मनुष्य क्या है? क्या यह शरीर है?

मनुष्य क्या है? यह एक प्रश्न है? इसका उत्तर सन्तों ने इस प्रकार दिया है-मनुष्य दो वस्तुओ के मिलाप से बना है एक शरीर है, जो सामने दिखाई देता है।

दूसरी ज्योत इस जोत को सन्त आत्मा या रूह भी कहते है। शरीर जड़ है, रूह चेतन है। शरीर यदि हिलता-जुलता है तो वह इस रूह के ही कारण है। यदि रूह निकल जाये तो यह बेकार है।

जैसे बिजली के बिना बिजली के पंखे की , कोई कीमत नहीं, ऐसे ही रूह के बिना शरीर की कोई कीमत नहीं। प्रश्न चल रहा है कि

मनुष्य क्या है? क्या यह शरीर है?

नहीं। शरीर तो इसने धारण किया है, जिसको त्याग भी देता है। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य का वास्तविक स्वरूप आत्मा या रूह है, शरीर नहीं। गुरुवाणी का एक शब्द है:

मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु ॥

मन हरि जी तेरै नालि है गुरमती रंगु माणु ॥

मूल पछाणहि तां सह जाणहि मरण जीवण की सोझी होई ॥

गुर परसादी एको जाणहि तां दूजा भाउ न होई ॥

मनि सांति आई वजी वधाई तां होआ परवाणु ॥

इउ कहै नानक मन तूं जोति सरूपु है अपणा मूलु पछाणु ॥

यह शब्द किसी अर्थ का मोहताज नहीं:

अपने अर्थ स्वयं बता रहा है भाव इसका यह है कि मनुष्य जोतस्वरूप है, शरीरस्वरूप नहीं और वह जोत इसके अपने अन्दर है, है बाहर नहीं।

इसको अपने स्वरूप का ज्ञान होना चाहिये।लोग भूले हुए हैं, जो व्यर्थ ईश्वर की तलाश में बाहर फिरते रहते हैं कि उसका क्या स्वरूप है?

मनुष्य क्या है ? जानने के लिए सन्तों का उपदेश मानने पड़ेंगे

सन्तों का उपदेश

सन्तों का उपदेश है कि पहले तुम गुरुमत धारण करके अपने स्वरूप की लखता करो, ईश्वर का ज्ञान अपने आप हो जायेगा अर्थात् ईश्वर का ज्ञान अपने अन्दर से ही प्राप्त होगा। यह इस शब्द का सिद्धान्त है।

बुल्लेशाह साहिब का कथन है

बुल्ला शौह असाँ थी वख नहीं, बिन शौह थीं दूजा कख नहीं ।

पर वेखन वाली अख नहीं,इस वास्ते ओस दी लख नहीं ॥

ईश्वर अपने अन्दर है

ईश्वर अपने अन्दर है। उसको देखनेवाली आँख चाहिये। इन बाहरी आँखों से वह दिखाई नहीं देता। यह बाहरी में आँखें, बाहर की वस्तु को देख सकती हैं।

अन्दर की वस्तु को देखने के लिये आँख भी अन्दर की होनी चाहिये। क्योंकि मनुष्य की अन्दर की आँख है नहीं, इसलिये वह को अन्दर की वस्तु को देख नहीं पाता।

परमात्मा आनन्दरूप है

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