श्री गुरु नानक देव जी
इस धरा पर जब-जब भी धर्म और सामाजिक ढांचे में गिरावट आई है। तब-तब इसके उत्थान के लिए ऐसे महापुरुष अवतरित हुए हैं जिन्होंने समाज को नई सोच प्रदान की। इससे न सिर्फ मानवता की भलाई हुई, बल्कि उनके फलसफे पर चलकर आने वाली पीढियों का भी कल्याण हुआ।
श्री गुरु नानक देव जी का अवतरण भी इसी उद्देश्य से हुआ। श्री गुरु नानक देव जी ऐसे महान क्रांतिकारी महापुरुष थे जिनकी विचारधारा समय, स्थान और विषय पक्ष से बहुत ही विशाल और विश्वव्यापी थी।
सन् 1469 ई. में जिला शेखूपुरा के राय भोई की तलवंडी नामक ग्राम में पिता मेहता कल्याण दास (मेहता कालू) और माता तृप्ता के घर जन्मे गुरु नानक साहब की विचारधारा शक्तिशाली, क्रान्तिकारी और विकासशील रही है।
विश्व के उद्धार के लिए उनकी क्रांतिकारी सोच तीन मूल सिद्धांतों ‘किरत करना, नाम जपना और वंड छकना’ पर आधारित है। भारतीय धर्मदर्शन इस बात की गवाही देता है कि समय-समय पर धर्म को इतना जटिल बनाकर पेश किया गया कि साधारण मनुष्य इसे समझ ही नहीं सका। आम व्यक्ति के लिए धर्म मात्र कर्मकांड था।
इस दौर में भारत के लोग जात-पात, ऊंच-नीच, भेदभाव के विचारों से ग्रसित थे। हर तरफ पाखंड एवं दंभ का ही बोलबाला था। धर्म के कथित ठेकेदार लोगों को भ्रमजाल में फंसाकर लूट रहे थे।
शासक वर्ग भी जनता के कल्याण की बजाय उन पर अत्याचार कर रहा था। हर तरफ अंधकार ही अंधकार था। ऐसे समय में श्री गुरु साहिब का अवतरित होना हवा के ठंडे झोके जैसा था।
गुरु नानक देव जी ने जितनी विशालता, गहराई और निर्भयता से मानवता को धर्म का फलसफा समझाया, उसी के चलते लोगों का भ्रम एवं आडबर से मोह भंग हुआ।
उनका संदेश किसी विशेष वर्ग के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए था। गुरु साहिब के अनुसार सभी मानव एक समान हैं। हम सब एक ही परमपिता परमेश्वर की सतान है। हमें एक-दूसरे को धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि एक इन्सान के रूप में देखना चाहिए।
परमात्मा के अस्तित्व को लेकर गुरु नानक देव जी फरमाते हैं कि परमात्मा एक है। उसका नाम ही सत्य है। उसका कोई रूप-रंग और आकार नहीं है। वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त है। सभी जीवों में उसकी ज्योति है। वह सर्वव्यापक है। उसकी पूजा मन के अंदर ही हो सकती है बाहरी साधनों से नहीं।
जात-पात का खंडन करते हुए वह फरमाते हैं कि सभी जीवों की ओट और आसरा परमपिता परमेश्वर ही है। जपुजी साहिब की पहली पकड़ी में उन्होंने परमात्मा के हुकम भाणे में रहकर गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए निरंकार रूप में परमात्मा को पाने की शिक्षा दी।
गुरु नानक देव जी ने मलिक भागो के महल में स्वादिष्ट व्यंजनों की जगह भाई लालो की रोटी को उत्तम मानकर उसका सेवन किया। उन्होंने जाति की जगह जोत को मान्यता और महानता दी। ‘एक ओंकार’ मंत्र मानवता का मूलमंत्र है। इसके रचयिता गुरु नानक साहिब को माना जाता है।
इस मूलमंत्र का अर्थ है अकालपुरख यानी परमात्मा एक है, जो सारी सृष्टि में व्यापक है। उसका नाम अमिट है। वह सारी सृष्टि को पैदा करने वाला है। वह भय रहित है। वह वैर-द्वेष से दूर है। काल का उस पर कोई प्रभाव नहीं है।
वह जीवन-मरण के चक्कर से मुक्त है यानी योनियों में नहीं आता। उसका अस्तित्व अर्थात् प्रकाश स्वयं से हुआ हैं। उस परमपिता परमेश्वर को गुरु की कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है।
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन के लगभग 22 वर्ष देश-विदेश में पैदल चलकर धर्म का प्रचार किया। इस दौरान सच का संदेश देने ढाका, असम, श्रीलंका, तिब्बत, नेपाल, मक्का-मदीना, बगदाद व काबुल भी गए।
इस दौरान उन्होंने स्थानीय पंडितों, काजियों, योगियों, नाथों व सिद्धों से गोष्ठियां कर परमात्मा की सर्वव्यापकता का सिद्धांत स्पष्ट किया।
गुरु साहब मानवाधिकारों के रक्षक रहे। स्त्री जाति के सम्मान के लिए भी गुरु साहब ने उस काल में आवाज बुलंद की। नारी को नरक का द्वार कहने वालों की आलोचना करते हुए उन्होंने फरमाया :
सो क्यों मंदा आखियै, जित जमहि राजान।
बेशक गुरु नानक देव जी शारीरिक रूप से 1539 ईस्वी में पंचतत्व में विलीन हो गए परन्तु श्री साहिब में अंकित उनके शब्द व राग गुरु ग्रंथ समय-समय पर मानवता को धर्म के मार्ग पर चलने का संदेश देते रहेंगे।