‘रामयाद’ के सिर से उठ गई।
फलस्वरूप पिता के सामने नन्हें शिशु के पालन-पोषण को समस्या खड़ी हो गई। लाला नरहर प्रसाद श्रीवास्तव पाठक जी के यजमान थे। दोनों स्त्री पुरुष बड़े भगवद्भक्त, साधुसेवी और श्री पाठक जी के अनन्य विश्वास पात्र थे।
लाला साहब का एकमात्र पुत्र रामयाद से छह माह बड़ा था जो कुछ ही दिन पूर्व चल बसा था।
इसलिए श्री तुलसीराम जी ने उन दोनों के संरक्षण में बालक रामयाद को सौंप दिया। लाला जी और उनकी धर्मपत्नी ने अपने सगे पुत्र से भी अधिक वात्सल्य के साथ उनका पालन-पोषण किया।
इसका प्रभाव यह हुआ कि श्री परमहंस दयाल जी को भी अपने माता-पिता की सुधि बिल्कुल न आई। यहाँ तक कि लाला जी ने एक बांदी (नौकरानी) श्रीमती मिरिचया और उसके लड़के दिलसिंगार को आपकी देख-रेख के लिए नियुक्त कर दिया। उन दोनों ने आपकी बहुत सेवा की।
बालक की शिक्षा चार वर्ष की अवस्था में प्रारम्भ हुई। पाठक परिवार के सत्संगी और साथी लाला देवी प्रसाद जी ने उन्हें अरबी और फारसी की शिक्षा दी। उस समय हिन्दी-संस्कृत से अधिक अरबी-फारसी का ही प्रचलन था।
लाला साहब के प्रेम और परिश्रम से उन्हें शीघ्र ही इन दो भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो गया। लाला नरहर प्रसाद एक सम्मानित मुख्तार एवं सत्संगप्रेमी सज्जन थे।
अत: उनके यहाँ सम्पन्न एवं सुशिक्षित तथा सत्संगी लोगों का आना-जाना बराबर लगा रहता था। अतः अनुकूल वातावरण में बालक रामयाद की सामाजिक शिक्षा भी होती रही। सत्संग का प्रभाव उनके ऊपर बचपन से ही पड़ता रहा।
श्री परमहंस दयाल जी का कथन है कि उन सज्जन पुरुषों के वार्तालाप व सत्संगति से उन्हें बहुत लाभ मिलता था।
विधि की विडम्बना बड़ी ही विचित्र है। पाँच वर्ष की अल्प अवस्था में ही पिता श्री तुलसीराम पाठक भी परलोकवासी हो गए। अब लाला नरहर प्रसाद ही उनके सबकुछ थे। नौ वर्ष की अवस्था में उनके एक सम्बन्धी श्री भैरो शुक्ल ने रामयाद का यज्ञोपवीत कराया। शुक्ल जी रामयाद को ‘रामनारायण’ भी कहकर
पुकारते थे। चौदह वर्ष की अवस्था में आपके पोषक पिता लाला नरहर प्रसाद का भी स्वर्गवास हो गया। उनकी मृत्यु का आपके दिल पर गहरा असर हुआ। अब संसार में लाला साहब की धर्मपत्नी से ही एकमेव नाता रह गया।
‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात।’ लौकिक जीवन में भी संत का व्यक्तित्व सर्वोत्तम संस्कारों से सम्पन्न होता है। समय-समय पर उनमें अलौकिक शक्तियों का प्रस्फुरण स्वतः होता रहता है। उन शक्तियों का स्रोत उनकी पूर्वजन्म की तपस्या और आध्यात्मिक साधनायें होती है।
बालक रामयाद बचपन में हो उच्च आध्यात्मिक संस्कारों और शक्तियों से सम्पन्न थे। लाला साहब के यहाँ प्रायः सत्संग होता था।
एक बार उन्होंने सुन लिया कि योगीजन मुख में गुटका रखकर आकाश में भी उड़ सकते हैं। उस समय उनकी अवस्था आठ-नौ वर्ष की रही होगी।
वे पालथी लगाकर ध्यानस्थ हो गए और प्राणों को रोककर मन में उड़ने का संकल्प करने लगे, फलस्वरूप उनका आसन जमीन से दोमंजिले मकान की ऊँचाई तक उठकर स्थिर हो गया। लोग देखकर स्तम्भित रह गए। बड़े-बूढ़ों ने बहुत डराया-धमकाया तथा उन्हें वैसा करने से रोक दिया।
श्री रामयाद के पिताजी को ब्रह्मविद्या का उपदेश केदारघाट काशीवाले श्री परमहंस जी से हुआ था। कभी-कभी परमहंस जी लाला साहब के घर भी आया जाया करते थे। आपको भी सर्वप्रथम उन्हीं से ब्रह्मविद्या का उपदेश प्राप्त हुआ था।
लाला साहब के देहावसान के पश्चात् बालक रामयाद ने अपने गुरु श्री परमहंस जी से संन्यास ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की।
पाठक जी तथा लाला साहब दोनों परिवारों के आप ही एक मात्र उत्तराधिकारी थे। इतना ही नहीं, लाला साहब की पत्नी को बुढ़ापे में केवल आपही का सहारा था।
श्री परमहंस जी (केदारघाटवाले) ने गृहस्थाश्रम में रहने के लिए आपको बहुत समझाया। बहुत देर से गुरु और शिष्य अपने-अपने ढंग से क्रमशः गृहस्थाश्रम और संन्यास की श्रेष्ठता स्थापित करते रहे।
श्री परमहंस जी ने आपकी संन्यास की प्रवृत्ति देखकर कहा- ‘हमने दिल मूड़कर साफ कर दिया है। आन्तरिक साधना घर में ही रहकर करते रहो। माता के शरीर के उपरान्त माथा हजाम से मुड़वाकर साधु हो जाना।’ श्री परमहंस जी आपको बड़े प्यार से ‘हापू बाबा’ कहकर पुकारते थे।