मीराबाई

मीराबाई

मीराबाई कौन थी ?

श्रीगिरिधर आगे नाचूँगी ,नाच नाच पिया रसिक रिझाऊँ,

प्रेमीजन को जाचूँगी।प्रेम, प्रीति के बांध घुँगरु सूरत की कचनी काचूँगी ॥

लोक लाज कुल की मर्यादा या मैं एक ना राखूँगी।

पिया के पलंगा जा पडूंगी मीरा हरि रंग राचूँगी ।

“मैं गिरिधर गोपाल के आगे नाचूँगी, मैं उस समय तक नाचती रहूँगी जब तक कि वे पूर्णरुप से खुश नहीं हो जाते। मैं उनका भी सम्मान करती हूं जो उन्हें प्यार करते हैं।

मैं ऐसे घुँगरु बांधूंगी जो प्रेम और दया के प्रतीक हैं और इस प्रकार का वेश धारण कर नाचूंगी जो मुझे उनका स्मरण दिलाता रहे। मैं अपने परिवार की मर्यादा और अच्छे नाम की परवाह नहीं करती जिसे लोक अधिक महत्त्व देते हैं। मैं अपने प्रेमी, हरि की शैया पर जा लेटूंगी और परम सुख का आनंद उठाऊंगी।

“श्रीकृष्ण ही मेरे एकमात्र प्रेमी है। उनके शौक में मैं पागल हो जाती हूं।

“मुझे तब तक शांति नहीं मिलेंगी, जब तक

श्रीकृष्ण मेरे पास नहीं आयेंगे।

“मीरा अपने स्वामी श्रीकृष्ण के बंधन में बंधी दासी हैं।”

वह महिला जो इस गीत की रचियता हैं, जो हमेशा श्रीकृष्ण के विषय में सोचती रहती थी और जिसने उन्हें प्रेमी के रुप में चाहा, किसी कहानी की पात्र नहीं थी और न ही वह गोकुल की कोई गोपी ही थी किन्तु वह इतिहास की एक पात्र है जो आज से चारसौ वर्ष पूर्व विद्यमान थी। उसका नाम मीराबाई था। मीरा एक राजा की लडकी और एक राजा की पुत्रवधु थी।

उसने अपना सम्पूर्ण जीवन भगवान के चरणों में समर्पित कर जीवन की मुश्किलों को, कष्टों को झेला । वह जागती हो या सोयी हो, हर समय वह श्रीकृष्ण के विषय में सोचती रहती थी। यही कारण है ‘कि वह भारतीयों के हृदय में भगवान के परमभक्त के रुप में बसी हुई है।

आज भी लोग मीरा के गीत गाते हैं, जिसने गिरिधर गोपाल के प्रेम में, भक्ति में सबकुछ भुला दिया और अपने आपको समर्पित कर दिया था। ‘मीरा के भजन’ एक अनूठी परंपरा के रुप में भारतीय संगीत में विकसित हैं।

वह एक राजकुमारी थी। उसने अपनी मां को बचपन में ही खो दिया था। उसका विवाह एक राजकुमार से हुआ परंतु अपनी यौवनावस्था में उसे पति को खोना पड़ा।

उसकी ससुराल के लोग उसकी कृष्णभक्ति के विरोधी थे। यहाँ तक कि राजा खुद भी इसका विरोध करते थे। उन्होंने मीरा को मार डालने का भी प्रयत्न किया। फिर भी मीरा को कोई आंच नहीं आई। उसके होठों पर और हृदय में बस एक ही नाम रहता था, ‘गिरिधर गोपाल।’ वह कहती थी “गिरिधर मेरे भगवान हैं और मीरा उनकी दासी।”

मीराबाई के जीवन के संबंध में लोगों ने अनेक प्रकार की कहानियां गढी हैं। इन कहानियों में से कल्पित बातों को अलग कर सही बातों को बताना बहुत कठिन कार्य है।

इन कहानियों का स्वरुप पीढी दर पीढी बदलता गया। इसे पौराणिक कथा कह कर छोड देना भी उचित नहीं होगा।

कहानियों में कही गई कुछ बातें गलत हो सकती हैं। फिर भी मीरा के चरित्र व उसके जीवन के संबंध में हमें जानकारी मिल जाती है।

श्रीकृष्ण की प्रतिमा बालिका के हाथों में इस विषय में दो मत नहीं है कि मीरा राजस्थान के मेडता की रहनेवाली थी। मीरा ने अपने एक गीत में खुद को ‘मेडतानी’ (मेडता की रहनेवाली महिला) कहकर संबोधित किया है।

उसने अपने गीतों में यह भी कहा है कि वह दूदाजिनी (दूदाजी परिवार से संबंधित) है, जो उच्चवंशीय राठोड हैं। राजस्थान में कई छोटी-छोटी जागीरें थी।

मेडता उनमें से एक थी। वहां के राणा राव दूदाजी थे। राजस्थान के राजकुमार व्यावहारिक रुप से राणा कहे जाते थे। राणा राव दूदाजी की चार संताने थी। बडे पुत्र का नाम बीरम देव और छोटे पुत्र का नाम रतनसिंह था।

रतनसिंह एक वीर योद्धा था। बहुत दिनों तक उसे कोई संतान नहीं हई। आखिर ईश्वर की कृपा से उसके यहां कन्या का जन्म हुआ।

उसका नाम मीरा रखा गया। मीरा का जन्म १४९८ में मेडता परगने में ग्राम कुडकी में हुआ। जब वह बहुत छोटी थी तभी उसकी मां का स्वर्गवास हो गया।

उस समय भारत में अनेक छोटे-बड़े राज्य थे। इसके अलावा वह मुगलकालीन युग था। कभी भी लडाई छिड जाती थी।

मीरा के पिता रतनसिंह का भी अधिकतर समय लडाई में ही व्यतीत होता था। मीरा का लालनपालन उसके दादाजी दूदाजी के राजमहल में होने लगा।

एक दिन राजमहल के सामने से एक जुलूस निकला। मीरा तब छोटी थी। जुलूस के लोगों ने राणा को झुककर अभिवादन किया और आगे बढ़ गये।

वह शादी की बारात थी। दूल्हे ने बहुत ही आकर्षक पोषाक पहन रखी थी।

मीरा ने उसे देखा। उसकी मासूम आंखों कोवह एक बडे गुड्डे जैसा लगा।

“वह क्या हैं ?” उसके अपने दादाजी से पूछा।

“वह दूल्हा हैं,” उन्होंने जवाब दिया।

छोटी बालिका को मात्र दूल्हे का अर्थ ही नहीं समझा।

“मुझे भी ऐसा ही एक ला दीजिए न मैं उसके साथ खेलूंगी”, बालिका ने कहा।

बालिका के अनुनय का कोई क्या जवाब दे सकता?

यह तो स्वाभाविक बात हैं कि बच्चे हर नई वस्तु के बारे में पूछते हैं, जिसे वे देखते हैं। मीरा के दादाजी ने भी कुछ नहीं कहा और तुरंत श्रीकृष्ण की एक प्यारी सी मूर्ति लाई और मीरा को थमाते हुए बोले “इसे देखो, यही तुम्हारा दूल्हा है। इसकी अच्छी देखभाल करना ।”

मीरा ने चाहा, उसे वह मिल गया। वह उस मूर्ति के साथ खेलती। और तो और वह उस मूर्ति के साथ ऐसा व्यवहार करती, मानो श्रीकृष्ण ही उसके पति हो।

मीरा के संबंध में यह एक कहानी हैं। इस कहानी में असंभाव्य कुछ भी नहीं हैं। परंतु निश्चित रुप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि वास्तव में क्या हुआ।

मीरा को कृष्ण मूर्ति प्राप्त होने के संबंध में और एक कहानी हैं। वह भी उतनी ही विचारणीय हैं।

राव दूदाजी साधु-सन्तों का बहुत सम्मान करते थे। उनके महल में प्रतिदिन कोई न कोई साधु या संत या अन्य कोई अतिथि सत्कार पाता था।

एक बार रैदास नामक एक संन्यासी राजमहल आये। रैदास संत रामानंद के शिष्यों में से प्रमुख थे, जिन्होंने उत्तरी भारत में वैष्णव सम्प्रदाय का प्रचार किया। उनके पास `श्रीकृष्ण की एक सुंदर मूर्ति थी। वे उस मूर्ति की स्वयं पूजा करते थे। मीरा ने उस मूर्ति को देख लिया और उस मूर्ति को माँगने लगी।

मीरा उस मूर्ति के बारे में पूछताछ करने लगी किन्तु किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। मीरा भी मूर्ति के लिए हठ करने लगी। एक बच्चे के हठ को पूरा करने के लिए कौन संन्यासी से उनकी पूजा की मूर्ति मांगता ? संन्यासी राजा का आतिथ्य ग्रहण कर राजमहल से चले गये।

मीरा उस मूर्ति के लिए हठ करते ही रहीं। उसने रो-रो कर सिर पर आसमान उठा लिया। उसने अन्न-पानी यहाँ तक की दूध भी मूर्ति को पाने के लिए छोड दिया।

किन्तु अगले दिन सुबह रैदास वापिस राजमहल में लौट आये और श्रीकृष्ण की प्रतिमा जो उन्हें बहुत प्रिय थी, मीरा के हाथों में दे दी। मीरा को अपनी प्रिय वस्तु मिलते ही उनकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा।

दूदाजी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा ‘महाराज यह क्या ?” संन्यासी ने कहा “पिछली रात

श्रीकृष्ण मेरे स्वप्न में आये और कहने लगे ‘मेरी परम भक्त मेरे लिए रो रही है। जाओ, उसे जाकर यह मूर्ति दे दो’। यह मेरा कर्तव्य है कि मैं अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करुँ, इसीलिए मैं वापिस दौड कर आया। मीरा एक बहुत बडी भक्त है।” इतना कहकर संन्यासी ने मीरा को आशीर्वाद दिया और चला गया।

इस प्रकार यह एक अलग कहानी है। कुछ लोगों का कहना है कि यह संन्यासी रैदास नहीं बल्कि कोई अन्य व्यक्ति था। मीरा ने स्वयं अपने गीतों में कहा हैं,

“मेरा ध्यान हरि की ओर हैं और मैं हरि के साथ एकरुप हो गई हूँ। मैं अपना मार्ग स्पष्ट देख रही हूँ। मेरे गुरु रैदास ने मुझे गुरुमंत्र दिया हैं। हरिनाम ने मेरे हृदय में बहुत गहराई तक अपना स्थान जमा लिया है।….. “

कुछ भी हो किसी तरह छोटी बालिका मीरा के महान कोमल हाथों में श्रीकृष्ण की मूर्ति आ गई, जिसे किसी धार्मिक व्यक्ति ने भेंट दी।

इस तरह श्रीकृष्ण उसके जीवनसाथी बन गये।

मीराबाई एक राजा की पुत्रवधु

मीरा अपने दादाजी के राजमहल में बडी हुई। अपनी सामान्य शिक्षा के साथ साथ मीरा को संगीत व नृत्य की शिक्षा मिली। मीरा संगीत और नृत्य कला में निपुण हो गई। मीरा के मधुर गीतों जैसे गीत अन्य किसी कवियों के गीतों में बहुत कम पाये जाते हैं। मीरा के गीतों की विशेष रचना व राग के कारण वे अधिक लोकप्रिय हुए।

श्रीकृष्ण भी उसके मन-मंदिर में बसे हुए थे।

दूदाजी की मृत्यु के बाद, उसके बड़े पुत्र बीरमदेव राणा बने। उसने मीरा का विवाह करने का निश्चय किया। चितौड के राजकुमार भोजराज के साथ उसकी शादी तय की गई।

मीराबाई का विवाह

वह राणा संग का पुत्र था। १५१६ में ठाट बाट के साथ मीरा की शादी हुई। विवाह के समय मीरा ने श्रीकृष्ण की मूर्ति अपने पास रखी, यहाँ तक कि जहाँ नववधु बैठती है, बिल्कुल उसके बाजू में उसने मुर्ति रखी।

राज-परिवार में यह परंपरा थी कि दूल्हा अपने प्रतिनिधि के रुप में अपनी तलवार दूल्हन के बाजू में रखता है, किन्तु वहां तो श्रीकृष्ण की मूर्ति रखी हुई थी । पर दूल्हेवाले लोगों ने तलवार के स्थान पर श्रीकृष्ण की मूर्ति को स्वीकार कर लिया।

मीरा बचपन से ही श्रीकृष्णपूजा को अपना अधिकार मानती रही। उसके मायके के किसी भी व्यक्ति ने उसके राह में कोई विघ्न नहीं डाला। विघ्न डालने की बात तो अलग रही वे मीरा को इस बात के लिए प्रोत्साहित करते थे।

परंतु जैसे ही अपने पति के यहां रहने आई, उसकी ससुराल के लोग उसकी कृष्णभक्ति से रुष्ट रहने लगे।

जिस परिवार में मीरा ने कदम रखा था वह शूरता और वीरता के लिए प्रसिद्ध था। राणा अकेले ही जीवन की मुश्किलों का सामना करते रहे।

उन्होंने साहस से काम लिया किन्तु मुगलों का राजस्थान पर अधिकार हो, यह कभी उन्होंने स्वीकार नहीं किया। मुगलों से निरंतर युद्ध करते रहने से, उनके दृढता, शूरता एवं वीरता की पताका राजस्थान पर फहराने लगी।

ऐसे शूर, वीर मीरा के ससुर थे और उनका बडा बेटा भोजराज, मीरा के पति थे। राजस्थान के योद्धा भारत के लिए गर्व थे। भोजराज भी बहुत शूर वीर था।

प्राचीन काल से ही उसके परिवार के व्यक्ति शाक्त धर्म सम्रदाय के अनुगामी थे। यही कारण था कि वे शक्ति के देवता दुर्गा, काली, चामुंडी और पार्वती की पूजा करते थे। वे विष्णु की पूजा करना पसंद नहीं करते थे।

विशेषरुप से मीरा की सास को यह बात पसंद नहीं थी।

यह तो विचित्र ही बात लगती हैं कि कोई ईश्वर को अपना पति माने और उसी प्रकार का व्यवहार करे। किन्तु भक्तिसम्प्रदाय के लिए यह नई बात नहीं है।

भक्ति कई प्रकार की होती है। यह तो भगवान और भक्तों के संबंधो पर निर्भर हैं। यदि भगवान को पालक माना जाये तो वह अपने प्रिय बालक का ‘वात्सल्य भाव’ कहलाता हैं (अर्थात माता-पिता का अपने बालक पर प्रेम) । यशोदा व कृष्ण का संबंध इस प्रकार का सबसे अच्छा उदाहरण हैं।

इसके अलावा, यदि भक्त भगवान को अपना स्वामी माने और इस बात में विश्वास रखे कि उसकी जिंदगी ईश्वर कृपा पर हीं है और अपनी जिंदगी में सदैव भगवान की आज्ञा का पालन करेगा, तो इस प्रकार का संबंध स्वामी और दास का भाव दर्शाता है।

यह ‘दास भाव’ (दास की स्वामी के प्रति भक्ति) कहलाता हैं। हनुमान और श्रीराम के बीच जिस प्रकार का संबंध था, यह उसका एक उदाहरण हैं।

जब ईश्वर को अपने अंतरंग मित्र के रुप में समझा जाये, तब वह ‘संखा-भाव’ एकमित्र का दूसरे मित्र के प्रति प्रेम कहलाता हैं। श्रीकृष्ण और उद्वव की मित्रता इसका एक प्रकार हैं।

जब ईश्वर एवं भक्त का संबंध प्रेम और अंतरंगता लिए हुए हो, जो एक पति-पत्नी के बीच होता है, ‘माधुर्य भाव’ कहलाता है। इसे भक्ति का सर्वोच्च रुप समझा जाता हैं।

इसमें भक्त पत्नी और ईश्वर पति होता है। पत्नी अपने स्वामी की विभिन्न प्रकार से सेवा करती हैं। वह उसकी देखभाल प्रेमपूर्वक करती हैं जैसी माता करती है।

वह उसकी सेवा में तथा आज्ञापालन में एक दास की तरह उपस्थित रहती हैं। वह उसके साथ एक मित्र की तरह मधुर व्यवहार करती हैं। ‘माधुर्य भाव’ में भक्त का संबंध भगवान से निश्चित ही पत्नी के रुप में होता है।

मीरा ने बचपन से ही इस प्रकार से प्रेमपूर्वक ईश्वर को मान्यता दी थी। उसकी शादी के समय भी, सब लोगों की उपस्थिती में उसने यह दर्शाया कि, श्रीकृष्ण से ही वह शादी कर रही हैं।

उसकी जिंदगी का यही सबसे बडा दोष बन गया। उसके मायके में कृष्ण भक्ति में किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं डालते थे। उसके हृदय में सचमुच ही इस भावना ने गहरे जड़ें जमा ली थी।

हठी या पागल ?

यद्यपि मीरा बचपन से ही अपने इस तरुणावस्था तक यह विश्वास करती आई थी कि श्रीकृष्ण उसका स्वामी हैं, अपने व्यक्तिगत जीवन में उसने यह नहीं दर्शाया कि वह अपने पति की उपेक्षा करती हैं।

एक आदर्श पत्नी की तरह उसने अपने पति को स्नेह व प्रेम दिया। परंतु किसी भी स्थिती में वह इस बात के लिए तैयार नहीं थी कि वह श्रीकृष्ण को भूल जाय।

सम्पूर्ण संसार में उसके लिए अपने प्रेमी से बढकर कोई नहीं था। श्रीकृष्ण के विलोभनीय छोटे से काल्पनिक रुप के सामने बैठकर वह प्रेम करती थी।

उसके लिए अपने मधुर कंठ से गीत गाती और नाचती थी। यही उसका जीवन था। वह केवल इसीलिए जन्मी थी। ऐसी अवस्था में उसे वह कैसे छोड़ सकती थी ?

परंतु दूसरी ओर उसके पतिगृह में उसकी यह ढिठाई समझी जाती थी। घर का प्रत्येक व्यक्ति इस हठी लडकी को सलाह देता था कि वह अपना व्यवहार सुधारे।

वह उनकी सब बातें सुनती थी। वह सब कुछ करने को तैयार थी किन्तु यदि उसे कोई कृष्ण को भूल जाने के लिए कहे, तो वह सहन नहीं कर सकती थी।

अन्य लोगों की दृष्टि में उसकी यह महान भक्ति

कुछ और नहीं बल्कि एक सनक थी। जब उन्हें इस बात का यकीन हो गया कि वह जो कहते हैं, उस बात से वह टस से मस नहीं होती, तो वे भी उनके प्रति उदासीन हो गये।

दिन प्रतिदिन वह अपना अधिक से अधिक समय साधु-सन्तों के संसर्ग में बिताना चाहती थी। उसके समस्त ध्यान का केन्द्र केवल श्रीकृष्ण थे।

आखिर में भोजराज ने केवल मीरा के उपयोग के लिए राजमहल के पासही एक मंदिर बनवा दिया। कुछ लोगों का कहना है कि राजमहल में आनेवाले साधु-सन्तो की भीड को रोकने के लिए यह मंदिर बनवाया गया।

कुछ भी हो मीरा के लिए यह और अधिक अच्छा हुआ क्योंकि अब वह स्वतंत्र रूप से श्रीकृष्ण की भक्ति कर सकती थी।

“जब सारा संसार सो जाता है, मेरे भगवान से दूर चले जाते हैं, मैं उन्हें जगाती हूँ। मुझे मालूम है विलासिता के भवन से कोई मेरे भगवान को मुझसे दूरकर देता हैं। तारे गिनते हुए मैं सारी रात बिता देती हूँ ।

मेरे लिए यह सुखद समय कब आयेगा ? मीरा के प्रभुगिरिधर ही उसकी समस्या हल कर सकते हैं,” इस लिए वह आनंदविभोर हो गाती है।

उसके अपने लोग जिन्होंने उसे, आनंदविभोर हो गाते नाचते देखा, इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वह

पागल हो गई हैं। परंतु साधुसन्त मीरा का एक महान संत के रुप में आदर करते थे। उन लोगों की भीड होने लगी जो उस के दर्शन और अनुग्रह के अभिलाषी थे।

चितौड राजघराने की प्रतिष्ठा बजुत ऊँची थी। कितना प्रतिष्ठित एवं श्रेष्ठ परिवार था यह !

ऐसे परिवार के लिए यह कितनी अपमानजनक बात थी कि एक राजकुमार की पत्नी साधु-सन्तों के साथ नाचती और गाती है।

इस प्रकार के विचारों ने उसकी ससुराल के लोगों को घेर लियां वे सभी मीरा से क्रोधित थे और उनके पास तिरस्कार के सिवा कुछ न था। परंतु भोजराज मीराबाई से अत्याधिक प्रेम करते थे। इसीलिए किसी को उसके विरुद्ध कुछ कहने का साहस नहीं होता था।

परंतु दुर्दैव से १५२१ में भोजराज की मृत्यु हो गई। १५१८ में एक लडाई में वे घायल हो गये थे और उन जख्मों ने उन्हें काल के मुँह में पहुंचा दिया।

विवाह के पाँच वर्ष के बाद ही मीरा विधवा हो गई। उस समय मीरा की आयु मात्र २३ वर्ष की थी ।

मीरा को दुनिया से जोडे रखनेवाली आखरी कडी भी टूट गई। वहां उसकी देखभाल करनेवाला कोई नहीं रहा। पहले से ही वह लोगों के तिरस्कार सहन कर रही थी और उसे पागल का नाम देकर प्रत्येक व्यक्ति तिरस्कार करने लगा।

परंतु लोगों की इस उदासीनता से उसकी भक्ति और बढ गई। वह श्रीकृष्ण की भक्ति में और अधिक लीन हो गई।

क्रोधित राणा और उसके आदमियों ने मीराबाई को विभिन्न प्रकार से मार डालने का प्रयत्न किया।

मीरा ने प्रत्येक बात को बिना किसी बचाव के मंजूर किया। वह हर प्रकार से खतरे से सुरक्षित बच जाती थी। उस पर किसी प्रकार की आंच नहीं आती थी। उसने अपने गीत में यह प्रमाणित किया।

“राणा ने मीरा के पास फूलों से भरी एक टोकनी भेजी जिसमें सांप छिपा कर रखा था। मीरा पूजा में व्यस्त थी, अपना हाथ टोकनी में डाला और कुछ फूल

निकाले। कितना आश्चर्य कि वह सांप शालिग्राम के रुप में बदल गया। (शालिग्राम गंडकी नदी के किनारे का छोटा गोल पत्थर हैं। इस वैष्णवों द्वारा भगवान विष्णु के प्रतीक के रुप में पूजा जाता है।)

मीरा को जान से मारने का निर्णय लेकर राणा ने विष का प्याला भेजा। उसने भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान किया और उस विष को पी गई। जहर अमृत में बदल गया।

राणा ने नुकीले कीलों की शैया बनवाई। जब रात्रि का अंधकार बढा, मीरा उस कील भरी शैया की कीलें उसके शरीर में चुभने की बजाय फूल बन गयी।

मीरा इन सभी खतरों से बच गई। इसका कारण और कोई नहीं उसके भगवान थे। मीरा अत्याधिक प्रेम के उन्माद में अपने भगवान की खोज में सब जगह भटकने लगी ताकि वह अपने आप को उनकी पूर्णता में विलीन कर सके ।

राणा ने कभी भी उसे खुले रुप से मारने की कोशिश नहीं की। वह सोचता था कि औरत को मारने से पाप लगता हैं। वह इस बात से भयभीत होता था।

वह सोचता था कि कहीं उसके इस कृत्य से मीरा को चाहनेवाले क्रुद्ध हो जायेंगे। जब राणा की सारी गुप्त योजनाएँ असफल हो गई और मीरा सभी हिंसात्मक प्रयत्नों से बिना किसी हानि के सुरक्षित रही, तब उसने कुछ अप्रिय बातें कहते हुए कहा “यह नीच औरत खुद डूब कर क्यों नही मर जाती ?”

गिरिधर गोपाल के सिवाय मेरा और कोई नहीं

मीरा को राणा की इच्छा का पता चला। वह स्वयं भी सोचने लगी कि यही सही हैं। यदि वह डूब कर मर जाये तो उसकी सास और अन्य संबंधियों को बहुत शांति मिलेगी।

इस तरह वह स्वयं भी भगवान श्रीकृष्ण से मिल जायेगी। इन सारी बातों को सोच कर मीरा नदी पर पहुंच गई।

नदी किनारे खडी होकर वह श्रीकृष्ण से प्रार्थना करने लगी “ओ, मेरे भगवान, मुझे अपनी शरण में ले लो” और इसके बाद वह कूद ही रही थी कि एक आवाज ने उसे रोक दिया। वह आवाज मीरा को

संबोधित कर कहने लगी।” खुद को मारना एक बहुत बडा पाप हैं। ऐसा मत करो। पानी में मत कूदो । वृंदावन चली जाओ।”

वृंदावन वह जगह थी जहाँ श्रीकृष्ण ने अपना बचपन बिताया था। मीरा वृंदावन के लिए चल पडी। वहाँ उसे, परिवार की प्रतिष्ठा के लिए कष्ट देनेवाला कोई नहीं था।

वहाँ किसी राजघराने की परंपरा व नियमानुसार चलने की आवश्यकता नहीं थी। इन सारी जंजीरों को तोड वह स्वतंत्र रह सकती थी। वह राणा के भय से भी मुक्त हो सकती थी।

अपनी इस आनंददायक यात्रा के लिए मीरा श्रीकृष्ण के आगे नाचती-गाती थी : “मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरों ने कोई” (गिरिधर गोपाल के सिवाय मेरा और कोई नहीं है।)

वृंदावन का एकमात्र पुरुष

वृंदावन में मीरा के जीवन से एक प्रभावकारी कथा जुडी है। वृंदावन में कई साधु संत थे। जीवा गोस्वामी उस सब में प्रमुख थे। वे अपने व्रत का कडाई से पालन करते थे।

वह यह नहीं चाहता था कि उस पर किसी औरत की छाया भी पडे। इसलिए औरतें कभी भी उनके दर्शन के लिए नहीं जाती थी। चैतन्य देव के

भक्ति-आन्दोलन में संलग्न होकर उन्होंने भक्ति सम्प्रदाय का प्रसार किया।

मीरा को साधु एवं तपस्वियों के प्रति अगाध श्रद्धा थी इसीलिए वह इस महान व्यक्ति के दर्शन के लिए पहुंची। आश्रम के मुख्य द्वार पर ही गोस्वामी के शिष्य ने मीरा को रोक लिया। उसने कहा “स्वामीजी किसी महिला को नहीं देखते।”

यह बात सुनकर मीरा को हँसी आ गई। उसने कहा “मैं तो सोची थी कि वृंदावन का एक मात्र पुरुष श्रीकृष्ण है। अभी मैं देख रही हूँ कि उनका भी कोई प्रतिस्पर्धी है।”

मीरा के यह शब्द गोस्वामीजी के हृदय में नुकीले बाणों की तरह बिंध गये। वे अपनी कुटिया से नंगे पैरों से चल कर बाहर आये और मीरा को पूर्ण आदर के साथ आश्रम में ले गये।

वृन्दावन में एक मात्र पुरुष श्रीकृष्ण हैं। सारे भक्त गोपियाँ हैं। भक्तों के लिंग संबंधी कोई भेद नहीं।

राजमहल छोडने के पश्चात् मीरा कई महान लोगों एवं सुप्रसिद्ध कवियों के सम्पर्क में आई। इससे उसकी भक्ति और काव्यमय प्रतिभा को और अधिक बल मिला।

द्वारका में मीराबाई

मेडता और चितौड की राजनैतिक स्थिति इस समय तक बहुत बदल गई थी। अब तक मीरा की ओर किसीने ध्यान नहीं दिया। सभी ने उसे समाज के लिए कलंकित कह दिया था।

उसके चाचा बीरम देव अपने राज्य को बचाने के लिए युद्ध करते रहे। उनके पास इतना समय नहीं था कि वे मीरा के बारे में कुछ सोचते। खुद मीरा ने भी कभी किसी पर बोझ बनना नहीं चाहा।

वह सन्तों के साथ राज्य के उत्तरी भाग की यात्रा में गई। आखरी में उसने द्वारका में विश्राम लिया। रणछोडजी (श्रीकृष्ण का दूसरा नाम) का द्वारका स्थित मंदिर ही उसका तीर्थ स्थान बन गया।

राजस्थान में मीरा यद्यपि बहुत अधिक लोकप्रिय हो गई थी फिर भी प्रतिष्ठित घराने उसे अपनाने में हिचकिचाते थे। मीरा के प्रति राणा के दुर्व्यवहार की बातें चारों और फैल गई थी।

रतनसिंह की हत्या कर दी गई थी और उदयसिंह गद्दी पर बैठा था। उसने सोचा यदि मीरा साधुओं के साथ अकेली रहेगी तो उसके प्रतिष्ठित परिवार के लिए यह बदनामी की बात होगी।

इसीलिए, उसने मीरा से चितौड लौट आने की प्रार्थना की। एक बार इतने सारे अत्याचार सहन करने के बाद मीरा की तनिक भी इच्छा नहीं थी कि उस पिंजरे में पुनः लौटकर जाय।

इस विषय में एक मजेदार कथा प्रचलित है।

उदयसिंह समझ गया था कि मीरा उसके कहने से वापिस नहीं लौटेगी। उसने चितौड के पांच ब्राह्मणों को उससे मिलने भेजा। इन ब्राह्मणों ने मीरा से अनुरोध किया कि वह चितौड लौट चले।

मीरा सोचने लगी, यदि वह वापिस राजमहल में लौटकर जायेगी, तो वही पुरानी बातें फिर दुहराई जायेगी।

क्या वह फिर से उस राजमहलरुपी जेल में चली जायेगी ? ‘मैं वहां नहीं जाऊंगी, ‘ मीरा ने कहा।

वे तो राणा थे जिन्होंने इन ब्राह्मणों को भेजा था। इन ब्राह्मणों में इतना साहस नहीं था कि वे मीरा को साथ लिए बगैर चितौड लौटते और राणा के सामने खडे रहते।

इन ब्राह्मणों ने मीरा को मनाने के बहुत प्रयास किये, प्रार्थना की कि वह किसी प्रकार चितौड लौट चलें।

“नहीं”, मीरा ने कहा “मैं नहीं जाऊंगी।” तब ब्राह्मणों ने आखिरी हथियार चलाया- “हम आपको साथ लिए बगैर नहीं जायेंगे। यदि आप हमारे साथ नहीं चलोगी, तो हम यहीं पर अन्नग्रहण किये बिना अपने प्राण त्याग देंगे।”

ब्राह्मणों की वाणी सुनकर मीरा बडी विचित्र स्थिति में फंस गई वह चितौड नहीं जाना चाहती थी। वह यह भी नहीं चाहती थी कि वह इन ब्राह्मणों की मृत्यु की जिम्मेदार बने।

कुछ सोचकर मीरा ने ब्राह्मणों से कहा कि वे उस रात मंदिर में ठहर जायें। अगला दिन चितौड चलने के लिए वह राजी हो गई। ब्राह्मणों को यह जानकर बडी प्रसन्नता हुई और वे मंदिर में ठहर गये ।

संत मीराबाई कहां है ?

रात बीत गई और सुबह हुई मीरा का कहीं पता न था।

ब्राह्मण अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो गये। उन्होंने मीरा को बहुत ढूंढा। अन्य भक्तों और संन्यासियों ने भी मीरा की खोज की। परंतु मीरा का कहीं पता न चला।

मीरा तो नहीं मिली किन्तु उसके वस्त्र रणछोडजी के मंदिर के सामने पडे मिले ।उसके भक्तों ने यह निष्कर्ष निकाला कि वह अपने प्रिय परमेश्वर, लाल गिरधर से जा मिली हैं।

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