भक्ति मार्ग में दृढ़ता –
अपनी सौतेली माँ के द्वारा बुरा व्यवहार करने के कारण, ध्रुव ने बचपन में, अपने सच्चे पिता भगवान श्री हरि विष्णु जी को पाने का दृढ़ संकल्प कर लिया। श्री भगवान की प्राप्ति हेतु जो पहला प्रयास होता है वह दृढ़ संकल्प ही है। बिना दृढ़ संकल्प के कोई भी किसी कार्य में पूर्ण सफलता नहीं पा सकता।
यह संकल्प की दृढ़ता ही है जो उस कार्य को सिद्ध करने में आगे बढ़ाती है। इसके पश्चात् दूसरा चरण होता है मार्गदर्शक का मिल जाना क्योंकि मार्गदर्शक के बिना सही मार्ग और सही युक्ति नहीं मिलती। सही मार्ग और सही युक्ति के बिना मंज़िल की ओर कैसे कोई आगे कदम रखेगा और यदि कदम बढ़ाएगा भी तो गलत दिशा में जाने का खतरा बना रहेगा।
भक्त ध्रुव का संकल्प पूरी तरह दृढ़ था अतः कुदरत की सब शक्तियाँ उसके साथ थीं जिसके प्रभाव से मार्ग में उसे मार्गदर्शक भी मिल गए। ये मार्गदर्शक थे देवर्षि नारद जी। श्री नारद जी ने पहले तो ध्रुव की परीक्षा ली और उससे कहा कि तुम अभी बालक हो, वापिस लौट चलो, वन में बहुत कष्ट झेलने पड़ेंगे।
मैं तुम्हारे पिता से तुम्हें आधा राज्य दिलवा देता हूँ। भक्त ध्रुव सोचने लगा कि अभी तो मैंने भगवान को पाने के लिए कदम बढ़ाया ही है कि आधा राज्य मेरे कदमों में आ गिरा है। जब और आगे बदूँगा तथा भगवान को पा लूँगा तो न जाने क्या कुछ मिलेगा। तब ध्रुव ने नारद जी को कहा कि गुरुवर, अब तो मैं भगवान के पाए बिना किसी भी शर्त पर वापिस नहीं लौटूंगा।
जब नारद जी ने देखा कि ध्रुव अपने लक्ष्य से पीछे हटने वाला नहीं है तो बड़े प्रसन्न हुए और प्रसन्न होकर बोले ठीक है, हम तुम्हें वह हरिनाम मंत्र देते हैं जिसको यदि दृढ़ता से एकाग्र होकर जपोगे तो भगवान अवश्य तुम्हारे पास आ जाएँगे। वास्तव में भगवान को पाने का सरल उपाय हरिनाम जप ही है, जैसा कि श्री रामायण में वर्णन है-
समुझत सरिस नाम अरु नामी ।
प्रीत परसपर प्रभु अनुगानी ॥
नाम रूप दुई ईस उपाधी ।
अकथ अनादि सुसामुझि साथी ॥ (बाल कांड)
अर्थ- समझने में नाम और नामी दोनों एक से हैं, किंतु वास्तव में दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है। अर्थात् नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। नाम लेते ही नामी वहाँ पहुँच जाते हैं।
नाम और रूप दोनों उस ईश्वर की उपाधि हैं। नाम भी अनिर्वचनीय है तथा नामी का रूप भी अनिर्वचनीय है। नाम भी अकथनीय व अनादि है और नामी का रूप भी अकथनीय व अनादि है। शुद्ध भक्ति-भाव-युक्त बुद्धि से नाम का निरंतर स्मरण करने पर इनका मूल स्वरूप समझ में आता है। नाम का निरंतर स्मरण करने वाले के हृदय में नाम के साथ-साथ भगवान का स्वरूप भी प्रकट हो जाता है।
इस नियम के अनुसार भक्त ध्रुव ने वन में एकांत स्थान ढूँढ़ा और बड़ी श्रद्धा से श्री नारद जी द्वारा दिए गए नाम मंत्र अर्थात् दिव्य-मंत्र का सुस्मिरण करने में संलग्न हो गए। सबको विदित है कि ध्रुव जी नाम-सुमिरण के प्रभाव से अपना लक्ष्य पाने में सफल हुए। एक दिन भगवान उनके सम्मुख प्रकट हुए, भक्ति का वरदान दिया तथा उसे ध्रुव नाम का अटल और अमर ग्रह प्रदान किया जो आज तक उनके दृढ़ संकल्प का प्रतीक बन कर आकाश में चमक रहा है।
इसी पर एक भक्त ने अपना अनुभव बतलाया है। वे कहते हैं कि एक दिन एक संत जी ने मुझे शाम पांच बजे सत्संग में आने के लिए कहा। प्रातः दुकान पर गया। सत्संग का समय निकट आने पर सोचा कि कुछ कमाई आज के दिन हो जाए तो सत्संग में जाऊँ परंतु चार बजे तक कोई ग्राहक न आया।
फिर मैंने दृढ़ संकल्प किया कि अब चाहे कोई ग्राहक आए या न आए। सत्संग में अवश्य चलना है। बस यह सोचते ही ग्राहकों का ताँता लग गया। इस धंधे में सत्संग का समय टल गया और रात के समय सात बजे, संत जी के आश्रम पर पहुँच पाया। संत जी ने उससे सत्संग में उपस्थित न होने का कारण पूछा।
उसने उत्तर दिया, “सुबह से शाम चार बजे तक कोई ग्राहक नहीं आया। इस पर जब मैंने दृढ़ता से आपके पास आने का मन बनाया तो बहुत से ग्राहक आ गए। जैसे तैसे मैंने हर काम समेटा और सीधा आपके पास आया हूँ।
संत जी ने मुझसे कहा कि भाई, अब आप अपने अनुभव से यह निष्कर्ष निकाल सकते हो कि धन-धान्य भी उन भक्तों का अनुसरण करता है जो श्रेष्ठ कार्य करने का दृढ़ निर्णय ले लेते हैं। अतः यदि आप सत्संग आदि श्रेष्ठ कार्य करने का दृढ़ संकल्प रखोगे और उसे पूरा निभाते रहोगे तो कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं रहेगा।
एक बुद्धिमान व्यक्ति को इस बात पर विचार करना चाहिए कि जब सब कुछ ईश्वर की इच्छा के अनुसार होता है तो वह ईश्वर अपने भक्त को किसी प्रकार का अभाव क्यों होने देगा।
देखो, चाहे भक्त ध्रुव को सौतेली माता को डाँटने पर संसार से वैराग्य उत्पन्न हुआ परंतु यह सत्य है कि उसने भगवान को प्रकट करने का इतना पक्का दृढ़ संकल्प किया कि भगवान को उनके सम्मुख प्रकट होना पड़ा। प्रभु नाम का इतना प्रभाव व प्रताप है कि गोसाई तुलसीदास जी ने श्री रामायण में कहा है कि जो कोई भगवान को पाना चाहे तो वह नाम सुमिरण करके सरलता से पा सकता है–
ध्रुवँ सगलानि जपेऊ हरि नाउँ ।
पायऊ अचल अनुपम ठाउँ ॥
सुमिर पवनसुत पावन नामू ।
अपने बस करि राखे रामू ॥
(बाल कांड)
अर्थ-भक्त ध्रुव ने विमाता के वचनों से दुखी होकर सकाम भाव से हरिनाम जपा और उसके प्रभाव से अचल अनुपम स्थान (ध्रुव लोक) प्राप्त किया। हनुमान जी ने भी इस पवित्र नाम का स्मरण करके ही भगवान को अपने वश में कर लिया।