रानी लक्ष्मी बाई

लक्ष्मी बाई

हमारे भारत के लिए यह बहुत ही गर्व की बात है कि रानी लक्ष्मी बाई का जन्म हमारे भारत में हुआ था। भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थों में ही आदर्श वीरांगना थीं।

जो एक सच्चा वीर होता है वो कभी भी विपत्तियों से घबराता नहीं है।एक सच्चे वीर को प्रलोभन कभी-भी उसके कर्तव्य पालन से विमुख नहीं कर सकते।

एक सच्चे वीर का लक्ष्य उदार और उच्च होता है। एक सच्चे वीर का चरित्र अनुकरणीय होता है।

अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह हमेशा आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होता है। भारत के उन वीरों में से एक हमारी वीरांगना लक्ष्मीबाई भी थीं।

रानी लक्ष्मीबाई का कार्यक्षेत्र :

झाँसी राज्य की रानी, 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीर योद्धा लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी थीं।

इन्होने अंग्रेजों के खिलाफ होने वाले पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वीरों में से एक थीं। वे एक ऐसी वीर थीं जिन्होंने अपने साहस और बल पर लोगों से लोहा लिया और लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुईं थीं।

लेकिन अपने जीवन के पलों में अंग्रेजों को झाँसी पर शासन नहीं करने दिया था ।

रानी लक्ष्मीबाई का बालपन :

जब मनु चार साल की थीं तब उनकी माता का देहांत हो गया था। मनुबाई का पालन पोषण उनके पिता ने किया था।

मनुबाई ने बचपन से ही शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ शस्त्रों की शिक्षा भी प्राप्त की थी। रानी लक्ष्मी बाई जन्म से ही कुशल और साहसी योद्धा थीं।

वे कभी भी पराजय स्वीकार नहीं करती थीं। उनमें यह भावना जन्म से ही थी ।

रानी लक्ष्मीबाई का विवाह :

गंगाधर राव निवालकर 1838 में झाँसी के राजा बने थे। गंगाधर राव विधुर थे। मनुबाई का विवाह गंगाधर राव निवालकर से सन् 1842 में हुआ था।

विवाह के बाद मनुबाई का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया था। रानी लक्ष्मी बाई 18 वर्ष की आयु में एक पत्नी बनी और 24 वर्ष की आयु में एक विधवा रानी बनी थीं।

रानी लक्ष्मीबाई का विवाहिक जीवन :

विवाह के पश्चात 1851 में रानी लक्ष्मी बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पुत्र के जन्म की खुशी में पूरी झाँसी में खुशियाँ मनायी जाने लगीं।

लेकिन जन्म से चार महीने के बाद उसकी मृत्यु हो गई जिसकी वजह से मनुबाई, गंगाधर राव और पूरी झाँसी बहुत बड़े शोक सागर में डूब गई लेकिन इतना सब होने के बाद भी रानी लक्ष्मी बाई ने हार नहीं मानी।

राजा गंगाधर राव को पुत्र मृत्यु से बहुत गहरा धक्का लगा जिससे वे कभी उभर ही नहीं पाए और आखिर में 21 नवंबर, 1853 में उनकी मृत्यु होगई।

पति की मृत्यु ने रानी लक्ष्मी बाई को बहुत ही कमजोर कर दिया लेकिन फिर भी उन्होंने धीरज रखा और हार नहीं मानी।

राजा गंगाधर राव ने मरने से पहले ही दामोदर को अपने दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार कर लिया था और इस बात की सूचना अंग्रेजों को भी पहुँचा दी थी।

लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसे दत्तक पुत्र मानने से इंकार कर दिया था।

अंग्रेजों की राज्य हडप नीति :

अंग्रेजों ने अधिक-से-अधिक राज्यों को हडपने की योजना बना ली थी जिस कारण से उत्तरी भारत के राजा, नवाब सभी के अंदर विद्रोह की भावना उत्पन्न हो गई।

रानी लक्ष्मी बाई ने इस अवसर का फायदा उठाया और क्रांति को और अधिक बढ़ावा दिया तथा अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की योजना बनाई।

जब राजा गंगाधर राव निवालकर की मृत्यु हो गई तो अंग्रेजों ने झाँसी की रानी को कमजोर और असमर्थ समझा और लोगों को झाँसी छोड़ने का आदेश दे दिया।

रानी के झाँसी न छोडकर जाने की वजह से अंग्रेजों ने झाँसी पर हमला बोल दिया। लेकिन फिर भी रानी अंग्रेजों का सामना करने के लिए बिलकुल तैयार थीं।

उनके आक्रमण के पीछे झाँसी राज्य को हडपने की चाल थी।

रानी लक्ष्मीबाई का संघर्ष :

27 फरवरी, ने 1854 को अंग्रेजी सरकार ने दत्तकपुत्र की गोद को अस्वीकार कर दिया और झाँसी को अंग्रेजो के राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी।

जब गुप्तचरों से रानी को यह खबर मिली तो रानी ने कहा ‘मैं अपनी झाँसी किसी को नहीं दूंगी’ ।

लेकिन 7 मार्च, 1854 में झाँसी पर अंग्रेजों ने अधिकार कर ही लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने पेंशन को स्वीकार कर दिया और नगर वाले राजमहल में रहने लगीं।

यहीं से ही तो भारत की पहली स्वाधीनता का बीज प्रस्फुटित होना शुरू हुआ था।रानी लक्ष्मी बाई का साथ देने के लिए बहुत से महान लोग कोशिशें करने लगे थे जैसे – तात्या टोपे, मर्दनसिंह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला, मुगल सम्राट बहादुर शाह, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल आदि ।

रानी लक्ष्मीबाई का विद्रोह :

भारत की जनता में विद्रोह की भावना अपनी चर्म सीमा पर पहुंचने लगी थी। पूरे देश में अच्छी और सुदृढ तरीके से क्रांति को लाने के लिए 31 मई, 1857 की तारीख तय की गई थी लेकिन इससे पहले ही लोगों में क्रांति उत्पन्न हो गई और 7 मई, 1857 को मेरठ और 4 जून, 1857 को कानपुर में क्रांति हो गई।

कानपुर को तो 28 जून, 1857 में पूरी तरह स्वतंत्रता मिल गई। अंग्रेजों के कमांडर ने विद्रोह को दबाने की कोशिश की।

उन्होंने सागर, गढ़कोटा, मडखेडा, वानपुर, मदनपुर, शाहगढ़, तालबेहट पर अपना शासन स्थापित किया और झाँसी की ओर बढने लगे। उन्होंने अपना मोर्चा पहाड़ी मैदान में पूर्व और दक्षिण के मध्य लगाया था।

रानी लक्ष्मी बाई पहले से ही सावधान थीं और राजा मर्दनसिंह जो वानपुर के राजा थे उनसे युद्ध की और आने की सूचना मिल चुकी थी।

सरदारों के आग्रह को मानकर रानी लक्ष्मीबाई ने कालपी के लिए प्रस्थान किया था। वहाँ पर जाकर वे शांत नहीं बैठी थीं।

रानी लक्ष्मीबाई ने नाना साहब और उनके सेनापति तात्या टोपे से संपर्क किया और उनके साथ विचार-विमर्श किया। रानी लक्ष्मी बाई की वीरता और साहस का अंग्रेज लोहा मान गये लेकिन तब भी उन्होंने रानी का पीछा किया।

ब्रितानी राज्य :

लहौजी की राज्य हडपने की नीति की वजह से ब्रितानी राज्य ने दामोदर राव बालक को दत्तक पुत्र मानने से मना कर दिया और झाँसी को ब्रितानी राज्यों में मिलाने का फैसला किया।

उस समय रानी ने ब्रितानी वकील जान लैंग से परामर्श किया और लन्दन की अदालत में मुकदमा दायर किया।मुकदमे में बहुत बहस की गई और अंत में मुकदमे को खारिज कर दिया गया।

ब्रितानी राज्य के अधिकारीयों ने राज्य के खजाने को जब्त कर लिया और रानी लक्ष्मी बाई के पति के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काट लिया गया। इसके साथ रानी को झाँसी का किला छोडकर रानीमहल में जाकर रहना पड़ा था।

लेकिन फिर भी रानी लक्ष्मीबाई ने हर कीमत पर झाँसी राज्य की रक्षा करने का फैसला कर लिया था।

झाँसी का युद्ध :

झाँसी का पहला ऐतिहासिक युद्ध 23 मार्च, 1858 को शुरू हुआ था। झाँसी की रानी के आज्ञानुसार कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने तोपों से ऐसे गोले फेंके कि अंग्रेजी सेना बुरी तरह से हैरान हो गई।

रानी लक्ष्मीबाई ने लगातार सात दिनों तक अंग्रेजों से अपनी छोटी सी सेना के साथ बहुत बहादुरी से सामना किया था।

रानी जी ने बहुत बहादुरी से युद्ध में अपना परिचय दिया था। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर कसकर अंग्रेजों से युद्ध किया था।

युद्ध का इतने दिन तक चलना असंभव था। रानी लक्ष्मी बाई का घोडा बहुत बुरी तरह से घायल था जिसकी वजह से उसे वीरगति प्राप्त हुई लेकिन तब भी उन्होंने अपनी हिम्मत नहीं हारी और अपने साहस का परिचय दिया।

कालपी पहुंचकर रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने एक योजना बनाई जिसमें नाना साहब, मर्दनसिंह, अजीमुल्ला आदि सभी ने रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया। रानी लक्ष्मीबाई और उनके साथियों ने ग्वालियर पर आक्रमण कर वहाँ के किले पर अपना शासन जमा लिया।

विजय होने का उत्सव कई दिनों तक चला लेकिन रानी लक्ष्मीबाई इसके खिलाफ थीं।

यह समय अपनी जीत का नहीं बल्कि अपनी शक्ति को सुसंगठित करके अपने अगले कदम को बढ़ाने का था। इस युद्ध में महिलाओं को भी सामिल किया गया था और उन्हें युद्ध कला भी सिखाई गई। आम लोगों ने भी विद्रोह में सहयोग दिया था।

रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु :

रानी लक्ष्मी बाई जी ने अपनी वीरता का परिचय देते हुए 18 जून, 1858 को वीरगति को प्राप्त हुई थीं। रानी लक्ष्मी बाई अपने जीवन के अंतिम समय में भी उन्होंने वीरता और साहस के साथ युद्ध किया था।

बाबा गंगादास ने तभी एक झोंपड़ी को चिता बनाकर उनका अंतिम संस्कार किया था जिसकी वजह से अंग्रेज उन्हें छू भी न सकें और वे अवित्र न हो सकें।

सभी लोग आज भी जब रानी लक्ष्मी बाई की मृत्यु के विषय को याद करते हैं तो उनका रोम-रोम कांप उठता है।

उपसंहार :

अंग्रेजों का सेनापति अपनी पूरी सेना के साथ रानी लक्ष्मीबाई का पीछा करता रहा और एक दिन ग्वालियर के किले को घमासान युद्ध में अपने कब्जे में कर लिया था। रानी लक्ष्मी बाई ने इस युद्ध में भी अंग्रेजों को अपनी कुशलता का परिचय दिया था।

18 जून, 1858 को ग्वालियर का आखिरी युद्ध हुआ था जिसमे रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी सेना का बहुत कुशल नेतृत्व किया था।

रानी लक्ष्मी बाई इस युद्ध में घायल हो गयीं और वीरगति को प्राप्त हुईं।

उन्होंने जनता को चेतना दी थी और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया था। रानी लक्ष्मीबाई की वीरता, त्याग और बलिदान पर हम भारतियों को गर्व होता है।

Leave a Comment