श्री गुरु महिमा – Nangli Sahib ki Shri Guru mahima
सत्यं बोधमयं नररूप मम्लं प्रत्यक्ष सर्वेश्वरम् । रत्नैर्मण्डित शीर्ष शुभ्र मुकुटं श्वेतांबरैः शोभितम् ।। मुक्ता माल विभूषितं च हृदयं सिंहासने संस्थितम् । भक्तानां वरदं प्रसन्न वदनं श्री सद्गुरु नौम्यहम् ।।
अखण्ड ज्ञान स्वरूप, निर्मल मनुष्य आकृति साक्षात् परमात्मा जिनके मस्तक पर रत्न जड़ित श्वेत मुकुट तथा श्वेत वस्त्रों से सुशोभित और मोतियों की माला से विशेष विभूषित हृदय सिंहासन पर विराजमान, भक्तों को वरदान देने वाले, प्रसन्न है मुखारविन्द जिनका ऐसे जो श्री सद्गुरु हैं, तिनको मैं नमस्कार करता हूं।
दो०– बन्दउं चरण सरोज गुरु मुद मंगल आगार । जेहि सेवत होत हैं, भवसागर से पार ।। गुरु के सिमरण मात्र से, नाशत विघ्न अनन्त । ताते सर्वारम्भ में, ध्यावत हैं सब सन्त ।।
चौ०- गुरु-गुरु कहि सब विश्व पुकारे, गुरु सोई जो भ्रम निवारे।
बहुत गुरु हैं अस जग माहिं, हरें द्रव्य भव दुःख कोउ नाहिं ।।
पाखण्डी पापी अविचारी, नास्तिक कुटिल वृत्ति बकधारी ।
अभिमानी निर्दक शठ नटखट, दुराचार युत अबला लम्पट ।।
क्रोधी क्रूर कुतर्क विवादी, लोभी समता रहित विषादी ।
अस गुरु कबहूं भूलि न कीजे, इनको दूरहिं से तजि दीजे।।
निगमागम रहस्य के ज्ञाता, निस्पृह-हित अनुशासन दाता ।
दया क्षमा संतोष संयुक्ता, परम विचारवान भवमुक्ता ।।
लोभ-मोह मद-मत्सर आदि, रहित सदा परमार्थवादी ।
राग-द्वेष दुःख द्वन्द्व निवारी, रहे अखण्ड सत्यव्रतधारी ।।
भद्र-वेश मुद्रा अति सुन्दर, गति अपार मति धर्म- धुरन्दर ।
कृप्या भक्तन पर कर प्रीति, यथा शास्त्र सिखवें शुभ नीति ।।
दो०– जिनके स्वप्नेहूं क्रोध उर कबहुं न होत प्रवेश। मधुर वचन कहिं प्रीतियुत, देत सबहिं उपदेश ।।
चौ०– हरें अबोध बोधप्रद जन के, नाशें शोक क्लेश जीवन के ।
कृत्याकृत्य विकृत्य कर्म को, न्यायान्याय अधर्म धर्म को ।।
विविध भांति निश्चय करवाई, भिन्न-भिन्न सब भेद लखाई ।
सत्य मिथ्या वस्तु परखावें, सुगति-कुगति मार्ग दर्शावें ।।
तेहि गुरु की शरणागति लीजे, तन-मन-धन सब अर्पण कीजे।
असन वसन वाहन अरु भूषण, सुत दारा निज परिचारकगण ।।
करि सब भेंट गुरु के आगे, भक्ति भाव उर में अनुरागे ।
तन यात्रा निर्वाह के कारण, मांगे देय सो कीजे धारण ।।
ले भिक्षुक सम दीनभाव मन, करे प्रणाम दण्डवत् चरणन।
महायज्ञ को फल वह पावे, सुकृत वंदि गुरु शीश निवावे ।।
दो०– यही विधि गुरु की शरण होय, करे निरन्तर सेव । गुरु सम जाने और नहीं, त्रिभुवन में कोई देव ।।
चौ०– जिन गुरु को मानुष करि जाने, तिन सम को निर्भाग्य अयाने ।
बुद्धि-रहित नर पशु समाना, है प्रत्यक्ष बिन पुच्छ विषाना ।।
विश्व विशेष विदित प्रभुताई, गोविन्द से गुरु की है भाई।
गोविन्द की माया वश प्राणी, भुगते दुःख चौरासी खानी ।।
गुरु प्रताप भव मूल विनाशे, विमल बुद्धि होय ज्ञान प्रकाशे।
सुख अखण्ड नर भोगे जाई, सत्यलोक में वासा पाई ।।
गुरु से श्रेष्ठ और जग माहीं, हरि विस्चि शंकर कोउ नाहीं ।
सुहृद बन्धु सुत पितु महतारी, गुरु सम को दूजा हितकारी ।।
दो०- जांके रक्षक गुरु धनी, सके काह करि और।
हरि रूठे गुरु शरण है, गुरु रूठे नहीं ठौर ।।
चौ०- योग यज्ञ जप तप व्यवहारा, नियम धर्म संयम आचारा।
वेद पुराण कहें गौराई, गुरु बिन सब निष्फल है भाई।।
गुरु बिन हृदय शुद्ध न होई, कोटि उपाय करे जो कोई।
गुरु बिन ज्ञान विचार न आवे, गुरु बिन कोई न मुक्ति पावे।।
गुरु बिन भूत प्रेत तन धारी, भ्रमे सहस्र वर्ष नर-नारी ।
गुरु बिन यम के हाथ बिकाई, पाय दुसह दुःख मन पछिताई ।।
गुरु बिन संशय कौन निवारे, हृदय विवेक कौन विधि धारे।
गुरु बिन नहीं अज्ञान विनाशे, नहिं निज आत्म रूप प्रकाशे ।।
गुरु बिनु ब्रह्मज्ञान जो गावे, सो नहीं मुक्ति पदार्थ पावे।
तेहि कारण निश्चय गुरु कीजे, सुर दुर्लभ तन खोय न दीजे।।
दो-वेद शास्त्र अरु भागवत, गीता पढ़े जो कोय।
तीन काल संतुष्ट मन, बिन गुरु कृपा न होय।।
चौ०– अखिल विविध जग में अधिकारी, व्यास वसिष्ठ महान् आचारी।
गौतम कपिल कणादि पातञ्जलि, जैमिनि बाल्मीकि चरणन बलि ।।
यह सब गुरु की शरणी आये, ताते जग में श्रेष्ठ कहाये।
याज्ञवलक्य अरु जनक विदेही, दतात्रेय गुरु परम स्नेही ।।
चौबीस गुरु कीन्हें जग माहीं, अहंकार उर राख्यो नाहीं ।
अम्बरीष प्रह्लाद विभीषण, इत्यादि जो भये भक्तजन ।।
औरहुं यति तपी बनवासी, यह सब गुरु के परम उपासी ।
हरि विरचि शिव दीक्षा लीना, नारद धीमर को गुरु कीना।।
सन्त महन्त साधु हैं जेते, गुरु पद पंकज सेवहिं तेते।
शेष सहस्र मुख बहु गुण गावे, गुरु महिमा को पार न पावे।।
दो०– राम कृष्ण से को बड़ा, तिनहूं तो गुरु कीन।
तीन लोक के वे धनी, गुरु आगे अधीन ।।
चौ०– तप विद्या के करि अभिमाना, पाय लक्ष्मी सम्पत्ति नाना ।
जो नहिं गुरु को मस्तक नावे, सो नर अजगर को तन पावे।।
निज मुख जो गुरु निन्दा करही, कल्प सहस्र नरक में परहीं।
गुरु की निन्दा सुने जो कोई रासभ श्वान जन्म तेहि होई ।।
गुरु से अहंकार उर धारी, करे विवाद मूढ़ अविचारी ।
ते नर मरु निर्जल बन जाई, तृषित मरे राक्षस तन पाई ।।
जो गुरु को तज औरहिं ध्यावे, होय दरिद्री अति दुःख पावे।
बिन दर्शन नहिं गुरु के रहिये, यह दृढ़ नियम हृदय में गहिये ।।
जो बिनु दर्शन करे अहारा, होय व्याधि तन विविध प्रकारा।
यथाशक्ति जन चूके नाहीं, होय अशक्त दोष नहिं ताहीं ।।
गुरु सम्मुख नहीं बैठे जाई, खाली हाथ हिलावत आई।
जो कछु और नहीं बन आवे, पत्र पुष्प फल भेंट चढ़ावे ।।
दो०– नम्र भाव अति प्रीतियुत, चरण कमल सिर नाय ।
जो सद्गुरु आज्ञा करें, लीजे शीश चढ़ाय ।।
चौ०– अति अधीन होय बोले वाणी, रंक समान जोरि युग पानी।
कबहुं न बैठे पांव पसारी, जंघा पद धर आसन मारी ।।
सम्मुख होय के गमन न कीजे, गुरु छाया पर पांव न दीजे।
गुप्त बात किंचित नहीं राखे, करि छल कपट न मिथ्या भाखे ।।
वेद मन्त्र सम कहना माने, गुरु को परमात्म सम जाने ।
सत्यासत्य विचार न कीजे, गुरु को कथन मान सब लीजे।।
जो कुछ श्रेष्ठ पदार्थ पावे, सो गुरु चरणन आनि चढ़ावे ।
गुरु की अद्भुत है प्रभुताई, मिले सहस्र गुणा होय आई ।।
किये यथाविधि गुरु की पूजा, शेष रहे कर्त्तव्य न दूजा ।
प्रबल पाप नाशें सब तन के, होय मनोरथ पूर्ण मन के ।।
जो गुरु को भोजन करवावे, मानहु त्रिलोकहिं न्योत जिमावे।
दो०-गुरु की महिमा है अमित, कहि न सके श्रुति शेष ।
जिनकी कृपा कटाक्ष ते, रंकहुं होत नरेश ।।
चौ० – अस प्रभाव है दूसर केहिमा, जस कछु है सद्गुरु की महिमा ।
सर्व सिद्धि-प्रद अति वर दायक, दुःख संकट में परम सहायक ।।
नित्य उठ पाठ करे जो कोई, सकल पाप क्षय ताके होई ।
चित्त चिन्ता सन्ताप विनाशे, सुख सम्पत्ति ऐश्वर्य प्रकाशे ।।
महाव्याधि ज्वर आदि निवारी, देय अकाल मृत्यु भय टारी।
लहहिं सकल सुख जे जग करे, कबहुं दरिद्र न आवे नेरे ।।
होय अलभ्य लाभ मार्ग में, पावे मान प्रतिष्ठा जग में।
परम मन्त्र यह अखिल फलप्रद, हरण सकल भव जन्म-मरण गद ।।
श्रद्धावान भक्त लख लीजे, तांको यह गुरु महिमा दीजे।
परम रहस्य गूढ़ यह जानी, कहे न सबहिं प्रसिद्ध बखानी ।।
दो०– धन्य मातु पितु धन्य हैं, धन्य सुहृद अनुरक्त । धन्य ग्राम वह जानिये, जहं जन्मे गुरु भक्त ।। भक्ति प्रभाव मिटी सकल, ‘धर्मदास की पीर । कोटि जन्म के पुण्य से, सद्गुरु मिले कबीर ।।
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