भगवान् श्रीकृष्ण की बाल लीला का एक दृश्य
एक बार नन्द जी के घर में एक ब्राह्मण देवता आये। उनका प्रणाम आदि से आदर सत्कार करने के बाद यशोदा माता ने भोजन के लिए उनसे विनय की ।
इस पर पण्डित जी ने कहा कि भोजन तो करना ही है। नन्दरानी ने कच्चा सीदा-आटा, घी, दूध, चावल, मीठा आदि सब सामान दे दिया। पण्डित जी ने चौका लीपा, बर्तन साफ़ किये और लगे भोजन बनाने।
उन्होंने बड़े परिश्रम से भोजन तैयार किया। उस समय भगवान श्रीकृष्ण जी की आयु लगभग तीन वर्ष की होगी ।
जब भोजन तैयार हो गया तो थाली में परोस कर आँखें बन्द करके पण्डित जी भगवान् को भोग लगवाने के लिए दिल में प्रार्थना करने लगे-ऐ दीन दयाल ! यह भोजन आपके लिए ही बनाया गया है।
आप इसे स्वीकार करें- आपका दिया हुआ प्रसाद मुझे मिले – यही मेरे मन की एकमात्र अभिलाषा है। आप मेरी आशा को पूर्ण करें। मैं आपका प्रसाद पाकर कृतार्थ हो जाऊँ ।
ब्राह्मण देवता नेत्र मूंदे प्रार्थना कर ही रहे थे कि इतने में बालरूप भगवान श्रीकृष्ण जी आ पहुँचे और उस ब्राह्मण की सच्ची श्रद्धा देख नन्हें-नन्हें हाथों से खीर-पूड़ी का बाल-भोग लगाने लगे।
जब पण्डित जी ने आँखें खोलीं तो क्या देखते हैं कि बाल ‘मोहन’ दोनों हाथों से खीर खाने में संलग्न हैं। यह देखते ही पण्डित जी उच्च स्वर में शोर मचाने लगे- नन्दरानी ! ओ नन्दरानी !! तेरे इस चंचल बालक ने तो मेरा बना बानाया भोजन खराब और जूठा कर दिया है।
पण्डित जी की यह बात सुनकर यशोदा बोली- पण्डित जी ! अबोध बालक है-आप दुःखी न होवें । यहाँ किसी चीज़ की कमी नहीं, आपकी कृपा से सब कुछ बहुत है जितना भी चाहें आटा, घी, मक्खन, दूध, चावल आदि और ले लीजिये और कन्हैया की जूठी रोटी हमें दे दीजिये, हम खा लेंगे। आप अपने लिये और शुद्ध भोजन बना लेवें।
ब्राह्मण ने दोबारा कच्चा सीदा लेकर चौका इत्यादि पुनः लीपा, कृष्ण के जूठे बर्तन साफ़ किये और तब लगे भोजन बनाने। लगभग एक घण्टे में पुनः भोजन तैयार हो गया तथा पण्डित जी ने पूर्ववत् थाल परोस कर भगवान के भोग निमित्त रखा।
तत्पश्चात् नेत्र मूँद कर उसी प्रकार भोग लगाने के लिए भगवान से विनय करने लगे। इतने लीलाधारी, शाम सुन्दर फिर आ धमके और लगे खीर खाने। जैसे ही पण्डित जी ने नेत्र खोले तो फिर भगवान बाल कृष्ण को खीर खाते देखा और घबरा कर बोले-अरी यशोदे ! यह तेरा बालक बड़ा नटखट है फिर खाना जूठा कर गया। इस ने सब गुड़ गोबर कर दिया ।
यह सुनकर माता यशोदा गुस्से में भर गई, आते ही एक तमाचा कृष्ण के कोमल मुख पर लगाती हुई बोली- अरे निगोड़े! तू बड़ा चंचल है! चल, तुझे अन्दर बन्द करती हूँ। इतना कहते हुए बालक को बांह से पकड़ कर कमरे में ले गई। उसे अन्दर कमरे में बन्द कर बाहर से दरवाज़े पर साँकल (कुण्डी) चढ़ा दी।
ब्राह्मण बेचारे को अब तीसरी बार फिर भोजन बनाना पड़ा। यशोदा जी ने सब सामान फिर से पण्डित जी को दिया और दीनता से हाथ जोड़कर कहने लगी- महाराज ! अबोध बालक है। आप बच्चे के उत्पात को न देखें। फिर से भोजन बनाने का कष्ट कर लेवें ।
पण्डित जी ने फिर से सब काम किया-चौका लीपा, बर्तन परिमार्जित (साफ़) किये, चूल्हा जलाया और भोजन तैयार किया।
तीसरी बार जब थाल परोसने लगे तब इधर- उधर फटे-फटे नेत्रों से देखने लगे कि कहीं फिर से वह बालक मेरे भोजन को छू न देवे।
इतने में यशोदा जी ने आकर पण्डित जी को सान्त्वना दी कि आप चिन्ता न करें। मैंने उसे कमरे में बन्द कर दिया है। पण्डित जी उसकी बात से निश्चिन्त हो गए ।
दैवयोग से माता यशोदा किसी काम के लिए उस कमरे में गईं जहाँ कृष्ण को बन्द किया था। बाहर निकलते
समय उन्हें साँकल लगानी भूल गई थी एवं उन्हें कृष्ण दिखाई भी नहीं दिया था क्योंकि बाल कृष्ण तो एक कोने में दुबका बैठा था ।
अब तीसरी बार थाल परोस कर पण्डित जी नेत्र बन्द कर पूर्ववत् श्रद्धा से भगवान की स्तुति करने लगे- ‘प्रभो! आप तो कृपानिधान हैं। यह तीसरी बार मैंने भोजन बनाया है, आप कृपा करें! आपके भोग लगाने से ही मेरी मेहनत सफल हो सकती है। आ जाइये, भगवन् !”
पण्डित जी आँखें बन्द किये प्रार्थना कर ही रहे थे कि कृष्ण कन्हाई फिर आ पहुँचे और लगे तीसरी बार भोग लगाने।
थोड़ी देर बाद पण्डित जी ने जब आँखें खोलीं तो फिर श्याम सुन्दर को खीर खाते देखा तो बहुत ज़ोर से चिल्लाये – हाय ! अनर्थ हो गया ! यह चंचल बालक तो आज मुझे भूखों मारेगा। अरी यशोदे ! ले, अब भी तेरा बालक किये कराये पर पानी फेर गया ।
पण्डित जी के दुःखभरे वचनों को सुनकर यशोदा गुस्से से लाल-पीली होने लगी और लाठी हाथ में लेकर दौड़ी हुई आई।
बालक कृष्ण को लाल आँखें और लाठी दिखाकर बोली–अरे, ओ नटखट कन्हैया ! तू कितना उद्दण्ड (हठी) हुआ जा रहा है जो तूने तीसरी बार भी पण्डित जी के भोजन को छ लिया ।
जब माता यशोदा ने रोष में भर बालक मोहन से इस प्रकार कहा तब उस समय कृष्ण मुरारी रुआँसी सूरत बनाकर तोतली वाणी से यह मधुर शब्द बोलने लगे-
मैया मोहि जनि दोष लगावै, बार-बार यह मोहि बुलावै । हाथ जोड़ कहे प्रभु आइयो, खीर खाँड का भोजन पाइयो ।। तब मैं रह न सकूं, उठ धाऊँ, या को राँधा भोजन खाऊँ । सुनत ही गूढ़ मृदु हरि के बैना, खुल गये विप्र रोय के नैना ।।
‘हे मैय्या ! अब आप ही पण्डित जी से पूछ लीजिये कि वे स्वयं तो मुझे हाथ जोड़कर बुलाते हैं तथा जब मैं नहीं आता तो करबद्ध हो मेरी चिरौरी (मिन्नतें) करने लगते हैं और बड़ी श्रद्धा-भक्ति से मनाते हैं।
बार-बार खीर खाने का आग्रह करते हैं। आपके भय से मैं इनके पास जब नहीं आता तो फिर यह ब्राह्मण देवता पुनः मुझे भोग लगाने के लिए विवश करते हैं।
इस पर जब मैं इनकी प्रार्थना स्वीकार कर खीर-पूड़ी इत्यादि खाने लगता हूँ और ये प्रत्यक्ष में मुझे खाते देखते हैं तब आपको बुलाते हैं और चिल्लाने लगते हैं।’
भगवान् श्रीकृष्ण जी के मुख से यह वचन सुनकर ब्राह्मण देवता की आँखें खुल गईं और अब वे मन ही मन अपनी करनी पर अति लज्जित हुए। उन्हें पूर्ण रूप से विश्वास हो गया कि यह निश्चित रूप से बाल रूप में स्वयं ही साक्षात् परब्रह्म हैं।
अब तो वह दिल में पश्चात्ताप कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी से लगे क्षमा याचना करने। उन्होंने नन्दरानी से श्यामसुन्दर को लेकर प्यार से अपने अंक में भर लिया और उन पर बलिहार जाने लगे। तत्पश्चात अपने हाथों से सब चीज़ों का भोग लगवाया।
जब कृष्ण भगवान जी तृप्त हो गये तब शेष भोजन को ब्राह्मण ने प्रसाद समझ कर खाया। ऐसा स्वादिष्ट भोजन पण्डित जी ने अपने जीवन में पहले कभी न खाया था।
इस प्रकार बाल-रूप भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी के दर्शन एवं कृपाप्रसाद पाकर पण्डित जी भी कृतकृत्य हो गये ।